गौतम तो बहाना हैं डॉ. अम्बेडकर पर निशाना है

दिल्ली सरकार के एक दलित मंत्री का इस्तीफा सिर्फ दिल्ली तक सीमित घटना नहीं है। इसके लिए जो आधार गढ़ा गया है और मंत्री को इस्तीफ़े के लिए मजबूर करके इस आधार को जिस तरह प्रामाणिकता और स्वीकार्यता देने की कोशिश की गयी है उसमें एक नहीं अनेक निषेध और नकार समाहित हैं। ठीक इसीलिए यह मसला कुछ ज्यादा गहरी पड़ताल की दरकार रखता है। 

शुरुआत शुरू से ही करते हैं। 5 अक्टूबर के दिन दिल्ली के रानी झांसी रोड के आंबेडकर सामुदायिक भवन में भारतीय बौद्ध महासभा, बौद्ध सोसाइटी ऑफ इंडिया तथा मिशन जयभीम ने मिलकर एक आयोजन किया था। इस कार्यक्रम में बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर के पड़पोते राजरत्न अम्बेडकर ने कोई 10 हजार लोगों को बाबा साहब की प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाएं दिलाईं। दिल्ली सरकार के समाज कल्याण मंत्री राजेन्द्रपाल गौतम इस कार्यक्रम के मंच पर थे। 

उन्होंने खुद ट्वीट करके बताया कि “आज “मिशन जय भीम” के तत्वावधान में अशोका विजयदशमी पर डॉ०अंबेडकर भवन रानी झांसी रोड पर 10,000 से ज्यादा बुद्धिजीवियों ने तथागत गौतम बुद्ध के धम्म में घर वापसी कर जाति विहीन व छुआछूत मुक्त भारत बनाने की शपथ ली।” कार्यक्रम के निबटते ही विश्व हिन्दू परिषद सहित पूरी हिन्दुत्वी ब्रिगेड उन पर टूट पड़ी। उन्हें हिन्दू-द्रोही और राम कृष्ण सहित हिन्दू देवी देवताओं का अपमान करने वाला करार देने के साथ ही वह अपार जहर उगला जाने लगा जिसमें ये विषगुरु सचमुच के विश्वगुरु हैं। भाजपा भी फ़ौरन मैदान में कूद पड़ी। निशाने पर राजेन्द्रपाल गौतम की पार्टी -आप- और उनके मुख्यमंत्री केजरीवाल को भी लिया गया।

जैसी कि उम्मीद थी, गांधी की तस्वीर हटाकर अम्बेडकर लगाने का दिखावा करने वाले केजरीवाल ने तुरंतई “घनघोर अप्रसन्नता”, का इजहार किया और अपने मंत्री से इस्तीफा ले लिया। वे यहीं तक नहीं रुके; खुद को हिन्दुत्वी ब्रिगेड से भी ज्यादा कट्टर हिंदुत्ववादी साबित करने की धुन में अपना जन्म जन्माष्टमी के दिन हुआ बता कर स्वयं को कृष्ण का अवतार साबित कर दिया। गुजरात की सभाओं में बोलते हुए वहां के नागरिकों को सरकारी खर्च पर अयोध्या के राम मंदिर के मुफ्त में दर्शन कराने का एलान तक कर मारा। इस तरह 5 अक्टूबर के कार्यक्रम को लेकर विहिप और भाजपा के आख्यान को अपना कंधा देकर और आगे बढ़ा दिया। नतीजे में पुलिस अब इस पूर्व हो चुके मंत्री के पीछे पड़ी है। उनसे पूछताछ में इन 22 प्रतिज्ञाओं को ही संज्ञेय अपराध जैसा मान रही है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक गिरफ्तारी नहीं हुयी – हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं।

5 अक्टूबर को जिन 22 प्रतिज्ञाओं को लिया और दोहराया जा रहा था वे डॉ अम्बेडकर की लिखी वही प्रतिज्ञाएं हैं जिन्हें 15 अक्टूबर, 1956 को 3 लाख 65 हजार लोगों के साथ बौद्ध धर्म में “वापस लौटने” की दीक्षा लेते समय बाबा साहब ने खुद भी किया था और बाकियों से भी करवाया था। दिल्ली में यही प्रतिज्ञाएं ली जा रही थीं और संयोग यह था कि स्वयं बाबा साहब के प्रपौत्र उन्हें दिलवा रहे थे। इस तरह यह किसी छुटके मंत्री संतरी के खिलाफ कार्यवाही नहीं है; इन प्रतिज्ञाओं को लेना हिन्दू द्रोही और आपराधिक माना जाना इसके लिखने वाले को अपराधी बताया जाना है। इस तरह यह बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर पर निशाना है। 

यह उनका सिर्फ नकार ही नहीं है उनके खिलाफ युद्धघोष भी है। जिसकी अगुआई सिर्फ आरएसएस के छुट्टा संगठन ही नहीं कर रहे, वह भारतीय जनता पार्टी भी कर रही है जिसके सबसे बड़े नेता अपने प्रधानमंत्री बनने के पीछे बाबा साहब के योगदान को गिनाते नहीं थकते। जहां ये बाइसों प्रतिज्ञाएं संगमरमर के शिलालेख में तन कर खड़ी हुयी हैं वहां, नागपुर की दीक्षाभूमि में खुद ढोक देकर आये हैं, भाजपा के एक और पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी तो अभी हाल ही में इस दीक्षा भूमि तीर्थाटन से ताजा ताजा होकर लौटे हैं।

हिन्दुत्वी ब्रिगेड ने इसे सामूहिक धर्मांतरण का अपराध बताया है। हालांकि अपनी शातिरता दिखाते हुए उन्होंने धर्मांतरण की बजाय इसे मतांतरण बोला है। यह धर्म चुनने के उस अधिकार का नकार है जो भारत का संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। यह धर्म-सम्मत वर्णाश्रम, जातियों की ऊँच-नीच और उनके नाम पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध सामाजिक असंतोष और प्रतिरोध की अभिव्यक्तियों का भी निषेध और धिक्कार है। 5 अक्टूबर के आयोजन की पृष्ठभूमि यही थी। 

अपने इस्तीफे में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने भी इसे दर्ज किया था जब उन्होंने लिखा कि वे; “समाज में बढ़ रहे जातिगत भेदभाव से आहत हैं। छोटी छोटी बात पर हत्याएं हो रही हैं। लोगों का अपमान किया जा रहा है।” उनका कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं बल्कि जितना है उससे कम बोलना – एक तरह का अंडरस्टेटमेंट – ही है।  जिस दिन वे बोल रहे थे उसी दिन या उसके अगले पिछले दिन इस देश में किसी को पीट पीटकर इसलिए मार दिया जा रहा था क्योंकि दलित समुदाय का होने के बावजूद उसने पत्थर की किसी मूर्ति का स्पर्श कर लिया, कि उसने किसी स्कूल में प्रिंसिपल के मटके से पानी पी लिया था, कि वह किसी पंचायत भवन या सरकारी दफ्तर में कुर्सी पर जाकर बैठ गया था, कि उसने अपनी मूँछें बड़ी रख ली थीं, कि वह अपनी शादी में घोड़े पर या अपने गाँव में किसी सवर्ण के घर जाकर खटिया पर बैठ गया था, कि उसने किसी कथित ऊंची जाति वाले की साइकिल को छू लिया था।

बात दो मनुष्यों भर तक नहीं थी – कुछ जगह तो वह इसलिए प्रताड़ना और हजारों रुपयों के दण्ड का भागी बना क्योंकि उसके पालतू कुत्ते ने कथित उच्च जाति के व्यक्ति की मादा श्वान के साथ संसर्ग कर लिया था। महिलाओं के मामले में तो स्थिति और भी विकराल थी। दलित स्त्री होने का मतलब क्या होता है यह बलात्कार और हत्याओं की शिकार मासूम बालिकाओं से लेकर हाथरस, बदायूं, पीलीभीत आदि-आदि देश के हर जिले में घटते अत्याचारों से हर ढाई घंटे में एक की दर से दर्ज होता रहता है। ऐसा नहीं है कि घोर अपमानजनक और मनुष्यता को अवमूल्यित करने वाली यह प्रताड़ना सिर्फ अन्त्यज और गरीब शूद्रों तक ही सीमित हो, यह देश के सर्वोच्च पद पर बैठे राष्ट्रपति तक को नहीं बख्शती, उन्हें भी मंदिर की शुद्धि और पवित्रता बनाए रखने के लिए सीढ़ियों के नीचे दूर से ही प्रणाम करके वापस लौटना पड़ता है। 

इस तरह की हाय-तौबा मचाने के पीछे असली मंशा उन असहनीय परिस्थितियों को धर्मसम्मत ठहराने की है जिन्हें अब दमित समुदाय सहन करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। 1956 में बाबा साहब ने नागपुर में और 2022 में उनके प्रपौत्र ने दिल्ली में जो किया उसके रूप पर नहीं सार पर जाना चाहिए और सार यह है कि हिंदुत्व अब अपने असली एजेंडे पर आ गया है। 

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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