विकास नहीं, यह मौत का है रास्ता

वह समाज खूबसूरत होता है जो अपनी कमियों को हंसते हुए स्वीकार करे और उसे ठीक करने के लिए कमर कस ले। यह हरेक इंसान के लिए भी जरूरी है। हर आदमी शीशे में अपना चेहरा देखते हुए थोड़ा नुक्स निकालता है और उसे ठीक करने के तरीके ढूंढने निकल जाता है। लेकिन इतना तो ज़रूर ही करता है कि वह हर रोज अपना मुंह धुलता है जिससे धूल-धक्कड़ हट जाए।

ये बेहद व्यवहारिक बातें हैं और इस तरह की बातें कई बार ऊब पैदा करती हैं। लेकिन, यदि आप मोदी को देखें तो वह कुछ कुछ दिनों पर खुद की उपस्थिति को जितना उनसे संभव होता है, खूब सूरती के साथ पेश करते हैं। यह अलग बात है कि जिन अवसरों पर वह पेश करते हैं उसमें उनकी उपस्थिति अति-यथार्थ का शिकार हो जाती है। और, जो बयान आ जाते हैं, उनसे या सरकार के किसी मंत्री की ओर से तब यह सर्रियलिज्म को भी मात दे देता है।

आपको याद होगा जब उन्होंने यौगिक मुद्रा को पेश किया था। उस समय देश की अर्थव्यवस्था मंदी की शिकार हो चुकी थी और मजदूर और युवा बेरोजगारी की मार झेल रहे थे। स्वास्थ्य की यह पेशगी यथार्थ को कोलतार में डूबोकर बनायी गई थी। इसी तरह से उनके और उनके मंत्रियों की सफाई अभियान की प्रस्तुतियां थीं। शहर जो सपनों को संजोये हुए आ रहे लोगों को आवास देने से मुकर रहे हैं, फैक्टरियां मजदूरों की आय कम करने में लगी हुए हैं और पेड़ों, जंगलों, नदियों को विकास के नाम पर खत्म करने के आदेश पारित हो रहे हों और करोड़ से अधिक लोग पुटपाथों पर रात गुजराने के लिए अभिशप्त हों, …उस समय कूड़ा उठाने का फिल्मांकन सिल्वर स्क्रीन पर यथार्थ को गहरे रंगों में डूबो देना था, जिससे कि यथार्थ की जगह वह रंग दिखे जिसे वह दिखाना चाहते हैं, खुद से बड़ा होता कद।

आज, जब लोगों में बीमारी, नौकरी और मौत का डर समा चुका है, आशंका से भरे हुए लोग अगली सुबह का इंतजार कर रहे हैं, …तब संत मुद्रा में बेहद निस्पृह माहौल में मोर को दाना खिलाना, उसकी नाच के साथ ‘एकला’ टहलते हुए दिखना, …यथार्थ को पैरों तले रौंदते हुए गुजर जाना है। तभी तो, उनकी मंत्री में इतनी हिम्मत आई कि अपनी गलतियों को ईश्वर के मत्थे डाल दें।

लेकिन, चाहे कोई खुद को या समाज को, या किसी भी चीज को जैसे भी पेश करे उसके भीतर का यथार्थ खत्म नहीं होता। हमें उसके भीतर झांककर ज़रूर देखना चाहिए। कोलतारों, गहरे रंगों, चमकदार चिन्हों, …को हटाते हुए उस यथार्थ तक ज़रूर पहुंचना चाहिए। मसलन, आजकल हर सोचने समझने वाला परेशान हो रहा है कि कोरोना की मार में भारत पहले नंबर तक पहुंच गया है, यह भयावह स्तर से फैल रहा है लेकिन ऐसी क्या बात हो गयी है कि सब कुछ खुला छोड़ दिया गया है। छात्रों को कानून और प्रशासन की नोक पर परीक्षा में बैठाया गया।

सभी चिंतित हैं कि ऐसी क्या जल्दी हो गई है? लाॅक डाउन अब अनलाॅक के फेज में बदल गया है। और यह काम तो जीडीपी के 24 प्रतिशत गिरावट के पहले से ही शुरू हो गया था। जब अनलाॅक का निर्णय लिया गया था तब प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को ‘हरियाली’ के दर्शन हो रहे थे। यानी, इतना तो कहा ही जा सकता है कि गिरावट में घबड़ाहट से उठाया गया यह कदम नहीं है। साफ है यह सोच समझकर ही उठाया गया कदम है। चाहे वह कितना भी क्रूरता भरा हो।

आइए, इसका अर्थशास्त्र देखें। 28 अगस्त, 2020 को भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 541.431 बिलियन डालर हो गया। इसी साल के जून में यह 501.7 बिलियन डालर था। देश की अर्थव्यवस्था की अब तक की सबसे बड़ी गिरावट में यह उपलब्धि कुछ बताती है। लेकिन, अभी इतना ही देखें कि भारत की कंपनियों की खरीद, शेयर और सीधे निवेश में विदेशी कंपनियां पैसे लेकर आ रही हैं। हां, उतना नहीं जितने के दावे ठोक दिये जाते हैं। फिर भी यह पिछले साल की तुलना में बढ़ोत्तरी 20 प्रतिशत की है। आप याद करें, 1991 में भी आर्थिक बदतरी थी और उस समय विदेशी मुद्रा महज 5.8 बिलियन डालर था।

तब, विदेशी निवेश के लिए देश का हर दरवाजा खोल देने की नीति आई थी। आज, फर्क इतना ही है कि गेट के अलावा खिड़कियां भी खोल दी गई हैं और आर्थिक स्थिति के बद से बदतर होने के बावजूद विदेशी मुद्रा का भंडार है। समानता क्या है? उस समय प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री विदेशी निवेश का आह्वान कर रहे थे। यही काम इस समय के प्रधानमंत्री ने भी 4 सितम्बर, 2020 को यूएस-इंडिया स्ट्रैट्जिक पार्टनरशिप फोरम में बोलते हुए किया। हां, एक और फर्क है। उस समय ‘समाजवादी नीतियों’ को आर्थिक संकट के लिए दोषी बताया गया। आज उसे ईश्वर के मुंह पर दे मारा गया। 

दूसरी ओर, भारत के भीतर पैसे का भंडारण भी बढ़ रहा है। आकस्मिक निधि में रिजर्व बैंक ने 2,64,034 करोड़ पहुंचा दिया। उसके पास 73,615 करोड़ रूपये इसी दौरान इकठ्ठा हो गये थे। रिजर्व बैंक के पास विभिन्न मदों का कुल 13.88 लाख करोड़ रूपया जमा हो चुका है। डाॅलर के मुकाबले रूपया दो प्रतिशत मजबूत हो गया। कारण, कुछ खास नहीं, बस बैंक अतिरिक्त पैसों को आरबीआई के पास भेज रहे हैं और जो पैसा डूब रहा है उस पर चुप रहना बेहतर समझ रहे हैं।

हां, ब्याज के लिए परेशान जरूर हैं। कुल मिलाकर पैसा बाजार से निकलकर बैंकों को नसीब हो रहा है जबकि भंडार में डालर बढ़ रहा है। शेयर बाजार की उड़ान इस मंदी में देख ही चुके हैं लेकिन जैसे ही लाॅक डाउन हुआ, थोड़ी गिरावट भी आई। शायद, यह मध्यवर्ग में आई अनिश्चितता की वजह से हो या निवेश की संभावनाओं में आई कमी की वजह से भी, क्योंकि पैसे के खेल में बैंक कितनी दूर तक खेल खेलेंगे!

तो, बात इतनी सी है कि जो मुद्राएं हैं, देशी और विदेशी दोनों ही वे भंडारगृह में पड़ी रहेंगी तब वे बढ़ेंगी कैसे? यानी सरकार की भाषा वाला ‘विकास’ कैसे होगा? चलो, जो एनपीए हो रहा है, वह होने दो। जो आ रहा है उस पर काम शुरू कर दो। यानी यह मुद्रा को कारोबार में उतारने की नीति है। सब कुछ करने दो, सब कुछ करो, सब कुछ चलने दो। मजदूर, मध्यवर्ग, …जो भी है उसे रोजगार में उतार दो। क्योंकि, कारोबार ही मुनाफे और आंकड़ों को ठीक कर लेने का स्रोत है। इसके लिए जरूरी है अनलाॅक।

बीमारी, मौत जैसी बातों का अर्थ नहीं रह गया। मजदूरों और आम जन की मौत तो पहले से भी बड़ा मसला नहीं रहा है, तो अब क्यों हो जाये? विकास की इस रणनीति की ईश्वरीय आपदा सिर्फ कार्यनीतिक रोड़ा है। इसे ईश्वर पर ही डाल दिया गया। यानी मौत आप और ईश्वर के बीच का मसला है। विकास का मसला सरकार का है और वह एक बार फिर हाथी पर कर चल दिया है। कृपया उसके पैरों के नीचे मत आएं! नुकसान आप ही का होगा।

आप सोच रहे होंगे, अर्थव्यवस्था से राजनीतिक निहितार्थ निकालना विशुद्ध मार्क्सवाद है। लेकिन क्या आपको यह नहीं लगता कि विशुद्ध मार्क्सवादी होना कितना जरूरी है? यह सिर्फ राजनीति को पढ़ने के लिए ही नहीं जरूरी है। यह मोर को दाना खिलाते समय मोदी के चेहरे पर दिख रही ‘शांति’ को पढ़ने के लिए भी जरूरी है। व्यापार में घाटा होने के बावजूद जब व्यापारी घाटे से निकल जाने का रास्ता खोज लेता है तब आप उस चेहरे को याद करें। हां, मोदी ने विकास का नया रास्ता ढूंढ लिया है।

आप चिल्लाते रहिए कि रास्ते में कुछ पैसे फेंक दो, ताकि लोग बाजार जा सकें, उजड़े दरवाजों पर अन्न फेंक दो ताकि वहां कुछ हलचल हो, बेरोजगारों में भत्ते बांट दो, छोटी कंपनियों को कुछ उपहार भिजवा दो ताकि उनका भरोसा बन सके कि सरकार हुजूर हैं, ….आदि, आदि; इसका कोई असर नहीं होने वाला है। यह भारत के विकास का वह बनिया अर्थव्यवस्था है जिसमें आदमी सिर्फ अपना देय चुकाता है, हासिल कुछ भी नहीं करता है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था का विरोधाभास-पैराडाॅक्स नहीं है। जरूरी है इसके राजनीतिक अर्थशास्त्र को खोलकर पढ़ते रहना।

(अंजनी कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

अंजनी कुमार
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