ताइवान, चीन और अमेरिका: फिर कसौटी पर भारतीय विदेश नीति

‘दुनिया के चौधरी’ अमेरिका को दो पक्षों की लड़ाई में दाल-भात में मूसलचंद बनकर कहें या विश्व शांति को खतरे में डालकर भी फायदा उठाने व स्वार्थ साधने का लाइलाज मर्ज है तो चीन की विस्तारवादी नीति दुनिया के लिए कुछ कम अंदेशे नहीं पैदा करती। भारत स्वयं इसका भुक्तभोगी है। 15 जून, 2020 को गलवान घाटी में भारतीय सेना से भीषण संघर्ष के बाद वार्ताओं के अनेक दौरों के बावजूद वह एलएसी के पास पक्के निर्माण करने से तो बाज नहीं ही आ रहा, सीमा पर अतिक्रमण कर नये गांव भी बसा ले रहा है। अपने कर्ज के बोझ तले दबे श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का इस्तेमाल करके भी वह भारत की चुनौतियां बढ़ा ही रहा है। 

ऐसे में अमेरिकी कांग्रेस की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की बहुप्रचारित ताइवान-यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न हो जाने के बाद उसके दूसरे यूक्रेन में बदल जान के अंदेशे से परेशान दुनिया ने भले ही थोड़ी राहत की सांस ली है, भारत की विदेश नीति एक बड़ी परीक्षा में उलझी हुई है। जानकारों की मानें तो इस मामले में भारत ने सावधानी से पक्ष चुनकर उपयुक्त कदम नहीं उठाये तो आगे चलकर उसको अंतरराष्ट्रीय राजनीति व राजनय में कई नई उलझनों का सामना करना पड़ सकता है। इस अर्थ में और कि जिस रूस को हम समय की कसौटी पर जांचे-परखे मित्र की संज्ञा देते हैं, उसने और पाकिस्तान ने, जिसे हम कुटिल पड़ोसी मानते आये हैं, चीन का साथ चुनने में तनिक भी देर नहीं लगाई है। उन्होंने दो टूक कह दिया है कि पेलोसी का ताइवान दौरा अमेरिका द्वारा चीन को चिढ़ाने की कोशिश है। उत्तर कोरिया ने भी इस मामले में चीन का ही साथ दिया है और दुनिया फिर से दो गुटों में बंटती दिख रही है।

बात को ठीक से समझना चाहें तो जैसा कि विदेश नीति के जानकार वेदप्रताप वैदिक ने लिखा है, न ताइवान कोई महाशक्ति है और न ही पेलोसी अमेरिका की राष्ट्रपति। फिर भी उनकी यात्रा को लेकर दुनिया के माथे पर बल थे तो उसका कारण ताइवान के दूसरा यूक्रेन बन जाने का अंदेशा ही था। यह अंदेशा कितना बड़ा था, इसे इस तथ्य से समझ सकते हैं कि यूक्रेन में तो मुकाबला बहुत विषम है और रूस के मुकाबले यूक्रेन की कोई हैसियत ही नहीं है, लेकिन ताइवान में विवाद भड़कता तो उसके एक तरफ चीन होता और दूसरी तरफ अमेरिका! हम जानते हैं कि ये दोनों ही महाशक्तियाँ हैं और दोनों भिड़ जातीं तो तीसरा विश्व-युद्ध भी शुरू हो सकता था। 

लेकिन अफसोस कि वह खतरा नहीं पैदा हुआ और चीन द्वारा ‘जो आग से खेलेंगे, खुद जलेंगे’ वाली अपनी धमकी पर अमल न करने से पेलोसी शांतिपूर्वक ताइवान जाकर लौट आईं तो भारत के युद्धोन्मादियों को जैसे दुनिया का राहत की सांस लेना अच्छा नहीं लग रहा। वे यह कहकर चीन का मजाक उड़ाने पर उतर आये हैं कि वह कागजी शेर सिद्ध हुआ है।

एक प्रेक्षक ने तो उसे चिढ़ाते हुए यहां तक लिख दिया है कि पहले तो वह ऐसे चिग्घाड़ रहा था कि जैसे अमेरिकी वायुसेना के जिस विमान से पेलोसी ताइवान जा रही हैं, उसको खाड़ी में गिराकर ही मानेगा और पेलोसी का शव समुद्र की लहरों ढूंढ़ना पड़ेगा। क्या अर्थ है इसका? यही तो कि इन युद्धोन्मादियों को मजा तभी आता, जब कमजोर समझे जाने के डर से चीन कत्तई संयम न बरतता और ताइवान के अपना अभिन्न अंग होने की मान्यता के तहत पेलोसी के वहां जाने को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानते हुए आक्रामक होकर तीसरे विश्वयुद्ध का मार्ग प्रशस्त करने लगता। 

पेलोसी की यात्रा के वक्त उसने जिस तरह ताइवान के चारों तरफ लड़ाकू विमान और जलपोत डटा दिए थे, साथ ही अमेरिका ने भी अपने हमलावर विमान, प्रक्षेपास्त्र और जलपोत आदि तैनात कर दिए थे, उससे गलती से भी किसी तरफ से किसी हथियार का इस्तेमाल हो जाता तो भयंकर विनाश-लीला छिड़ जाती। ताइवान ने इसी विनाशलीला के अंदेशे में अपने सवा दो करोड़ लोगों को बमबारी से बचाने के भरसक इंतजाम भी किये थे। 

अब, स्वदेशी युद्धोन्मादियों के अविवेकी रवैये के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि कहीं भारतीय विदेश नीति भी उनसे प्रभावित होकर यह समझने से इनकार तो नहीं कर देगी कि ताइवान के मसले पर अमेरिका व चीन का ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देशों का रवैया अपने राष्ट्रीय स्वार्थों से प्रेरित रहा है और अमेरिका उसे लेकर चीन के खिलाफ बराबर खम ठोक रहा है तो इसका एक बड़ा कारण दोनों के बीच अरसे से चला आ रहा व्यापार और बाजार पर कब्जे का युद्ध है जो कभी धीमा तो कभी बहुत तेज हो जाता है। तिस पर अमेरिका के निकट उसकी चौधराहट की सबसे बड़ी पूंजी है, जिसे वह किसी भी कीमत पर नहीं गंवाना चाहता। 

साफ कहें तो पिछले दिनों चीन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका व भारत समेत चार देशों के चौगुटे की जैसी निंदा की थी, उसके मद्देनजर आश्चर्य तब होना चाहिए था, जब तिलमिलाया हुआ अमेरिका पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर नरम रुख अपनाकर कदम पीछे हटा लेता। जब चीन ने अल-कायदा के सरगना अल-जवाहिरी की हत्या को लेकर भी अमेरिका की आलोचना से परहेज नहीं किया था और सैन्य टकराव की धमकी दे रहा था, तो अमेरिका पेलोसी के ताइवान यात्रा के निर्णय से पीछे हटता तो उसकी चौधराहट का जलवा कम होता ही होता। 

वह ऐसा क्यों कर होने देता? खासकर जब अफगानिस्तान को फिर से तालिबान के हवाले कर वहां से लौट आने के बाद उसके लिए दुनिया में अपना दबदबा बनाये रखना कठिन हो रहा है। क्यों नहीं भौगोलिक दृष्टि से चीन के दक्षिण-पूर्वी तट से लगभग 100 मील दूर स्थित ताइवान द्वीप को अपना दोस्त बनाकर अपने उपकरण के तौर पर इस्तेमाल कर चीन की कमजोर नस दबाने की सोचता? वैसे भी वह चीन की वन चाइना पॉलिसी को चुनौती देने का कोई मौका नहीं छोड़ता रहा है।

प्रसंगवश, दुनिया के केवल 13 देश ही महत्वपूर्ण फर्स्ट आइलैंड चेन में शुमार ताइवान को अलग व संप्रभु देश मानते हैं। अमेरिका के भी उसके साथ आधिकारिक राजनयिक संबंध नहीं ही हैं, लेकिन वह ताइवान रिलेशंस एक्ट के तहत उसे आत्मरक्षा के लिए हथियार बेचता है और कत्तई नहीं चाहता कि वह चीन के कब्जे में जाकर उसके आर्थिक, सामरिक व राजनयिक हितों के आड़े जाए। क्योंकि इससे चीन पश्चिमी प्रशांत महासागर में अपना दबदबा फिर से बढ़ाकर उसकी चौधराहट के लिए खतरा बन सकता है। क्या आश्चर्य कि वह ताइवान में अलगाववादियों की आजादी की मुहिम को हवा देता रहता है। 

इसे यों भी समझ सकते हैं कि अमेरिका ताइवान पर वैसा ही दबदबा दिखाने के फेर में है, जैसा श्रीलंका पर चीन। दुर्भाग्य से भारत इन दोनों में से किसी के भी असर से अछूता नहीं रह सकता। इसलिए उसे अपनी विदेश नीति को फिर से परखने की जरूरत है। यह देखने की भी कि फिलहाल न अमेरिका उसका सगा हो सकता है, न चीन। समझने की भी कि पिछले कुछ सालों में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत से विचलित होकर, पुराने मित्र देशों की नाराजगी की कीमत पर सैन्य और सामरिक शक्तियों के आगे झुकने से उसने क्या-क्या नुकसान झेले हैं और आगे क्या-क्या झेलने पड़ सकते हैं। 

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक जनमोर्चा के संपादक हैं।)

कृष्ण प्रताप सिंह
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