नाम का विपक्ष बनाम काम का विपक्ष

2014 में तत्कालीन विपक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्रीय सत्ता पर काबिज हुई, तब कारपोरेट चालित व मोदीवादी समाचार माध्यमों और टीवी चैनलों में सघन प्रचार युद्ध प्रारम्भ कर पूछा जाने लगा कि राष्ट्रीय विपक्ष कहां है? विपक्ष सोया है या विपक्ष है ही नहीं! 2019 में भी अंधाधुंध बमबारी की जाती रही कि नरेन्द्र मोदी का कोई वैकल्पिक चेहरा नहीं है और भाजपा अपराजेय है। शीर्षस्थ नंबर दो ने कहा कि हम जाने के लिए नहीं आए हैं, हम पचास साल राज करेंगे, जबकि नंबर एक ने कहा कि कांग्रेस (विपक्ष) मुक्त भारत चाहिए और अब नंबर तीन ने कहा है कि अन्य दल खत्म हो जायेंगे और भाजपा बची रहेगी। इन सभी ध्वनियों की अंर्तध्वनि यही है कि भारत एकदलीय सर्वसत्तावाद के अधीन जीना सीख ले। साथ ही, मान ले कि भारतीय संवैधानिक संसदीय व्यवस्था में विपक्ष यानी अन्य दल निरर्थक हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एकलवाद का राजनीतिक भाष्य है। 

विगत पृष्ठभूमि का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि भारतीय संवैधानिक संसदीय जनतंत्र ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का आंशिक परिवर्तित रूप है। वहां दो दलीय प्रणाली को अपनाया गया है और यहां बहुदलीय व्यवस्था को लागू किया गया। प्रारम्भ में कांग्रेस ने समावेशी एकदलीय राजनीतिक व्यवस्था की अगुवाई की। समावेशी इस अर्थ में कि वह सांगठनिक तौर पर एक दल थी लेकिन उसके भीतर अनेक विचारों की मौजूदगी थी और वह एक प्लेटफार्म पार्टी के बतौर सक्रिय रही। उसमें दक्षिण-वाम-मध्य को जगह मिलती रही, लेकिन अंततः वह कल्याणकारी राज्य की पैरोकारी करती रही, जो कथित मिश्रित पूंजीवाद का ही राजनीतिक रूपांतरण था। अमेरिका की न्यू डील नीति भी यही चाहती थी।

कालांतर में महाकाय कांग्रेस की कोख से अनेक विपक्षी दल बने। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी इनमें प्रमुख हैं। जनसंघ का पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परोक्ष रूप से इस दलीय राजनीति में सक्रिय रहा, लेकिन उसने हमेशा इससे इनकार किया। साम्यवादी दल स्वतंत्र हैसियत के बतौर आया। जाहिर है कि विभिन्न वैचारिक आधारों पर बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली चलती रही, लेकिन उसने एक ऐसा राजनीतिक वर्ग तैयार किया जो मध्य मार्गी दलों में आवाजाही करता रहा। लम्बे समय तक जनसंघ और साम्यवादी दल इस आवाजाही से बचे रहे, क्योंकि वहां काडर या कार्यकर्ता आधारित अनुशासित संरचना कायम रही। दलों में परस्पर कमजोर करने की प्रक्रिया भी गतिमान रही। कांग्रेस ने समाजवादियों को बार-बार अपनी खुराक बनाया। राजे-रजवाड़ों को भी स्वतंत्र पार्टी से लाकर दलीय और सत्ता-संरचना में शामिल किया। इतना ही नहीं, क्षेत्रीय दलों को भी आहार बनाया, जिसका एक उदाहरण झारखंड पार्टी थी।

इन सब कांग्रेसी झटकों के बावजूद राष्ट्रीय विपक्ष बहुदलीय व्यवस्था में बनता-बिगड़ता रहा। विपक्ष को कारगर देशज पहचान देने की अगुवाई समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने की। उन्होंने कहा कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं और इस कथन से चुनाव को सत्ता परिवर्तन का औजार बनाया। इसके अलावा उन्होंने कहा कि सड़क खामोश हो तो संसद आवारा हो जाती है यानी उन्होंने सड़क को संसद पर दबाव का आधार बनाया। उन्होंने अंग्रेजी परस्त संसद को देसी भाषा में संवाद को भी मजबूर किया। प्रस्ताव पारित करने और बयानबाजी से हटकर सिविल नाफरमानी यानी सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रयोग किया। इन गतिविधियों से विपक्ष संसद के बाहर भी उपस्थित होने लगा और जनमानस में भी बहुदलीय विपक्ष साकार होता दिखा। 

इससे कांग्रेस की एकदलीय सत्ता का मूर्तिभंजन हुआ।1957 में केरल में पहली बार निर्वाचित वाम विपक्ष सत्तारूढ़ हुआ, लेकिन कांग्रेस ने उसकी सरकार को भंग कर दिया और इस तरह पहली विपक्षी सरकार को पदच्युत करने का श्रेय कहें या अपयश भी उसे मिला। इसके बाद तो अनेक बार कांग्रेस ने विपक्षी सरकारों को राज्यों में भंग किया, जिससे बहुदलीयता को परिपक्व होने और विपक्ष को परिभाषित होने में बाधा आई। हरियाणा और उत्तर-पूर्व में विपक्षी सरकारें ही कांग्रेस सरकारें बन गईं।

बहुदलीय विपक्षी राजनीति में निर्णायक मोड़ तब आया, जब राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के तहत 1967 में नौ राज्यों में संविद सरकारें बनीं। इनमें वाम-मध्य-दक्षिण रुझानों के दल शामिल हुए। इसका सबसे उल्लेखनीय पहलू यह था कि संविद के दल अपनी-अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं में दीक्षित थे और न्यूनतम कार्यक्रमों के आधार पर ये विपक्षी सरकारें बनी थीं। लेकिन इसमें एक अवसरवाद तब आ गया जब गैर कांग्रेसी लहर को भांपकर विक्षुब्ध कांग्रेसियों का गुट लहर का लाभ लेने के लिए उसमें शामिल हो गया। उसने सरकारों का नेतृत्व हथिया लिया और विपक्षी धार को भोथरा कर दिया। जैसे बंगाल में अजय कुमार मुखर्जी, बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा, उत्तर प्रदेश में चरण सिंह, मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह, हरियाणा में राव वीरेन्द्र सिंह कांग्रेस से आकर मुख्यमंत्री बन गए। 

इसके बाद संविद सरकारों में कलह का दौर शुरू हुआ। न्यूनतम कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर मतभेद हुए और कांग्रेस ने मतभेदों का लाभ लिया। सरकारें गिरने या गिराई जाने लगीं। लोहिया का सपना अधूरा रह गया। सिर्फ तमिलनाडु में द्रमुक के सीएन अन्नादुराई, केरल में वाममोर्चे के ईएमएस नम्बूदरीपाद, ओडिशा में स्वतंत्र पार्टी के राजेन्द्र नारायण सिंहदेव और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के गुरनाम सिंह मुख्यमंत्री बने। वहां कांग्रेस के विक्षुब्ध नेतृत्व नहीं कर पाए, लेकिन वे सरकारें भी गिराई गईं। इस तरह एक मिला-जुला अंतर्विरोधों भरा दौर पूरा हुआ। 

इसके बाद 1977 में केन्द्र में पूर्व कांग्रेसी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें समाजवादी, जनसंघ, भारतीय क्रान्ति दल, सिटीजन फॉर डेमोक्रेसी आदि घटक दलों के साथ पूर्व कांग्रेसियों का बोलबाला था। इस सरकार में पूर्व कांग्रेसियों मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम, चन्द्रशेखर व हेमवती नंदन बहुगुणा ने सत्ता संघर्ष किया, जिससे वह बिखर गयी। इस तरह जयप्रकाश नारायण का सपना चूर हो गया।1989 में भी पूर्व कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल सरकार बनी। इसमें भी भाजपा और वामदलों का वाह्य समर्थन था लेकिन पिछड़ों को आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस ने एक स्वर से उसका विरोध किया और वह गिर गयी। पूर्व कांग्रेसी चन्द्रशेखर उसे गिराने में मुख्य मोहरा बने लेकिन कांग्रेस के समर्थन से वे प्रधानमंत्री बने तो उनकी भी सरकार अंततः अल्पमत में आकर खत्म हो गयी। 

इस तरह स्पष्ट होता है कि असली विपक्ष पर नकली विपक्ष ने कब्जा किया और नई राजनीतिक संस्कृति नहीं पनप सकी। इसके बाद राम मंदिर आन्दोलन और आरक्षण विरोधी रुख के कारण देश का परंपरागत शक्तिशाली राजनीतिक वर्ग भाजपा के साथ एकजुट हो गया, जिसके विरोध में गैर भाजपावाद का विकल्प दिया गया। यह भी पीवी नरसिंहराव का सूत्र था यानी इसका सू़त्रीकरण भी कांग्रेस से हुआ। इस सूत्रीकरण से एचडी देवगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल की अल्पकालीन सरकारें बनीं। बावजूद इसके गैरकांग्रेसवाद के सूत्र से ही अटल बिहारी वाजपेयी ने दो बार सरकारें बना ली। गैरभाजपावाद के सूत्र से ही मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन 2014 में प्रबल भाजपावाद के सहारे नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय सत्ता पर काबिज हो गए।

2014 और 2019 में विपक्ष की मजबूती का सवाल उठा और अब 2024 के निकट आते ही यह मुद्दा फिर उठाया जा रहा है। इस बीच भाजपा ने अनेक विपक्षी नेताओं को सत्ता में जगह दी और वे अपनी निष्ठाओं को बदलते हुए मोदी के अनुगामी हो गए। वे अनुगामी इसलिए हुए कि नई अर्थनीति ने वैकल्पिक स्थापनाओं को खारिज कर दिया। भाजपा ने भी स्वदेशी त्यागकर वैश्वीकरण, निजीकरण और कारपोरेटीकरण में अपने को समो लिया। कांग्रेस इस नीति की सूत्रधार थी और अब दूसरे रास्ते पर जाना कठिन था। इस धुंध में वैचारिक विपक्ष न बच सका, न बन पा रहा। धार्मिक अस्मिता के बवंडर ने दलों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। 

सवाल है कि अब विपक्ष कैसे परिभाषित हो? जो विपक्ष बचा है वह नाम का विपक्ष है, काम का नहीं बन रहा। सबसे महत्वूपर्ण तथ्य है कि किसी भी दल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। आतंरिक संवाद नहीं है। सभी दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चल रहे हैं, इसलिए ऐसे तार्किक विपक्ष की संभावना नहीं बन पा रही, जो जनता का विवेकपूर्ण प्रतिनिधित्व करे, जनता को शिक्षित करे और जनता से शिक्षित हो। भीड़वाद को बढ़ाकर जनसमर्थन की लूट में सब शामिल हैं।

एक तथ्य ध्यानाकर्षण करता है कि कई दशकों तक सत्तासीन रही कांग्रेस अब विपक्ष की भूमिका में भी आगे रहना चाहती है, लेकिन उसका मिजाज सत्ता प्रतिष्ठान का है। जो दल आज सार्थक विपक्ष की जमीन पर काबिज हैं, वे मूलतः कांग्रेस के उप दल हैं। महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति, पुडुचेरी में रामचंद्रन कांग्रेस, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस आदि पूर्व कांग्रेसियों के उपदल हैं और अभी राज्यों में इनकी उप सत्ताएं हैं। ये सभी कांग्रेसियत से अलग नहीं हैं, लेकिन इन्होंने केन्द्रीय सत्ता के समक्ष खुद को विपक्ष बनाकर पेश किया है। 

ये उस तरह मौलिक विपक्ष नहीं हो सकते, जैसे जदयू-राजद (पूर्व समाजवादी) व द्रमुक वाममोर्चा आदि होते हैं। तेदेपा, बीजद, पीडीपी व नेशनल कांन्फ्रेस आदि कभी विपक्ष होते हैं और कभी उप सत्तावादी रहते हैं। कभी समान दूरी की बात करते हैं तो कभी सत्ता सहयोगी बन जाते हैं। स्पष्ट है कि समयानुकूल अवसरवाद ही उनका चरित्र है।

ऐसी स्थिति में बिना वैकल्पिक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक-वैचारिक, सांगठनिक-नैतिक मानचित्र के जनता का विपक्ष नहीं बन सकता। वर्तमान विपक्ष के पैरोकार उपसत्ता और केन्द्रीय सत्ता पर बने रहने की चाहत में नकली विपक्ष ही रहेंगे, असली विपक्ष नहीं हो सकते। इसलिए सही विपक्ष की तलाश होनी चाहिए। 

विडंबना यह है कि अभी सत्तापक्ष ही विपक्ष का प्रति-विपक्ष बनने का आनन्द उठा रहा है और स्वनामधन्य मीडिया संसदीय विपक्ष का प्रहसन करने में दिन रात मेहनत कर रहा है। साथ ही सड़कों पर जो संघर्षशील जन विपक्ष दिख रहा है, उसे भी अनदेखा करने का अपराध कर रहा है। सत्ता की इच्छा और इशारे पर मीडिया इस जन विपक्ष को संदिग्ध, षड्यंत्रकारी, देशद्रोही और गैरजिम्मेदार बनाकर पेश कर रहा है, जबकि यही जन विपक्ष रचनात्मक संवैधानिक लोकतंत्र का भविष्य रच रहा है। 

इस छोटी, मझोली और बड़ी जन पक्षीय भागीदारी से एक निर्णायक विपक्ष के निर्माण से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यही उत्पादक वर्गीय विपक्ष है। यही उत्पादक वर्गीय विपक्ष देश में फैलती उस अफवाह-आशंका को खत्म कर सकता है कि 2024 के बाद कोई चुनाव नहीं होगा। 

(लेखक प्रकाश चंद्रायन वरिष्ठ पत्रकार व चर्चित साहित्यकार हैं और नागपुर में रहते हैं।)

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