अब क्या मोदी सरकार लिव-इन रिलेशनशिप पर लगायेगी बैन?

भारत की संसद में दूसरी दफा यह मांग उठाई गई है, और दोनों बार यह पुनीत कार्य भाजपा सांसदों द्वारा ही किया गया है। 7 सितंबर, 2023 को भाजपा सांसद धर्मबीर सिंह ने लोकसभा में भारत में युवाओं के बीच में तेजी से बढ़ते लिव-इन रिलेशनशिप को एक बेहद खतरनाक बीमारी बताया है।

संसद में ‘शून्य काल’ के दौरान इस सवाल को उठाते हुए चौधरी धर्मबीर सिंह का कहना था कि इस बीमारी को रोकने के लिए देश की संसद में कानून बनाया जाना आवश्यक है। बता दें कि धर्मबीर सिंह भिवानी-महेंद्रगढ़ से लोकसभा सांसद हैं, और पिछले दिनों लिव-इन रिलेशनशिप मामलों के खिलाफ हरियाणा में एक खाप-पंचायत बैठी थी, जिसमें ऐलान किया गया था कि 10 सितंबर को जींद में महापंचायत होगी। इस महापंचायत में फैसला लिया जाना था कि लड़की को प्रेम या लिव-इन रिलेशन बनाने से पहले अपने माता-पिता से अनुमति लेना अनिवार्य होगा।

अब समाज की चिंता सांसद को नहीं होगी तो भला किसे होगी? यह दूसरी बात है कि हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर की सरकार बेहद अलोकप्रिय हो चुकी है, और उसके दाग अब लोकसभा चुनावों पर भी भारी असर डाल सकते हैं, लिहाजा लिव-इन रिलेशनशिप जैसे सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर पुरातन मूल्यों, पारिवारिक इज्जत और परंपरा जैसे भावनात्मक मुद्दों को आधार बनाते हुए कनेक्ट बनाना अपनी जीत को सुनिश्चित बनाने के लिए बेहद जरुरी है।

अब यह दूसरी बात है कि जींद में ही कुछ सप्ताह पूर्व एक कन्या विद्यालय में एक प्रधानाध्यापक के खिलाफ कई दर्जन छात्राओं ने हरियाणा महिला आयोग सहित राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक को शिकायती पत्र लिखकर यौन उत्पीड़न की शिकायत की थी। उक्त घटना पर सांसद साहब का कोई बयान देखने को नहीं मिला, न ही भाजपा के किसी भी नेता ने इस बारे में मुहं खोला।

लेकिन 7 दिसंबर 2023 को भाजपा सांसद ने शून्य काल के दौरान संसद के भीतर बोलते हुए देश को लव मैरिज के खतरों के प्रति आगाह जरुर किया। उनका कहना था कि लव मैरिज में तलाक की संभावनाएं काफी बढ़ जाती हैं। ऐसे में शादी जैसे रिश्ते के लिए माता-पिता की मंजूरी मिलना आवश्यक है।

उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं वसुधैव कुटुंबकम की दुहाई देते हुए बताया कि हमारे देश का सामाजिक ताना-बाना शेष दुनिया के देशों से अलग है, और देश में अरेंज मैरिज की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। सांसद धर्मबीर सिंह का कहना था कि शादी जैसे मामलों में सामाजिक रसूख के साथ-साथ खानदान का भी ध्यान रखा जाता है। इसके साथ ही शादी एक ऐसा बंधन है जो सात पीढ़ियों तक चलता है।

उन्होंने आगे कहा कि अरेंज मैरिज की वजह से देश में तलाक की दर आज भी महज 1.1 फीसदी है, जबकि अमेरिका में 40 फीसदी तलाक की घटनाएं होती हैं। देश में पिछले कुछ सालों में तलाक के मामले बढ़े हैं, जिसकी वजह लव मैरिज का बढ़ता प्रचलन है। उन्होंने यह भी मांग की है कि लव मैरिज में माता-पिता की सहमति अनिवार्य की जाए। लव मैरिज की वजह से भी गांवों में बहुत से विवाद हो रहे हैं, जिसमें कई परिवार तक तबाह हो रहे हैं।

बीजेपी सांसद ने लिव-इन रिलेशनशिप को एक नई बीमारी बताते हुए कहा कि इसमें दो लोग बिना शादी के ही साथ रहते हैं। इसपर कठोर कानून बनाया जाना चाहिए। श्रद्धा-आफताब केस का हवाला देते हुए सांसद ने संसद को इसके बेहद खतरनाक परिणामों एवं सामाजिक तानेबाने के छिन्न-भिन्न होने के खतरों के प्रति आगाह किया है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि सरकार के भीतर ऐसी सोच रखने वाले ये कोई पहले सांसद हैं। इससे पहले भी 26 जुलाई 2023 को भाजपा के राज्य सभा सांसद अजय प्रताप सिंह सदन के भीतर लिव-इन रिलेशनशिप पर बैन लगाने की मांग कर चुके हैं।

लेकिन यहां पर राहत की बात यह रही कि धर्मबीर सिंह के श्रद्धा वाकर हत्याकांड की जगह सांसद अजय प्रताप सिंह ने ‘मुंबई की सरस्वती की उसके लिव-इन पार्टनर द्वारा बेरहमी से हत्या कर, उसके अवशेषों को प्रेशर कुकर में पकाकर कुत्तों को खिलाने की घटना का उदाहरण दिया था। एक हिंदू लड़की श्रद्धा वाकर और मुस्लिम लड़के आफताब पूनावाला के वसई (पालघर) से दिल्ली में लिव-इन में रहने और हत्याकांड को लेकर पूरे देश में लंबे समय तक यह मामला उठाया गया, और विशेषकर हिंदुत्ववादी संगठनों ने महाराष्ट्र के भीतर इसको लेकर कई रैलियां आयोजित कीं और लव-जिहाद के सिद्धांत को एक बड़ा एजेंडा बना दिया था। आज भी यह एजेंडा है, लेकिन मराठा आरक्षण की आग भड़कने के कारण इसके लिए आधार नहीं मिल पा रहा है।

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या हमारे देश के कानून-निर्माताओं को वैयक्तिक स्वतंत्रता और नागरिकों के लिए अपनी पसंद-नापसंद की आजादी पर भी अतिक्रमण करने की छूट दी जा सकती है? मोदी सरकार ने बहुसंख्यक हिंदुत्ववादी उभार को अभी तक तो मुख्यतया मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को ध्यान में रखकर ही इस्तेमाल किया है। वो चाहे कश्मीर में धारा-370 को हटाने और 5 वर्ष बीत जाने के बाद भी राज्य में विधानसभा चुनाव न कराने से जुड़ा हो, या सीएए-एनआरसी को देश और पश्चिम बंगाल में सेलेक्टिव तरीके से लागू करने का ऐलान रहा हो।

भाजपा शासित राज्यों में गौ-वध के खिलाफ कानून, अवैध बूचड़ खानों पर प्रतिबंध के नाम पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नियोजित तरीके से आर्थिक रूप से अरक्षित मामले देखे जा सकते हैं। गौ-रक्षकों को इन राज्यों में सरकारी संरक्षण देकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की लगातार लिंचिंग और भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं से मोदी सरकार का पहला कार्यकाल भरा पड़ा था।

लेकिन लिव-इन रिलेशनशिप तो बिल्कुल अलग परिघटना है, जिसे भारतीय कानून भी मान्यता देता है। 7 सितंबर 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप मामले पर महत्वपूर्ण फैसला करते हुए इसे मान्यता देकर क़ानूनी मुहर लगा दी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में बालिग जोड़े (18 वर्ष या अधिक) को साथ रहने की स्वतंत्रता देने के साथ अपने फैसले में यह भी जोड़ा था कि बालिग जोड़ों के माता-पिता समेत किसी दूसरे को भी उनके शांतिपूर्ण जीवन में हस्तक्षेप करने का किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं है।

जस्टिस सुरेंद्र सिंह की सिंगल बेंच कोर्ट के अनुसार बालिग जोड़ा यदि भिन्न जाति अथवा धर्म का भी हो, तो भी ऐसे कपल बिना किसी रोक टोक के साथ रह सकते हैं। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने अपने आदेश में बालिग जोड़े के लिव इन रिलेशनशिप में रहने पर उन्हें धमकाने या परेशान वाले के खिलाफ पुलिस कमिश्नर या अन्य अधिकारी के समक्ष अर्जी देने पर, अनुच्छेद 19 व 21 के उल्लंघन के तहत उन्हें संरक्षण प्रदान करने का नियम भी लागू कर दिया था।

विकास चाहिए तो लव मैरिज और लिव-इन रिलेशनशिप क्यों नहीं?

हमारे देश में अब शायद ही कोई विरला इंसान हो जिसे ‘विकास’ से नफरत हो। सबको विकास चाहिए। महानगरों से लेकर सुदूर पहाड़ों में दो-चार घरों में रहने वाले ग्रामीणों की भी अपने विधायक, मंत्री और प्रधानमंत्री से अपने क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, इंटरनेट कनेक्टिविटी की मांग रहती है। यह विकास है कि विनाश, इसकी समझ देश में मध्य-वर्गीय शिक्षित आबादी तक को नहीं है, तो बहुसंख्यक आबादी को कैसे हो सकती है?

हिमालयी क्षेत्रों में भारी बारिश से तबाही, अगस्त में 100 साल का सबसे बड़ा सूखा, दिसंबर में भी गर्मी और चेन्नई में भारी बाढ़ सहित दिल्ली ही नहीं अब पूरे देश में प्रदूषण और स्माग की चादर में विकास कितना बदरंग हो चुका है, लेकिन किसी को दिखता ही नहीं है।

असल में विकास की बयार सबसे पहले भारत में 90 के दशक में विश्व बैंक और आईएमएफ के मार्फत पूर्व पीएम नरसिंह राव और उनके वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के द्वारा लाई गई थी। बाद में जब वाजपेई के नेतृत्व में भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला, तो उसने इसे और विस्तार दिया। वाजपेई सरकार ने तो नेहरु के आधुनिक मंदिर ‘सार्वजनिक निगमों’ की बिकवाली के लिए बाकायदा विनिमेश मंत्रालय तक बना डाला था।

2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में तो देश बाकायदा ‘विकास’ के नाम पर लट्टू ही हो चुका था। गुजरात के विकास की रंगीन तस्वीर सोशल मीडिया पर भारत में जिसने भी देखी, उसने कहा हमें भी अपने प्रदेश में यही चाहिए, इसलिए मोदी-मोदी के नारे देश की जुबान पर चढ़ गये।

पश्चिम से न सिर्फ हमने पूंजी का आयात किया, बल्कि उन उत्पादों का उत्पादन और सेवन भी धड़ल्ले से करना शुरू कर दिया, जो 90 के दशक से पहले बड़ी आबादी के लिए दुर्लभ था। दिल्ली में जो सरकारी कर्मचारी 25 पैसे के टिकट पर डीटीसी बस से दफ्तर आते-जाते नहीं संकुचाता था, देखते ही देखते उसने भी पहले दुपहिया और 2000 और बाद के वर्षों में चौपाये वाहन से आना-जाना नियम बना लिया।

आज देश में इस मध्य वर्ग के बेटे-बेटियां पुणे, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे महानगरों में आईटी फर्म या इंजीनियरिंग उद्योग में कार्यरत हैं। ऐसे लाखों लोगों ने पहली सैलरी के साथ ही कार और कुछ ही वर्षों में अपना फ्लैट बुक करने जैसी पहल की, तो समाज ने उन्हें सफल बताया। 2000 के दशक से पहले यह सब करने के लिए किसी भी ईमानदार कर्मचारी-अधिकारी के लिए सेवानिवृति के बाद मिलने वाले प्रोविडेंट फंड के बगैर यह सब कर पाना लगभग असंभव था।

लेकिन यह सब संभव बनाया पाश्चात्य नव-उदारवादी अर्थनीति ने। 90 के दशक में ही क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, उत्पादों एवं कंज्यूमर गुड्स की खरीद के लिए आसान किश्तों पर फाइनेंश की व्यवस्था उपलब्ध होने लगी थी। भारत का मध्य वर्ग अमेरिकी जीवनशैली को अपना चुका था। लेकिन यही युवा जब अपनी मर्जी से प्रेम संबंध और अब लिव-इन रिलेशनशिप अपनाते जा रहे हैं, तो हमारे समाज के कथित कर्ता-धर्ताओं को भारतीय परंपरा और जीवनशैली के छिन्न-भिन्न होने का खतरा सताने लगा है, क्योंकि यदि ऐसा ही चलता रहा तो उसके पास न तो पुराना सामंती समाज बचेगा और न टार्गेटेड नारे और जातीय-धार्मिक समीकरण के सहारे सत्ता की कुंजी।

भारत के प्राचीन इतिहास में जो गंधर्व विवाह था, वही आज लिव-इन रिलेशनशिप है

गंधर्व विवाह के बारे में तो हम सभी ने कभी न कभी पढ़ा ही होगा। राजा दुष्यंत और शकुन्तला की कहानी को हम सभी ने प्राथमिक पाठशाला में अवश्य पढ़ा होगा। उनका विवाह भी गंधर्व विवाह की श्रेणी में आता है, जिसे परंपरागत तरीके से नहीं किया गया था। इस रिश्ते में एक बच्चे का जन्म हुआ था, जिसका नाम भरत था। राजा शिकार के बाद अपने राज्य में चला जाता है और शकुंतला गर्भधारण कर जब राजा के दरबार में पहुंचती है तो राजा दुष्यंत की दी हुई अंगूठी की निशानी से ही वह शकुंतला को पहचान पाता है, और इस प्रकार गंधर्व विवाह से उत्पन्न भरत आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं। भरत के नाम पर ही देश का नाम भारत पड़ा, जिसे इंडिया और हिंदुस्तान के नाम से भी पूरी दुनिया में जाना जाता है।

इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि हिंदू धर्म की स्मृतियां आठ प्रकार के विवाह को मान्यता देती हैं, जिसमें से एक गंधर्व विवाह भी है। अन्य सात हैं: ब्रह्मा, दैव, आर्य, प्रजापत्य, असुर, राक्षस एवं पैशाच विवाह। प्राचीन हिंदू साहित्य आपस्तंब गृह्यसूत्र के अनुसार, गंधर्व विवाह में महिला अपना पति स्वयं चुनती है। वे अपनी मर्जी से एक-दूसरे से मिलते हैं, साथ रहने के लिए रजामंद होते हैं और उनका रिश्ता जुनून से पैदा हुए मैथुन में परिणत होता है। विवाह के इस प्रारूप में माता-पिता या किसी अन्य की सहमति की कोई आवश्यकता नहीं होती। वैदिक ग्रंथों के अनुसार, यह ऋग्वैदिक काल में विवाह के सबसे शुरुआती एवं सामान्य रूपों में से एक था। (संदर्भ Hindu Saṁskāras: Socio-religious Study of the Hindu Sacraments, Rajbali Pandey (1969))

देश में अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय में यह प्रथा आज भी जारी है, और इसमें महिला की पसंद-नापसंद को वरीयता दी जाती है। रामायण में सीता-राम का विवाह भी स्वयंवर के द्वारा हुआ बताया जाता है। इस प्रकार से हमें मानना होगा कि भारत का प्राचीन समाज कई मायनों में आज के समाज से काफी उन्नत था, और उसमें महिला स्वतंत्रता और प्रेम और विवाह को लेकर इतना पिछड़ापन नहीं था। हमारे नीति-निर्माताओं को ‘विकास’ चाहिए, लेकिन मटेरियल वो भी अपने और अपने चंदा (बांड) देने वालों के लिए।

लेकिन उन्हें इस इंटरनेट के युग में माता-पिता से दूर किसी महानगर या शहर में रह रहे युवाओं को आज भी खूंटे से बांधे रखने की हसरत है। बहुत संभव है, देश जिस राह पर खुद को ले जा रहा है, उसमें बुद्धि, विवेक की गुंजाइश तो वैसे भी ज्यादा नहीं रह गई है। ऐसे में बहस संभव है कि हमारे नीति-निर्माताओं की यह हसरत भी पूरी हो जाये। बस इसके लिए यही करना होगा कि इन युवाओं को रोबोट की तरह कमाऊ पूत की तरह कंडीशन करने की जरूरत है, और इनमें सहज मानवीय गुणों की जगह ऐसे प्रोग्राम्ड करना होगा कि लड़का हो या लड़की, दोनों खूंटे में बंधी गाय की तरह सिर्फ दूध दे सकें और ज्यादा जरूरत हो तो प्यार से रंभाने की आजादी हो।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

रविंद्र पटवाल
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