मोदी जी के संख्या-जाप के उन्माद का इलाज जनता ही करेगी

फ़ेसबुक पर हमने एक छोटा सा कमेंट पोस्ट किया था- “गली-चौराहे, बात-बेबात चार सौ, चार सौ पार चीखते रहना सिर्फ़ विक्षिप्तता नहीं, भारी पागलपन का लक्षण है।”

फ़ेसबुक ने जितने मित्रों को इसे देखने की अनुमति दी (आजकल हर कोई फ़ेसबुक की अनुमति वाली इस ख़ामोश सेंसरशिप से वाक़िफ़ है), उन्हें इसके संकेतों को पकड़ने में जरा भी कष्ट नहीं हुआ। एक मानसिक स्वयंक्रिया से ही अनायास सबको इसका अर्थ प्रेषित हो गया।

ज़ाहिर है कि हमारा संकेत मोदी की ओर था। जब किसी में अंदर ही अंदर अपनी शक्ति को गंवाने का अहसास पैदा होने लगता है, जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में बधियाकरण ग्रंथी (castration complex) कहते हैं, तो सिगमंड फ़्रायड के अनुसार उसके आचरण में कई प्रकार के संभावित परिणाम देखने को मिल सकते हैं। इनमें फ्रायड ने विक्षिप्तता, विकृति अथवा मनोरोग को भी गिनाया था। इसके साथ ही एक मनोविश्लेषक के नाते उन्होंने कहा था कि ऐसे लक्षणों में से अनेक में समय रहते हस्तक्षेप करने से अर्थात् उनका विश्लेषण करने से इन्हें टाला या उनका निदान करना संभव हो सकता है। पर कुछ लक्षण ऐसे होते हैं, जिन्हें टाला नहीं जा सकता है।

ऐसे लक्षणों को नियंत्रित करने के उपाय के रूप में फ्रायड ने पहला कदम यह सुझाया था कि उन लक्षणों के अनुपात को निश्चित किया जाए। उनकी वास्तविक तस्वीर पेश की जाए। उससे प्रमाता में यह अवबोध उत्पन्न हो सकता है कि अगर वह इसी तरह चलता रहा तो वह अपनी भूमिका से जुड़ी पहचान को ही गंवा देगा, उससे अपेक्षित भूमिका को ही खो देगा। उसके काम के परिणाम की ज़रूरतें तो और भी कम पूरी हो पाएगी।

पर फ्रायड के अनुसार, खुद की पहचान का यह विषय ही प्रमाता के विश्लेषण के रास्ते की एक आंतरिक बाधा की भूमिका भी निभाता है, क्योंकि वह जिस बात को अपनी भूमिका मान बैठा है, उस पर ही उसे ख़तरा महसूस होने लगता है, अथवा वह उससे ही वंचित हो जाने की चिंता में पड़ जाता है।

सिगमंड फ्रायड ने अपनी पुस्तक Civilizations and its discontents में इस विषय को मनुष्य के व्यवहार में गड़बड़ी के एक आपाद प्रसंग के रूप में नहीं, बल्कि इसे मनुष्य की कामुकता में ज़रूरी गड़बड़ी (essential disturbances) के रूप में विवेचित किया था। इस प्रकार संकेतक और संकेतित के बीच हमेशा एक स्वाभाविक विप्रतिषेध काम करता रहता है, आधुनिक भाषा विज्ञान के इस सिद्धांत का फ्रायड ने मनोविश्लेषण के सिद्धांत में सटीक प्रयोग किया था।

फ्रायड ने अपने विश्लेषणों से यह पाया था कि कभी-कभी संकेतक का ही ऐसा प्रभाव होता है कि वह खुद ही संकेतित में बदल जाता है। अन्यथा हर संकेतक का अपना एक लक्ष्य होता है, पर यह उसके धारक की उत्तेजना होती है जो उसे संकेतित में तब्दील कर देती है। इसके चलते वह अपने मूल अर्थ को खो देता है। मसलन् राम मंदिर को ही लिया जाए। राम का मंदिर स्वयं में हिंदू धर्मावलंबियों की ईश्वरीय आस्था को व्यक्त करने का स्थल है। एक संकेतक के रूप में मंदिर का स्वयं में यही लक्ष्य होता है। पर अयोध्या का वर्तमान राम मंदिर आरएसएस और मोदी जैसों की उत्तेजना के हत्थे चढ़ कर अपने मूल सांकेतिक लक्ष्य आस्था के स्थल से बदल कर संघ परिवार की सांप्रदायिक राजनीति को संकेतित करने लगा है। इस विशेष राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हिंदू राष्ट्र की प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन बन गया।

एक ओर जिन धर्माचार्यों ने इसे धार्मिक आस्था, नैतिकता और आचार-विचार के प्रचार-प्रसार का विषय समझा था, वे इसे धर्म शास्त्रों को ही एक सिरे से ख़ारिज करने वाले शुद्ध राजनीतिक कर्मकांड के रूप में उभरते देख कर खिन्न हो गए। तो दूसरी ओर मोदी और आरएसएस इसे 2024 के आम चुनाव में जीत के लिए पुलवामा की तरह के एक और ब्रह्मास्त्र के रूप में पाकर होश-हवास खोकर पूरी तरह से मतवाले हो गये।

शंकराचार्य कहते रह गए कि कोई भी यज्ञ कितनी ही निष्ठा के साथ क्यों न किए जाए, यज्ञ का साफल्य देवताओं की कृपा पर निर्भर न हो कर यज्ञ के विधिपूर्वक होने में निहित होता है।

पर मोदी तो कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं है, राजनीतिक व्यक्ति है। और राजसत्ता के सामने धर्मसत्ता की हैसियत ही क्या होती है! हमारे वर्तमान समय के विशिष्ट दार्शनिक ऐलेन बाद्यू ने यह चिह्नित किया है कि राजनीति के बरक्स मानव जीवन में सिर्फ़ प्रेम, विज्ञान और कला के अपने स्वतंत्र भुवन संभव होते हैं।

फलतः मोदी राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के भव्य आयोजन की खुद की रची हुई माया के ही दंश के शिकार हो गए। उन्होंने सोचा कि जब अपनी सेवा के लिए उन्होंने स्वयं राम जी को ही नियुक्त कर लिया है, तो बाक़ी पृथ्वी के धार्मिक-अधार्मिक नश्वर प्राणियों की बिसात ही क्या है! बस उनके इसी अति-उद्वेलन के चलते चुनावी गणित का चार सौ-चार सौ पार का आँकड़ा उनके दिमाग़ पर बुरी तरह से छा गया। अब बाक़ी की राजनीति का उनके लिए कोई मायने नहीं रह गया।

यह सच है कि हमारे शास्त्रों में नाम जाप का भी एक महात्म्य बताया गया है। यद्यपि, इसे निष्काम भक्ति से मोक्ष पाने का सबसे निम्न स्तर भी कहा गया है। यह वैसे ही है जैसे उपनिषद् को भौतिक सुखों से उपरत ज्ञानियों का कर्म और यज्ञादि कर्मकांड के अनुष्ठानों को उनसे निम्न स्तर के सांसारिकों का काम बताया गया है।

राम नाम के जाप से आदमी को राम की कृपा और भवसागर से भले मुक्ति मिल जाए, पर जब तक कोई पागल नहीं हो जाएगा, वह यह नहीं सोचेगा कि नाम के जाप से वह सर्वव्यापी राम पर अपना एकाधिकार क़ायम कर लेगा। पर यह हमारे मोदी जी का उन्माद ही है कि उन्होंने चार सौ, चार सौ पार का कुछ इस प्रकार जाप शुरू कर दिया है मानो इसे जपते रहने से ही संसद की इतनी सीटों पर उनका चुनाव के पहले ही एकाधिकार क़ायम हो जाएगा। यह जुनूनियत इस हद तक चली गई है कि वे गाहे-बगाहे, किसी भी जगह पर इस संख्या तत्व को दोहरा रहे हैं, यहाँ तक कि इसके साथ चीख भी उठते हैं। हमारी फ़ेसबुक की पोस्ट में उसी बात का उल्लेख था।

सचमुच, यह शुद्ध पागलपन है। चुनावी उत्तेजना ने उनकी राम भक्ति को एक संख्या तत्व की भक्ति में बदल दिया है। यह उसी castration complex अर्थात् शक्ति गंवाने के अहसास का ही लक्षण है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर आए हैं। हमारे आदि शंकराचार्य जी ने कहा था कि जो ज्ञान से नहीं साध पाता है, वह कमजोर मन मोक्ष को अर्थात् मुक्ति को भक्ति से साधता है। आम लोगों में पाई जाने वाली यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। पर जब मुक्ति की अति-आकुलता के चलते भक्ति की स्वाभाविक क्रिया उन्माद का रूप ले लेती है, तो फ्रायड के अनुसार यह ऐसी असक्तता का लक्षण है, जिसके विश्लेषण अर्थात् उपचार की ज़रूरत होती है।

हमारे यहां अभी तो चुनाव की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है, उसके पहले ही मोदी की बदहवासी का आलम यह हो गया है कि वह उपचार की मांग करने लगी है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ में उमड़ता जन सैलाब और उससे सामने आ रहे जाति जनगणना की तरह के मूलगामी सवालों का राम मंदिर के ‘राजनीतिक मुद्दे’ को पीछे धकेल कर आज के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आने को भी मोदी जी के उपचार की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा कहा जा सकता है। उम्मीद है कि बहुत जल्द ही वे चार सौ-साढ़े चार सौ का जाप बंद कर देंगे।

पर उनका संपूर्ण उपचार तो आगामी चुनाव में हमारे वे मतदाता ही करेंगे जिनके पास तानाशाही को पराजित करने और अपने को ‘एशिया का सूर्य’ समझने वाले नेता को ज़मीन पर उतारने का समृद्ध अनुभव है। वे स्वयंभू ‘विश्वगुरु’ को भी सचाई का आईना दिखा कर होश में लाने से नहीं चूकेंगे।

(अरुण माहेश्वरी लेखक-आलोचक और टिप्पणीकार हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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