कोरोना-काल के कर्फ्यू का नया समाजशास्त्र

दुनिया भर में फैले कोरोना वायरस ने जिंदगी की दशा-दिशा को सिरे से बदल दिया है। समूचे पंजाब में लॉकडाउन के साथ कर्फ्यू लागू है। कोरोना-काल के कर्फ्यू का नया समाजशास्त्र देखने को मिल रहा है। भारत में ‘कर्फ्यू’ की समूची अवधारणा अंग्रेज साम्राज्य की देन है। यह शब्द अमूमन अंग्रेजी में प्रचलित है। हिंदी सहित अन्य भाषाओं में इसका शाब्दिक अनुवाद ठीक-ठाक क्या है, ज्यादातर लोग नहीं जानते। व्यवहारिक तौर पर जानते हैं और यह भी कि कर्फ्यू का सीधा अर्थ आपकी दिनचर्या का कैद होना है, सब कुछ थम जाना है और मजबूरी प्रदत्त एकांतवास के हवाले हो जाना है!

इतिहास की गवाही-जानकारी है कि पंजाब में कर्फ्यू सन् 1820 के आस-पास अवाम की जिंदगी में उतरना शुरू हुआ। तब मायने अलग थे। अब एकदम अलहदा। इस सूबे ने 1919-20, 1944-45, 1947-48,1966 के बाद 1984 में कर्फ्यू का लंबा दौर देखा। जून-84 का कर्फ्यू सबसे यातनादायक था। वह फौजी संगीनों के साए में लागू हुआ था। जिंदगी की रफ्तार इस तरह से भी थमती है और रोकी जाती है, ऐसा लोगों ने पहली बार देखा और भुगता था। तब राज्य व्यवस्था ने अमन-कानून की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिए आम लोगों को कर्फ्यू की कैद दी थी। समकालीन दौर का कर्फ्यू अतीत में लगते रहे कर्फ्यू से निहायत जुदा है।

शासन प्रशासन के पैरोकार और ड्यूटी मजिस्ट्रेट 2020 के कर्फ्यू से पहले इसका आदेश देते वक्त फौरी तौर पर लिखा/कहा करते थे कि नागरिक हिफाजत के लिए या ‘बिगड़े हालात’ सुधारने के मद्देनजर इसे लागू किया जा रहा है। नागरिक हिफाजत और बिगड़े हालात का असल मतलब हिंसा की आशंका से होता था। पुलिस और अर्धसैनिक बल अपने तमाम अस्त्र-शस्त्र के साथ गलियों-बाजारों में फ्लैग मार्च निकालते थे। सरकारी कवायद रहती थी खौफ का माहौल बनाने की। कोरोना-काल सरीखा कर्फ्यू पंजाब ने कभी नहीं देखा। इतना लंबा भी नहीं। यह कर्फ्यू का नया समाजशास्त्र है।

लोग-बाग अराजक और असामाजिक तत्वों से नहीं बल्कि खुद से भयभीत हैं। कर्फ्यू सरकारी भाषा में मुकम्मल तौर पर कामयाब है और यह भी पहली बार है कि इसे कामयाब बनाने के लिए राइफलों-बंदूकों का सहारा नहीं लिया जा रहा। पहले के दौर में कर्फ्यू के उल्लंघन के लिए बारूद से जिस्म तक छेद दिए जाते थे और ऐसी धाराएं लगाकर जेल अथवा यातना शिविरों में भेज दिया जाता था, जिनमें बरसों जमानत नहीं होती थी। 

अब? कर्फ्यू के उल्लंघन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 और 144 लगती है यानी थाने से ही थानेदार जमानत दे सकता है। मौजूदा कर्फ्यू के दरमियान पंजाब में लगभग 5 हजार मामले इन धाराओं के तहत दर्ज किए गए हैं और कोई भी आरोपी लॉकअप या जेल में नहीं डाला गया। जिनकी जमानत के लिए कोई नहीं आया, उन्हें भी ‘स्वजमानत’ पर छोड़ दिया गया। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। पुलिस को अपरोक्ष हिदायतें हैं कि कर्फ्यू भंग करने के आरोपियों को सलाखों में न डाला जाए और न उन पर बदनाम पुलिसिया हथकंडे इस्तेमाल किए जाएं। महकमा इन हिदायतों पर बखूबी अमल कर रहा है। कर्फ्यू का यह नया चेहरा और नया समाजशास्त्र है।     

पंजाब में कर्फ्यू के इतिहास में पहली बार इतना लंबा दौर आया है। यह भी पहली बार है कि लोग पुलिस से नफरत नहीं कर रहे और न पुलिस उन्हें खाकी का विशिष्ट भय दिखा रही है। फ्लैग मार्च निकलता है तो पुलिस बल की टुकड़ियों पर फूल बरसाए जाते हैं। बच्चे उन्हें रोककर उनकी शान में गीत सुनाते हैं। हर इलाके से रोज ऐसी खबरें मिलती हैं कि पुलिसकर्मियों ने बाकायदा घर जाकर लोगों के जन्मदिन की बधाइयां और तोहफे दिए तथा दस लोगों के बीच होने वाले विवाह में शिरकत की। कई जगह डोलियां पुलिस एस्कॉर्ट में आ रही हैं। जिंदगी के मुरझाए पलों में भी पुलिस साथ दे रही है। खुशी-गम के मौके पर दस से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर कानूनी पाबंदी है।

पुलिस वाले अर्थियों को कंधा देकर, अंतिम सफर पर निकलों को श्मशान पहुंचाते भी देखे जा रहे हैं। अब तक पंजाब में कोरोना से जितनी मौतें हुईं हैं, सबके दाह-संस्कार में पुलिस के हाथ जरूर लगे। यह मंजर भी पहली बार दरपेश हो रहा है। वितृष्णा से देखे जाने वाले पुलिसकर्मी नायक बन रहे हैं। थानों से गालियां-फटकार की बजाए लंगर मिल रहा है! पुलिस वाले अभावग्रस्त परिवारों को उनके ठीए-ठिकानों तक जाकर खाना-दवाइयां पहुंचा रहे हैं।

सोशल मीडिया में तो पुलिस की इस भूमिका की तारीफ की ही जा रही है, चौपालों की गुफ्तगू में इन दिनों पुलिसकर्मियों को सराहना मिल रही है। पहले दुत्कार मिलती थी। पटियाला में निहंगों से मुठभेड़ में हाथ कटवाने वाले (एएसआई से सब इंस्पेक्टर बन चुके) हरजीत सिंह को बतौर हीरो मान्यता प्राप्त हुई है। 27 अप्रैल को पंजाब के 80 हजार पुलिसकर्मियों ने (जिनमें डीजीपी से लेकर आम सिपाही तक शामिल थे) हरजीत सिंह के नाम का बैज लगाया तो सिविल लोगों ने भी अपने-अपने तरीके से सदिच्छा के साथ उनकी शान बढ़ाई।

कोरोना वायरस से लड़ते हुए जान गंवाने वाले लुधियाना के एसीपी अनिल कोहली को लाखों लोगों ने सोशल मीडिया के जरिए श्रद्धांजलि दी। उनके परिजनों को जब जाहिलों ने ‘कोरोना परिवार’ कहकर सामाजिक रूप से बहिष्कृत करना चाहा तो बड़ी तादाद में लोग सहानुभूति के साथ आगे आए।           

बहरहाल, पुलिस को पहली बार नागरिकों से इस किस्म का सम्मान और  व्यवहार कर्फ्यू जैसे नागवार हालात में मिल रहा है तो अवाम को भी संभवत: पहली बार पुलिस का बहुत हद तक ‘मानवीय चेहरा’ साफ-साफ दिख रहा है। कोरोना-काल की सच्ची कर्फ्यू-कथा जब-जब, जिस-जिस विधा में लिखी-सुनाई (और सिनेमा/कैमरे के जरिए दिखाई) जाएगी तब-तब यह सब जरूर दर्ज होगा। बेशक तब पुलिस अपने पुराने ढर्रे में वापस चली जाए…!

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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