झारखंड: धर्म कोड को लेकर आदिवासियों में आपसी खींचतान

रांची। देश के आदिवासी समुदाय ने अपने लिए अलग से धर्म की मांग शुरू कर दी है। इसको लेकर जगह-जगह आंदोलन शुरू हो गया है। 2021-22 की जनगणना करीब आने से यह आवाज और मुखर होती जा रही है। इसी सिलसिले में झारखंड के आदिवासी समुदाय में बड़ा हलचल देखी जा रही है। आपको बता दें कि सूबे में 32 जनजातीय समुदाय के लोग रहते हैं।

उल्लेखनीय है कि देश की प्रथम जनगणना 1872 में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी के हिसाब से हुई थी। 1891 में आदिवासियों/जनजातीय समुदायों को प्रकृतिवादी के रूप में जनगणना में स्थान दिया गया था। 

जनगणना में दशकीय क्रम में 1901, 1911, 1921, 1931 और 1941 तक आदिवासियों के लिए  ‘ट्राइबल रिलीजन’ कोड था, जिसे आदिवासी धर्म भी लिखवाया जाता रहा है। आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा 1951 में ट्राइबल रिलीजन या आदिवासी धर्म को ‘अन्य’ की श्रेणी में डाल दिया गया। जिसमें आदिवासी धर्म अंकित करने की स्वतंत्रता रही, लेकिन 1961 में अधिसूचित धर्मों (हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध) के संक्षिप्त नाम को कोड के रूप में लिखा गया, मगर आदिवासी/जनजातीय समुदाय पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। 1971 में सिर्फ अधिसूचित धर्मों की ही रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। 80 के दशक में तत्कालीन कांग्रेसी सांसद कार्तिक उरांव ने सदन में आदिवासियों के लिए अलग धर्म ‘आदि धर्म’ की वकालत की, मगर तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। बाद में उक्त मांग को लेकर भाषाविद, समाजशास्त्री, आदिवासी बुद्धिजीवी, समाजसेवी व साहित्यकार रामदयाल मुण्डा ने इसको आगे बढ़ाया। लेकिन केंद्र की तत्कालीन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

1981 में धर्म के पहले अक्षर को कोड के रूप में अंकित किया गया और आदिवासी या ट्राइबल को गायब कर दिया गया। 2001 में अधिसूचित धर्मों को 1 से 6 का कोड दिया गया, जनजातियों को अन्य धर्म की श्रेणी में रखा तो गया लेकिन कोड प्रकाशित नहीं किया गया।

2011 की जनगणना प्रपत्र में अन्य का विकल्प भी हटा दिया गया। तर्क यह दिया गया कि सभी धर्मों की अपनी पहचान के तौर पर उसके देवालय हैं। जैसे हिन्दुओं के मंदिर, मुसलमानों के मस्जिद, सिखों के गुरूद्वारा आदि-आदि, जबकि आदिवासियों का कोई देवालय नहीं हैं, वे पेड़-पौधों की पूजा करते हैं, जिस कारण उनका कोई धर्म नहीं माना जा सकता।

इस बीच राज्य का आदिवासी समुदाय अपने धर्म कोड को लेकर आंदोलित होता रहा। इस मांग को लेकर कई संगठन बने। अपने तरीके से लोगों ने अपनी मांग रखी। लेकिन 2000 में झारखंड अलग राज्य गठन के बाद कई सरकारें आई गईं लेकिन किसी ने भी इस मांग पर ध्यान नहीं दिया। राज्य गठन के 20 साल बाद हेमंत सोरेन की सरकार ने इस मांग की गंभीरता को समझा है और सरकार ने आदिवासियों के धर्म कोड की इस मांग पर चर्चा के लिए 11 नवंबर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया है। झारखंड के इतिहास में पहली बार आदिवासियों के लिए सरना / आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव पारित करने को लेकर विधानसभा का विशेष सत्र आयोजित होगा। सत्र के दौरान पक्ष-विपक्ष की सहमति मिलने के बाद राज्य सरकार सरना/आदिवासी धर्म कोड का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजेगी।

बताते चलें कि 6 अक्तूबर, 2015 को आदिवासी सरना महासभा, झारखंड ने सरना धर्म कोड की मांग को लेकर प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री को एक पत्र सौंपा था।

20 नवंबर, 2015 को गृहमंत्रालय के निर्देश पर जनगणना महा रजिस्ट्रार ने जवाब में एक पत्र जारी कर बताया कि जनगणना 2001 में 100 से अधिक जनजातीय धर्मों की जानकारी मिली थी तथा देश की प्रमुख जनजातीय धर्म सरना (झारखंड), सनामही (मणिपुर), डोनिपोलो (अरुणाचल प्रदेश), संथाल, मुण्डा, ओरासन,गोंडी, भील आदि थे। इसके अतिरिक्त इस श्रेणी में अन्य धर्म और धारणाओं के अन्तर्गत सरना सहित कुल मिलाकर 50 धर्म पंजीकृत किए गए थे। इनमें से 20 धर्मों के नाम संबंधित जनजातियों पर हैं, इनमें से प्रत्येक के लिए पृथक श्रेणी व्यवहारिक नहीं है। इसके अतिरिक्त जनगणना में सरना को छ: अन्य धर्मों के समान कोड/कालम के आवंटन से बड़ी संख्या में ऐसी ही मांग उठेगी और इसे रोका जाना चाहिए।

इसलिए इनमें से प्रत्येक को कोड संख्या उपलब्ध कराना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। उपयुक्त विवरण को ध्यान में रखते हुए जनजातीय धर्म के रूप में सरना के लिए पृथक कोड का आवंटन करने संबंधी याचिका में की गई मांग स्वीकार्य नहीं है। सभी के लिए कोड/कालम संबंधी मांग तर्क संगत नहीं है। इस प्रकार भारत के गृहमंत्रालय के निर्देश पर जनगणना महारजिस्ट्रार ने सरना धर्म कोड की मांग को खारिज कर दिया। ऐसे में देखना यह है कि झारखंड सरकार अगर धर्म कोड की मांग को लेकर केन्द्र सरकार को पत्र भेजती है, तो केन्द्र सरकार राज्य सरकार की मांग पर कितना गंभीर होती है? 

दूसरी तरफ झारखंड के आदिवासी नेताओं में आदिवासियों के लिए अलग धर्म की मांग में सबसे बड़ी विसंगति यह है कि इनमें धर्म कोड के नाम को लेकर आपसी सहमति नहीं है। कुछ सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं तो कुछ लोग आदिवासी या ट्राइबल धर्म कोड की मांग कर रहे हैं। नाम में सहमति नहीं बनने के पीछे सबसे बड़ी वजह है ‘क्रेडिट’। अगर भविष्य में अलग धर्म कोड मिल जाता है तो इसका श्रेय किसको मिले? इसी क्रेडिट ने आदिवासी नेताओं को एक मंच पर आने में रूकावट पैदा कर रखा है। 

इसे समझने के लिए इतना ही काफी है कि राष्ट्रीय आदिवासी धर्म समन्वय समिति एवं विभिन्न आदिवासी संगठनों के संयुक्त तत्वावधान में 8 नवंबर 2020 को रांची में राष्ट्रीय आदिवासी धर्म समाज समिति एवं विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा आदिवासी धर्म कोड हेतु एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में विभिन्न राज्यों के आदिवासी समुदाय समेत झारखंड से सभी आदिवासी समुदायों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

वहीं दूसरी तरफ आदिवासी सेंगेल अभियान के सालखन मुर्मू द्वारा 8 नवंबर, 2020 को रांची प्रेस क्लब में 5 प्रदेशों (झारखंड, बिहार, बंगाल, ओडिशा, असम) के प्रतिनिधियों के बीच सरना धर्म कोड मान्यता आंदोलन को सफल बनाने के लिए एक समन्वय बैठक व पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया गया।

अब जरा अपने-अपने पक्ष के इनके तर्क को भी जान लिया जाए 

राष्ट्रीय आदिवासी धर्म समन्वय समिति के संयोजक सह पूर्व मंत्री देव कुमार धान बताते हैं कि 2011 के जनगणना में मात्र तीन राज्यों झारखण्ड, उड़ीसा एवं प.बंगाल के कुछ आदिवासियों ने सरना धर्म कोड जनगणना प्रपत्र में दर्ज कराया था। लेकिन सरना के पक्षधरों द्वारा देश के 21 राज्यों में सरना धर्म लिखने का दावा पेश किया गया था। पूर्व मंत्री धान कहते हैं कि इस तरह का झूठ फैलाकर कुछ लोग   आदिवासी समाज को दिग्भ्रमित करने का काम कर रहे हैं, जिसमें मुख्य भूमिका स्वयंभू धर्म गुरु बंधन तिग्गा की रही है। वे आगे कहते हैं कि चूंकि सरना स्थल आदिवासियों का पूजा स्थल है, जहां धर्मेश और सिंगबोंगा की पूजा की जाती है। सरना स्थल एक पवित्र पूजा स्थल है और पूजा स्थल के नाम पर धर्म का नाम दुनिया में कहीं भी नहीं है, इसलिए पूरे देश के आदिवासियों को ध्यान में रखते हुए आदिवासी धर्म या ट्राइबल्स धर्म पर सहमति बनाने की कोशिश होनी चाहिए, जिससे पूरे देश के आदिवासी समुदाय को एक सूत्र में बांधा जा सके।

अरविंद उरांव।

वहीं पूर्व सांसद और जदयू के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष सह आदिवासी सेंगेल अभियान (ASA) के राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू कहते हैं कि किसी मांग का विरोध करने की बजाय हमें आपसी समन्वय की संभावनाओं को जीवित रखना चाहिए। यह ठीक है सरना से आदिवासी पूजा स्थल का बोध होता है, तो उस स्थल के नाम पर धर्म के नाम से क्या गलत है? दुनिया में ऐसा अब तक नहीं हुआ है, तो अब हो सकता है। आखिर सरना या जाहेरथान में जाने वालों के लिए ही तो सरना धर्म है। न कि मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर जाने वालों के लिए। जबकि कुछ आदिवासी तो गिरजाघर भी जाते हैं।

हमें बेहिचक स्वीकारना चाहिये कि आंकड़ों में और प्रचार में सरना धर्म कोड के नाम पर ही वृहद झारखंड क्षेत्र में और झारखंडी आदिवासियों के बीच सर्वत्र सर्वाधिक सहमति है। जबकि आदिवासी धर्म कोड नाम नया है। वे आगे कहते हैं कि चूंकि हमने अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासी का जाति मान्यता प्राप्त कर लिया है, तब केवल अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक मान्यता की मांग करना तर्क संगत है। अन्यथा जाति और धर्म का एक जैसा नाम कंफ्यूजन के साथ ईसाई बने आदिवासियों को कोर्ट जाकर इसको रोकने की ओर बाध्य कर सकता है, क्योंकि उन्हें धर्मांतरण के बावजूद अब तक आदिवासी का दर्जा प्राप्त है। बता दें कि (अनुच्छेद 25 के तहत भारत में प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को मानने की, आचरण करने की तथा धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता है।)

आदिवासी मामलों के जानकार रतन तिर्की कहते हैं कि बंधन तिग्गा जिसने आदिवासी धर्म को सरना धर्म का नाम दिया वे संघ के काफी करीबी थे। वे बताते हैं कि सरना शब्द आदिवासियों की किसी भी भाषा में नहीं है।

वहीं झारखंड के अवकाश प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी संग्राम बेसरा कहते हैं कि झारखंड में 32 आदिवासी समुदाय हैं, मगर किसी भी आदिवासी भाषा में सरना शब्द नहीं है, मतलब सरना आदिवासियों का शब्द है ही नहीं। वे बताते हैं कि सरना रांची की नागपुरी-सादरी बोली का शब्द है।

आदिवासी समाज की अगुआ समाज सेविका आलोका कुजूर बताती हैं कि सरना शब्द संघ प्रायोजित है। संघ आदिवासियों के बीच इनके धर्म को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा कर देना चाहता है, ताकि आदिवासी एक मंच पर नहीं रहें।

नरेगा वाच झारखण्ड, संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं कि सरना कोड की मांग धार्मिक पहचान के दृष्टिकोण से तो तर्क संगत हो सकती है, लेकिन देशभर के आदिवासी समुदाय को एक बड़ी नीतिगत छतरी के नीचे आने के लिए आदिवासी कोड की मांग करना ज्यादा समीचीन होगा। तभी हम संख्या बल के हिसाब से आदिवासी नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे। वे आगे कहते हैं कि सरना धर्म के मानने वाले झारखंड में 2011 की जनगणना के मुताबिक 4012622 हैं जबकि कुल आदिवासी आबादी 8645042 है। झारखंड से सटे छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भी थोड़ी आबादी होगी। जबकि सम्पूर्ण भारत में आदिवासी आबादी 10.40 करोड़ है। इस हिसाब से देखें तो सरना कोड मिल भी जाए तो उनकी संख्या 0.05 फीसदी के आस-पास होगी। तब संख्या बल के हिसाब से आदिवासी फिर एक बार छले जाएंगे।

बिरसा सोय।

अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के कोल्हान प्रमंडल प्रभारी बिरसा सोय कहते हैं कि सृष्टि काल से ही आदिवासी धर्मावलंबी काल्पनिक एवं बनावटी मान्यताओं से परहेज करते हुए प्रकृति को आधार मानकर अपनी जीवन पद्धति को परंपरा का स्वरूप प्रदान किया। कालांतर में यही रूढ़ि परंपरा, संस्कृति, रीति रिवाज विधि-विधान में परिणति हुई। आदिवासी प्रकृति को आस्था का केंद्र बिंदु मानकर उपासना करते हैं। हम ब्रह्मांड के निर्माण में प्रकृति के प्रत्यक्ष योगदान से स्वयं को दिशा निर्देशित मानते हैं तथा अपने जीवन पद्धति में प्रकृति के कार्य कलापों के अनुरूप ही जन्म, विवाह, मृत्यु-संस्कार, रूढ़ि-परंपरा, संस्कृति, रीति-विधि नेग-चार, पर्व-त्यौहार संपन्न किया जाता है।

अभिवादन में हल चलाने में, नृत्य में धार्मिक चार, वस्त्र पहनने आदि में दाहिने बाएं ही गतिशील रहते हैं। इसी से प्रेरित होकर, वर्तमान में आदिवासी घड़ी, आदिवासी समाज के प्रायः सभी घरों में प्रचलित है। प्रकृति से ऐसा लगाव और अटूट संबंधी आदिवासी धर्म समाज को औरों से अलग और विशेष बनाता है। दशकों से चले आ रहे आदिवासी धर्म कोड की मांग इसी विशिष्टता के पहचान की मांग है। पूर्वजों के प्रयास संघर्ष और बलिदान के पश्चात देश के आज़ादी के पूर्व अंग्रेजों ने भी इसी विशिष्ट पहचान को प्रत्येक 10 वर्षों के अंतराल में होने वाली जनगणना प्रपत्र में अन्य धर्मों से अलग और सम्मानजनक स्थान प्रदान किया था। लेकिन विडंबना यह कि आज़ादी के बाद जनगणना प्रपत्र में आदिवासियों के लिए कोई धार्मिक कॉलम नहीं दिया गया।

हम आदिवासियों का कोई धर्म कोड नहीं होने के कारण पूरे देश की समस्त जनजाति को जाति प्रमाण पत्र के माध्यम से आदिवासी होने का प्रमाण तो मिलता है, परंतु हमें धार्मिक पहचान नहीं प्राप्त होती है। हम आदिवासी धर्म कोड की मांग को लेकर राष्ट्रीय स्तर से आंदोलन कर रहे हैं। कुछ लोग धर्म स्थल के नाम पर सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, इन लोगों को मालूम होना चाहिए कि दुनिया के किसी भी देश में धर्म स्थल के नाम पर कोई धर्म नहीं होता है।

राष्ट्रीय आदिवासी-इंडिजेनस धर्म समन्वय समिति भारत, के मुख्य संयोजक अरविंद उरांव का मानना है कि आगामी जनगणना 2021 में समस्त भारत देश के ट्राइबल के लिए ट्राइबल काॅलम लागू किया जाना चाहिए। ट्राइबल काॅलम में आदिवासियों / जनजातियों की मान्यताएं हैं, उनकी आस्था है उसे अंकित किया जाए। 2011 की जनगणना को देखा जाए तो अन्य के काॅलम में लगभग 83 प्रकार के धार्मिक मान्यताओं की जानकारी मिलती है, जिसमें उरांव, मुण्डा, संथाल, भील, खांसी आदि, कई ट्राइबल कम्यूनिटी का नाम भी अंकित किया गया है। हम लोग देश में रहने वाले सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। वे कहते हैं कि 20 सितम्बर, 2020 के ट्राइबल काॅलम की मांग पर सम्पूर्ण झारखण्ड में विशाल मानव श्रृंखला बनाया गया था। आन्दोलन ऐतिहासिक रहा आन्दोलन के दौरान हमारी टीम चर्च के धरम गुरू, गुरुद्वारा, अंजुमन इस्लामिया आदि सभी धार्मिक अगुवा से मिलकर आन्दोलन के लिए सहयोग मांगा था और उन्होंने हम लोगों की मांग पर बेहतरीन सहयोग किया था।

अभी जिस भी व्यक्ति या संगठन के द्वारा जानबूझ कर मामला को अपने क्रेडिट के लिए उलझाने का प्रयास किया जा रहा है वह पूरे आदिवासी समाज के लिए घातक है। हेमंत सोरेन की सरकार भी ट्राइबल काॅलम के मसला को बहुत ही गंभीरता से सुलझाने का प्रयास कर रही है। चूंकि यह राष्ट्रीय मुद्दा है केन्द्र सरकार से होना है, परन्तु यदि हेमंत सोरेन सरकार ट्राइबल काॅलम को अनुशंसा करती है, तो अन्य राज्यों से भी ट्राइबल काॅलम की अनुशंसा भेजी जाएगी। ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। ऐसे में समस्त देश के आदिवासियों / जनजातियों की मान्यताएं व उनका वजूद बच पायेगा ।

दिल्ली विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर नीतिशा खलको बताती हैं कि झारखंड में सरना बनाम आदिवासी धर्म कॉलम की मांग को लेकर आदिवासी समाज दो खेमों में बंटा दिख रहा है, जो आदिवासी समाज के लिए काफी घातक है। वे आगे कहती हैं कि झारखंड में दक्षिण पंथी शक्तियों द्वारा लंबे समय से सरना और क्रिस्तान आदिवासियों के मध्य साम्प्रदायिक खेल खेले जाते रहे हैं। क्योंकि आदिवासियों के बीच हिन्दू-मुस्लिम या दलित-ब्राह्मण जैसे मुद्दे व दूरियां नहीं लाई जा सकतीं। सो इन सत्ता की भूखी साम्प्रदायिक शक्तियों के द्वारा सरना समाज को संचालित होने से बचने की जरूरत है। वे कहती हैं ‘ऑथेरिंग’ का जो सेंस है, वे अपनी हिंदूवादी नीतियों से देश के अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा करना और करवाना चाहते हैं, उससे आदिवासी समाज को सचेत रहने की आवश्यकता है। इस  बेजा बहस से बाहर आने की दरकार है।

बताते चलें कि ट्राइबल धर्म कोड की मांग को लेकर 18 फरवरी, 2020 को राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक दिवसीय धरना दिया था और देश के सभी राज्यों के राजभवन के समक्ष धरना-प्रदर्शन किया गया था। 

खबर के मुताबिक अप्रैल, 2020 से सितम्बर 31, 2020 तक मकान सूचीकरण एवं मकान गणना अनुसूची शुरू होने वाली थी और 9 फरवरी, 2021 से 28 फरवरी, 2021 तक जनगणना होनी थी, जो शायद कोरोना संक्रमण के कारण स्थगित है। 

पिछले 20 सितंबर, 2020 को झारखंड के आदिवासियों द्वारा अलग पहचान ट्राइबल कॉलम/सरना कोड की मांग के समर्थन में विशाल मानव श्रृंखला बनाई गई थी। जिसमें झारखंड के सैकड़ों संगठनों और हजारों समितियों सहित गांव, टोला, मोहल्ला, कस्बा, प्रखंड व पंचायत वार्ड आदि से लाखों की संख्या में बच्चे, बड़े, बूढ़े, युवा, युवतियां एवं महिलाओं ने सड़क पर उतर कर मानव श्रृंखला के रूप में अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद की थी।

कहना ना होगा कि झारखंड में नाम को लेकर इस आपसी टकराव से आदिवासियों को नुकसान हो सकता है। केन्द्र सरकार को पुन: एक बहाना मिल सकता है।  

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

विशद कुमार
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