लखीमपुरखीरी कांड: कौन लेगा सबक, जब सत्ताधीशों के पूरे कुएं में भांग पड़ी है

अच्छी बात है कि उत्तर प्रदेश स्थित लखीमपुर खीरी में प्रशासन ने थोड़ा लचीलापन दिखाकर रविवार को हुए बवाल से पीड़ित किसानों को इंसाफ के प्रति आश्वस्त कर उनसे समझौता कर लिया है। इस समझौते में तय हुआ है कि जानें गंवाने वाले किसानों के आश्रितों को 45-45 लाख रूपयों का मुआवजा और एक परिजन को नौकरी दी जायेगी। साथ ही, फसाद की जड़ बताये जा रहे केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे आशीष मिश्र को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जायेगा और सारे मामले की हाईकोर्ट के जज से जांच कराई जायेगी। निस्संदेह, इससे पीड़ितों के उद्वेलन घटेंगे और उनसे जुड़े संघर्षों के नये मोर्चे खुलने के अंदेशे घटेंगे। प्रशासन ने ऐसा ही रवैया थोड़ा पहले अख्तियार कर लिया होता तो बात उतनी बिगड़ती ही नहीं, जितनी बिगड़ गयी और जिसके कारण चार किसानों, तीन भाजपा कार्यकर्ताओं, एक ड्राइवर और एक पत्रकार को जान से हाथ धोना पड़ा।

यह प्रशासन के समय रहते सक्रिय न होने का ही नतीजा था कि किसानों द्वारा केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी, जो वहां के सांसद भी हैं, और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य को काले झंडे दिखाने के सिलसिले में इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटीं, जिनका किसी भी तरह समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वहां जो कुछ हुआ, उसके पीछे न सिर्फ आन्दोलित किसानों की लम्बी अनसुनी और उनके आक्रोश के गलत आकलन बल्कि उन्हें बार-बार उकसाने की सत्ताधीशों की कार्रवाइयां भी हैं। उनकी ऐसी कार्रवाइयां कई बार लोगों को गुलामी के उस दौर की याद दिलाती हैं, जब गोरी सरकार देश के नागरिकों से ‘न अपील, न वकील, न दलील’ की तर्ज पर सलूक किया करती थी। कई जानकार तो यहां तक कहते हैं कि इन सत्ताधीशों ने पिछले दस से ज्यादा महीनों से आन्दोलित किसानों से जैसी अनुदारता बरती है, गोरे सत्ताधीश भी उसे बरतने से पहले सौ बार सोचते।

इसे यों भी समझ सकते हैं कि लखीमपुर खीरी में बात हद से आगे बढ़ गई और किसान गृहराज्यमंत्री के काफिले की गाड़ी से कुचल दिये गये अपने साथियों के शवों का तब तक अंतिम संस्कार न करने पर अड़ गये, जब तक उनकी मांगें नहीं मान ली जातीं, तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगाकर लखीमपुर खीरी को किले में बदल डाला। सारे विपक्षी दलों के नेताओं को जहां-तहां गिरफ्तार कर वहां जाने से रोक दिया, सो अलग। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखजिन्दर एस. रंधावा के विमानों को लखनऊ में अमौसी स्थित चौधरी चरण सिंह अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरने तक से रोक दिया गया। लेकिन गत 26 सितम्बर को केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री उन्हें काले झंडे दिखाने वाले किसानों को खुलेआम चुनौती देते हुए सामने आने या सुधर जाने की धमकी दे रहे थे तो वह हालात से अन्जान-सी हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई थी।

इन मंत्री महोदय का कहना था कि कृषि कानूनों के खिलाफ केवल दस पन्द्रह लोग शोर मचा रहे हैं, जो नहीं सुधरे तो दो मिनट से भी कम में सुधार दिये जायेंगे। इतना ही नहीं, दावा कर रहे थे कि वे सिर्फ मंत्री या सांसद नहीं हैं और जब उन्हें काले झंडे दिखाये जा रहे थे, वे कार से उतर जाते तो दिखाने वालों को भागने का रास्ता नहीं मिलता। उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘जो लोग मेरे विषय में जानते हैं, उनको पता होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं। जिस दिन मैंने चुनौती स्वीकार कर ली, उस दिन मुझे काला झंडा दिखाने वालों को लखीमपुर खीरी छोड़ना पड़ जायेगा।’

चूंकि इससे पहले भाजपा के कई समर्थक किसान आन्दोलनकारियों के लखनऊ को दिल्ली बनाने पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा उनके ‘बक्कल तार देने’की बात भी कह चुके थे, किसानों द्वारा इस धमकी को उसी सिलसिले में लिया गया।
ठीक है कि लखीमपुर खीरी के प्रशासन के लिए गृहराज्यमंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई करना कठिन था, लेकिन जब उनकी धमकियों से और उत्तेजित किसान उसी दिन से अपने विरोध प्रदर्शन को नयी धार देने के फेर में थे और एलआईयू ने इसको लेकर सचेत भी किया था, तो प्रशासन उनके गुस्से का ठीक से प्रबन्धन तो कर ही सकता था। लेकिन उसने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा। यहां तक कि उपमुख्यमंत्री के दौरे के वक्त पुलिस बल की पर्याप्त तैनाती भी नहीं की। इस कारण बात बिगड़ गई तो उससे अचानक कुछ करते नहीं बना। जिले के दो थानों की पुलिस के बारे में तो यह तक खबर आई कि वह डर की मारी अपने थाने ही छोड़कर चली गई।

अब प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इन घटनाओं को दुःखद करार देते हुए आश्वस्त कर रहे हैं कि उनके दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा। लेकिन उनके इस तरह के आश्वासनों से बहुत आश्वस्ति इसलिए नहीं मिलती कि उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद इस तरह की जितनी भी हिंसक घटनाएं हुई हैं, उनमें उनकी सरकार अपने खास तरह के पूर्वाग्रहों के साथ सामने आई है। इन पूर्वाग्रहों के वशीभूत होकर वह अपने तईं जिन्हें भी दोषी मान लेती है, उन्हें दंडित करने को लेकर दिखावे के लिए भी लोकतांत्रिक नहीं रहना चाहती। उलटे जांच के नाम पर उनके उत्पीड़नों की हद कर देती है, जिससे नई समस्याएं पैदा होने लग जाती हैं।

चूंकि इस मामले की जांच हाईकोर्ट के जज को सौंपी जा रही है, उम्मीद की जा सकती है कि इसमें ऐसा नहीं होगा। लेकिन इस वक्त इससे भी बड़ी जरूरत यह है कि आन्दोलनकारी किसानों व सरकारों के बीच, न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि केन्द्र और दूसरे भाजपाशासित राज्यों में भी लगातार बढ़ते जा रहे अविश्वास को घटाने के गम्भीर प्रयत्न किये जायें। इसके लिए सबसे पहले सत्ताधीशों को वैसी धमकियां व चुनौतियां देने से बाज आना होगा जैसी केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री ने लखीमपुर खीरी के किसानों को अलानाहक दीं। वैसे भी उनका काम आन्दोलित समुदायों की समस्याओं को धैर्यपूर्वक सुनना और लोकतांत्रिक ढंग से सुलझाना होता है, न कि उन्हें धमकाना या ‘सामने आकर मुकाबला करने’ को कहना। उनमें से कोई ऐसा करता है तो कर्तव्यच्युत तो होता ही है, जनविश्वास भी खोता है।

लेकिन अभी तो लगता है कि पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हुई है। तभी तो मुख्यमंत्री तक अपनी जुबानें नहीं संभाल पा रहे। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने, जिनके राज्य में इस किसान आन्दोलन का सर्वाधिक प्रभाव बताया जाता है, अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भड़काते हुए यहां तक कह दिया है कि वे किसानों के खिलाफ डंडे उठा लें, जैसे को तैसा की शैली में जवाब दें, ऐसा करके जेल जायेंगे तभी तो बड़े नेता बनेंगे।
सत्ताधीश जितनी जल्दी इस तरह के ‘जवाबों’ की निरर्थकता समझकर उन्हें देना बन्द कर दें, उतना ही अच्छा।

(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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