अब बेनकाब हो गया है पश्चिम का सॉफ्ट पॉवर भी

विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने यूक्रेन संकट के बारे में लिखे अपने एक हालिया लेख का शीर्षक दिया है- The American Empire self-destructs यानी अमेरिकी साम्राज्य आत्म-विनाश कर रहा है। हडसन ने ये लेख मुख्य तौर पर यूक्रेन पर विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू करने के बाद रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के संदर्भ में लिखा है। हडसन की किताब सुपर इम्पिरियलिज्म वर्तमान साम्राज्यवाद की चर्चा में एक मौलिक हस्तक्षेप मानी जाती है।

अपने ताजा लेख में हडसन ने लिखा है- ‘सुपर इम्पिरियलिज्म में मेरा बुनियादी विषय यह है कि कैसे गुजरे 50 वर्षों में अमेरिका के ट्रेज़री बिल स्टैंडर्ड की वजह से विदेशी बचत अमेरिकी वित्तीय बाजारों और बैंकों में पहुंचती रही है। इससे बिना किसी लागत के डॉलर कूटनीति आगे बढ़ती रही है। मैंने सोचा था कि डॉलर पर निर्भरता से मुक्त होने की प्रक्रिया (de-dollarization) का नेतृत्व चीन और रूस अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर नियंत्रण कायम करते हुए करेंगे, ताकि वे अपने यहां उस तरह के वित्तीय ध्रुवीकरण से बच सकें, जैसा किफायत (austerity) की नीति थोपने की वजह से अमेरिका में हो रहा है। लेकिन खुद को de-dollarize करने में इन देशों में जो भी हिचक थी, अब अमेरिकी अधिकारी उन्हें उससे बाहर निकलने के लिए तुरंत मजबूर कर रहे हैं।’

सार यह है कि डॉलर के वर्चस्व को जो चुनौती अगले कई वर्षों में या दशक भर में मिलती, रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण वैसा तुरंत होने की संभावना बन गई है। ये प्रक्रिया दुनिया पर अमेरिका के आर्थिक/ वित्तीय वर्चस्व को सीमित करने के लिहाज से युगांतकारी साबित होने जा रहा है। (इस प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए इस लेख पर जाया जा सकता है-

https://www.janchowk.com/pahlapanna/usa-is-loosing-its-super-power-status-very-fast/

अमेरिका के सैनिक वर्चस्व की सीमाएं पहले ही स्पष्ट होती गई हैं। अफगानिस्तान से लेकर इराक और लीबिया तक पर उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के सहयोगी देशों के साथ हमला करने और कई वर्षों तक उन पर कब्जा जमाए रखने के बावजूद उनमें से किसी देश में अमेरिका अपने सैनिक उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका। इसके विपरीत वहां उसने युद्ध अपराध और मानवीय त्रासदी की अकथ्य कहानियां जरूर लिखीं। बहरहाल, अब यूक्रेन मामले में यह भी साफ हुआ है कि अमेरिका और नाटो अपनी विनाशकारी सैनिक शक्ति का वैसा प्रदर्शन करने की स्थिति में भी वहां नहीं हैं। जबकि ऐसे शक्ति प्रदर्शन के कारण ही सारी दुनिया में अब तक उनका भय कायम रहा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदीमीर जेलेन्स्की की लाचारी दुनिया के सामने इस बात की मिसाल बनी है कि अगर शासक में अपनी स्वतंत्र दृष्टि ना हो, तो पश्चिमी देश कैसे किसी देश को बलि का बकरा बना सकते हैं।

दुनिया ने इस पूरे घटनाक्रम को कैसे देखा है, उसकी मिसाल रूस के खिलाफ अमेरिका के कारवां में शामिल होने वाले देशों की सीमित संख्या है। अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों को छोड़ दें, तो बाकी प्रभावशाली देशों में बहुसंख्या ऐसे देशों की ही है, जिन्होंने यूक्रेन पर पश्चिमी कहानी को सीधे तौर पर स्वीकार नहीं किया है। उससे ‘वॉशिंगटन और लंदन में विकलता’ का क्या आलम बना है, यह पश्चिमी सोच का मुखपत्र समझे जाने वाले अखबार द टाइम्स की उस रिपोर्ट से जाहिर होता है, जिसकी सब-हेडिंग में कहा गया- Commonwealth states are among those refusing to condemn Putin.

याद करें। अफगानिस्तान या इराक पर जब अमेरिका ने हमले की तैयारी की थी, तो उसे दुनिया में कैसा समर्थन मिला था। तब इक्के-दुक्के ही ऐसे देश थे, जो उसके कारवां में चलने के लिए तैयार नहीं हुए थे। आज सूरत बिल्कुल अलग है।   

आखिर ये स्थिति क्यों बनी? इसे समझने के लिए उस जमीन पर ध्यान देना चाहिए, जिस पर अमेरिकी साम्राज्यवाद टिका रहा है। सैनिक और आर्थिक वर्चस्व बेशक इस जमीन का मुख्य पहलू है, लेकिन बाकी दुनिया की निगाह में इसे वैधता अमेरिका और यूरोप के ‘सॉफ्ट पॉवर’ से मिलती रही है। सॉफ्ट पॉवर का मुख्य आधार उनका यह दावा है कि पश्चिमी व्यवस्था न सिर्फ बाकी तमाम राजनीतिक व्यवस्थाओं से बेहतर है, बल्कि यह पूरी दुनिया के लिए आदर्श भी है। उनका दावा रहा है कि पश्चिमी सिस्टम लोकतंत्र, मानव अधिकारों, और नागरिक स्वतंत्रता के उसूलों पर टिका है। लोकतंत्र, मानव अधिकार, और स्वतंत्रता की अपनी परिभाषा को उन्होंने पूरी दुनिया को मापने की कसौटी बनाए रखा है।

जिन लोगों ने गंभीरता से पश्चिमी समाजों और वहां की व्यवस्था का अध्ययन किया है, उनकी पहले से यह राय रही है कि एक तो ये परिभाषाएं दोषपूर्ण और आंशिक हैं, लेकिन अगर इन्हें स्वीकार कर भी लिया जाए, तो खुद उन पर पश्चिमी देश खरे नहीं उतरते। फिर भी वैश्विक संचार और संवाद माध्यमों पर पश्चिम का आज तक ऐसा नियंत्रण है कि ऐसी समझ को हाशिये पर बनाए रखने में वह सफल रहा है। पश्चिमी समाजों की समृद्धि का आधार क्या है, उनके फ्री वर्ल्ड (आजाद दुनिया) होने के दावे का सच क्या है, और उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं का असल वर्ग चरित्र क्या है, इस बारे में होने वाली चर्चा की वैधता या स्वीकार्यता को सीमित रखने में उनके मीडिया की अब तक निर्णायक भूमिका बनी रही है।

यह नहीं कहा जा सकता कि ये भूमिका अब बहुत कमजोर हो गई है। इसके बावजूद यूक्रेन प्रकरण में पश्चिमी देशों ने जैसा व्यवहार किया है, उसे पश्चिमी मीडिया के धुआंधार दुष्प्रचार से भी छिपाए रखना संभव नहीं रह गया है। तो दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी सॉफ्ट पॉवर की हकीकत आज देख रहा है। कुछ घटनाओं पर गौर कीजिएः

●         यूक्रेन पर रूसी सैनिक कार्रवाई के बाद रूस पर न सिर्फ आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए और विमानन जैसे अन्य संबंध तोड़े गए, बल्कि अमेरिका और यूरोप में रूसी मीडिया को भी पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है। रूस के टीवी चैनल Russia Today और समाचार एजेंसी स्पुतनिक को पश्चिमी देशों में तमाम सैटेलाइट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से हटा दिया गया है। तो सवाल उठा है कि आखिर पश्चिमी देश अपनी जनता को एकतरफा कहानी क्यों बताना चाहते हैं? वे वैकल्पिक नजरिए या तथ्यों से उनको दूर क्यों रखना चाहते हैं? और जब उन्होंने ऐसा किया है, तो फिर उनके फ्री वर्ल्ड होने के दावे में कितना दम रह जाता है?

●         यूट्यूब, फेसबुक, गूगल जैसे ‘प्राइवेट सेक्टर’ के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने न सिर्फ रूसी माध्यमों को हटा दिया है, बल्कि ऐसा पक्ष रखने वाले हर कंटेन्ट को डिलीट कर दिया है, जो यूक्रेन पर पश्चिम की कहानी से अलग नैरैटिव रखता हो। मसलन, मशहूर अमेरिकी फिल्म निर्माता ओलिवर स्टोन की फिल्म Ukraine On Fire को भी यूट्यूब से हटा दिया गया है।

●         चेक रिपब्लिक ने कानून पारित कराया है, जिसके तहत रूस का पक्ष रखने की कोशिश करने वाले व्यक्ति को तीन साल कैद की सजा हो सकती है। इस होड़ में चेक रिपब्लिक को बहुत पीछे छोड़ते हुए यूरोपीय देश स्लोवाकिया ने ऐसा करने वाले व्यक्ति के लिए 25 वर्ष कैद की सजा का प्रावधान कर दिया है। तो यह ‘फ्री वर्ल्ड’ में नागरिक अधिकारों की हकीकत है। वहां कोई नागरिक अपने विवेक से अपना रुख तय नहीं कर सकता। जिन देशों में ऐसा कानून नहीं है, वहां ऐसे विवेक का परिचय देने व्यक्ति वहां के cancel culture का शिकार हो रहे हैं- यानी उनके विवेक और निष्ठा पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं।

●         कहा जाता है कि खेल, संस्कृति, और बौद्धिक कर्म को राजनीति या अंतरराष्ट्रीय विवादों से दूर रखा जाना चाहिए। लेकिन पश्चिमी देशों के दबाव में अंतरराष्ट्रीय खेल संगठनों के बीच रूसी खिलाड़ियों को बाहर रखने की होड़ लगी हुई है। यही हाल रूसी फिल्मों और किताबों का है। 

●         कई पश्चिमी विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने एलान किया कि वे अपने यहां सेमिनार या किसी अन्य चर्चा में रूसी बुद्धिजीवियों, कलाकारों या शिक्षाशास्त्रियों को नहीं आमंत्रित करेंगे।

●         रूस के प्रति नफरत का ऐसा आलम बनाया गया है, जिससे यूरोपीय देशों में रहने वाले रूसी मूल के कई लोग हमलों या बहिष्कार का शिकार बने हैँ।

●         पश्चिमी मीडिया में एकतरफा और अंधाधुंध नैरेटिव पेश करने का हाल यह है कि वह कब नस्लवादी और हेट स्पीच की सीमा पार कर गया, इसका ख्याल वहां के जाने-माने मीडिया संस्थानों और उनके कथित पत्रकारों को नहीं रहा। बीबीसी और अन्य माध्यमों पर ऐसी बातें खुलेआम कही गईं कि यूक्रेन से आ रहे शरणार्थी अपनी त्वचा और आंखों के रंग में ‘हमारे जैसे’ हैं। यह भी कहा गया कि वे एशियाई या अफ्रीकी शरणार्थियों जैसे नहीं हैं।

यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। लेकिन इतने उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि पश्चिमी मीडिया के प्रोपेगैंडा के जरिए जिस पश्चिमी समाज और राज्य-व्यवस्था को आदर्श के रूप में पेश किया जाता था, यूक्रेन प्रकरण में खुद वही बेनकाब हो गया है। और जब यह उन्माद वहां फैला है, तो जाहिर है, पश्चिम और पश्चिमी मीडिया की हकीकत से परिचित लोगों को अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने का मौका मिला है। वरना, पहले पश्चिमी चमक से चकाचौंध लोगों को यह समझा पाना बहुत मुश्किल होता कि कैसे गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि जैसी कंपनियां उसी अमेरिकी मिलिट्री- इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स का हिस्सा हैं, जिसके स्वार्थ युद्ध और युद्ध का माहौल बनाए रखने से अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं।

यानी यह सूचना तकनीक उद्योग भी उसी परियोजना का हिस्सा है, जिसके  संचालक मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स, तेल-गैस-खनन उद्योग, और वित्त-बीमा-रियल एस्टेट सेक्टर हैं। असल में यही अमेरिकी व्यवस्था के मालिक हैं, और इस रूप में पश्चिमी साम्राज्यवाद के असली संचालक एवं लाभार्थी हैं। इस सिस्टम के इस असल रूप को ढकने के लिए ही लोकतंत्र और फ्री वर्ल्ड का आवरण गढ़ा गया है, जबकि ना तो उन समाजों में वास्तविक लोकतंत्र है और ना ही फ्री वर्ल्ड व्यवहार में मौजूद है। यह आवरण इसलिए टिका रहा है, क्योंकि इस साम्राज्यवादी सिस्टम ने अपनी जनता और बाकी दुनिया के लोगों का ब्रेनवॉश करने का कारगर उपाय कर रखा है।

यह गौर करने की बात है कि यूक्रेन की घटना उस समय हुई, जब अमेरिकी साम्राज्य के बाकी दो आधार दरक रहे थे। जैसाकि ऊपर हमने चर्चा की है, अमेरिका की सैनिक शक्ति के अजेय होने की धारणा कई जगहों पर जख्मी हुई थी। लेकिन हाल में जिस तरह अफगानिस्तान में यह टूटी, उसकी यादें लोगों को अभी ताजा हैं। आर्थिक जगत में चीन के उदय ने किस तरह खुद अमेरिका को उस पर निर्भर बना दिया है, यह बात व्यापार और आर्थिक विकास के आंकड़े हर साल लोगों को याद दिला जाते हैं।

इस बीच कोविड-19 महामारी ने अमेरिकी विकास और वहां के कुशल प्रशासन की पोल भी खोल दी। जिस तरह महामारी को संभालने में अमेरिका लाचार बना रहा और जिस संख्या में वहां लोगों की मौत हुई, उससे यह धारणा भी टूट गई कि अमेरिका में रहने वाले लोग बाकी दुनिया की तुलना में अधिक सुरक्षित और बेहतर माहौल में रहते हैं। उलटे चीन ने जिस कुशलता से महामारी को संभाला, उससे एक विरोधाभासी तस्वीर दुनिया के सामने पेश हुई है। यह गंभीर चर्चा चली है कि अमेरिका की वित्तीय पूंजी से नियंत्रित व्यवस्था में मानव जीवन का वह मोल क्यों नहीं है, जो एक विचारधारा से संचालित चीन जैसी व्यवस्था में है।

यूक्रेन प्रकरण में पश्चिमी समाजों में मौजूद अघोषित सेंसरशिप के घोषित रूप से सामने आ जाने, यूक्रेन में युद्ध तक स्थिति पहुंचने के सच पर परदा डालने में पूरी व्यवस्था के जुटने और खुलेआम अतार्किक विमर्श के उन समाजों में जुनून का रूप ले लेने की स्थिति से पश्चिमी समाजों के ‘फ्री वर्ल्ड’ होने की धारणा भी अब धूल में मिल गई है।

जाहिर है, इससे एक नई परिस्थिति दुनिया में बनेगी। जिन बातों को पश्चिमी देश गरीब और विकासशील देशों या खुद से असहमत देशों को घेरने के लिए हथियार बनाते थे, वे अब भोथरे नजर आएंगे। मीडिया की भूमिका और स्वतंत्रता पर दुनिया भर में नई बहस खड़ी होगी। इसके बीच चीन जैसे देशों की मीडिया संस्कृति से अमेरिकी या यूरोपीय मीडिया श्रेष्ठ नजर नहीं आएगा। यही बात विमर्श और बहस की संस्कृति के संदर्भ में कही जा सकती है। तो कुल मिला कर जैसा कि माइकल हडसन ने कहा है, यूक्रेन प्रकरण में अमेरिका आत्म-विनाश की राह पर चला है। हडसन ने ये बात भले डॉलर के वर्चस्व के संदर्भ में कही हो, लेकिन यही बात पश्चिम के सॉफ्ट पॉवर पर भी लागू होती है। यह बात अब समझने वाले लोगों की संख्या अचानक तेजी से बढ़ गई है कि यह सॉफ्ट पॉवर असल में एक मीडिया क्रियेशन (मीडिया निर्मित कहानी) है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर एक बार ब्रेनवॉशिंग के जरिए लोगों के दिमाग में बैठाये गए झूठे नैरेटिव्स की साख खत्म हो गई, तो फिर दुनिया में एक नई समझ पैदा होने की अनुकूल स्थितियां बनेंगी। इस रूप में यूक्रेन प्रकरण एक युगांतकारी घटना हो सकता है, हालांकि युगांतर की परिस्थितियां इसके पहले ही ठोस आकार लेने लगी थीं। उन्हीं परिस्थितियों ने पश्चिमी देशों- खासकर अमेरिका में वह बदहवासी पैदा की थी, जिस कारण ये देश यूक्रेन को युद्ध के मुहाने पर धकेल आए। और उसी बदहवासी में वे अब अपनी ही जमीन को खोदने में जुटे हुए हैं।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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