पुनरुत्थान की बेला में परसाई को भूल गए प्रगतिशील!

हिन्दी की दुनिया में प्रचलित परिचय के लिहाज से हरिशंकर परसाई सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं। इसमें कोई झूठ नहीं है पर सिर्फ़ इतना परिचय उनकी उस भूमिका को नज़रअंदाज़ करने वाली बात है जिसको याद करना आज और ज़्यादा ज़रूरी है। परसाई आज़ाद हिन्दुस्तान के ऐसे दुर्लभ लेखक हैं, जो जीते-जी पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय थे और जनता को साम्प्रदायिकता व फ़ासीवाद के ख़तरे के प्रति लगातार आगाह कर रहे थे। कोरोना काल में फेसबुक-लाइव से लत की हद तक ग्रस्त हिन्दी के प्रगतिशील-जनवादी-वाम संसार में आज परसाई के स्मृति दिवस पर चुप्पी एक भयानक स्थिति की ओर इशारा कर रही है।

22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में पैदा हुए परसाई का निधन 1995 में आज ही के दिन हुआ था। हिन्दी की प्रगतिशील दुनिया में प्रभुत्व रखने वाली, सांस्कृतिक रूप से ऐतिहासिक बीमारी `पुनरुत्थानवाद` से ग्रस्त शक्तियां भले ही ख़ामोश रहें पर परसाई की जगह हर लिहाज से गिने-चुने असाधारण लेखकों में है। उनकी पाठकों तक जैसी पहुँच थी, वे जिस तरह हिन्दी के बौद्धिक व सामान्य, दोनों ही पाठकों को प्रभावित करने में सक्षम थे और अपनी इस क्षमता का उपयोग वे नवजागरण के किसी शिक्षक की तरह कर रहे थे, उनकी तुलना आज़ादी से पहले दौर के मुंशी प्रेमचंद से ही की जा सकती है।

आज जबकि साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद ने लगभग हर स्पेस की घेरेबंदी कर रखी है तो प्रेमचंद का याद आना स्वाभाविक है कि वे किस तरह अपने लेखन में सजग रूप से भविष्य के इस खतरे से जूझ रहे थे। यही बात परसाई के बारे में भी कह सकते हैं।

आरएसएस और उसकी सियासी विंग जब तरह-तरह के रूप धरकर राजनीतिक गठबंधनों से खाद-पानी ले रही थी और हिन्दी की सांस्कृतिक दुनिया में भी अपनी तरह से पैठ बनाने की कोशिश कर रही थी तो परसाई बहुत स्पष्ट और तीखे ढंग से प्रतिपक्ष की भूमिका निभा रहे थे। फ़ासीवाद और साम्प्रदायिकता से निरंतर आगाह करने और इस खतरे से जूझने के लिए प्रेरित करने का जैसा काम उन्होंने किया, वैसा उदाहरण मिलना कठिन है। इस वजह से उन्हें सीधे हमले तक का भी शिकार होना पड़ा।

परसाई के लेखन से ऐसे उद्धरणों का अंबार लगाया जा सकता है जो फ़ासीवाद से लड़ाई में आज भी बड़े काम के हैं। संस्कारी लिहाज से आमतौर पर बेहद पिछड़ी हिन्दी की दुनिया में परसाई जाति, उम्र, रिश्ते, संस्कार वगैरह के आधार पर खड़ी की गई शोषण की परिपाटी पर चोट करने के लिहाज से भी अलग तरह के लेखक हैं। सामयिक घटनाओं पर अखबारों के लिए भी निरंतर टिप्पणी करने वाले परसाई बरसों-बरस क्लासिक रचने की प्रतीक्षा करने वाले लेखक नहीं थे। और उनके लेखन का स्तर क्या था, इसे लेकर बहुत ज़्यादा दो राय भी नहीं है। सवाल यही है कि ऐसे लेखक को सबसे ज़्यादा ज़रूरत के ऐसे समय में साइड-लाइन करने की प्रगतिशील धाराओं की कोशिश के पीछे क्या मंशा है।

आम दिनों में शायद यह सवाल इस तरह पेश नहीं आता। लेकिन, हिन्दी साहित्य की दुनिया से जो ज़रा भी वाकिफ़ है, वह जानता है कि कोरोना के साथ आए लॉकडाउन और घेरेबंदी के दौर में हिन्दी के लेखक, संगठन और विभिन्न धड़े फेसबुक-लाइव की दुनिया में रम गए हैं। राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले संगठनों और लेखकों ने कई हदें तोड़कर इधर-उधर संदिग्ध ठिकानों पर भी लाइव यात्राएं कीं और इधर-उधर के संदिग्ध लेखकों को अपने यहाँ प्रतिष्ठित किया।

हिन्दी की प्रगतिशील धारा को भ्रष्ट करने, साहित्य व शिक्षण संस्थाओं में जातिवाद को प्रश्रय देने और साम्प्रदायिक ताकतों से आखिर तक साठगांठ रखने वाले नामवर सिंह से जुड़े दिन पर हाल ही में फेसबुक लाइव की दुनिया पर बहार देखने लायक थी। रामजन्म भूमि शिलान्यास की `वेला` में तुलसी, शुक्ल, राम विलास, नामवर की जैसी पूजा और उनके लिए जैसी मोर्चेबंदी हिन्दी साहित्य के प्रगतिशीलों ने की, उस में परसाई बेगाने हो ही जाने थे!

हरिशंकर परसाई मध्य प्रदेश से थे, जहाँ से मुक्तिबोध भी थे। दोनों में आत्मीय रिश्ता भी था और दोनों की ही हिन्दी को प्रगतिशील रास्ते पर आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। उसी मध्य प्रदेश से प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर नाम के वे दो संपादक भी हुए हैं जिन्हें हिन्दी की वाम धाराएं सिर पर बिठाए घूम रही हैं। उनकी दोहरी और भयानक साम्प्रदायिक, जातिवादी व उन्मादी भूमिकाओं पर परदा डालने का एजेंडा भी इन्हीं के जिम्मे है। 

वैसे भी यह हिन्दी की परंपरा है। चाहे नवजागरण के अग्रदूतों की सूची में नवजागरण के शत्रुओं को प्रतिष्ठित करने का काम हो या प्रगतिशीलता और सेक्युलरिज़्म के नेताओं के तौर पर नामवर, प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर जैसे नामों को दोहराते जाना हो। कोई, प्रभाष जोशी को पब्लिक इंटलेक्चुल कहेगा और प्रभाष जोशी लगे हाथों नामवर सिंह को रेनेसां पर्सन कहेगा। ऐसी दुनिया को परसाई की पारसाई से क्या मतलब?

हिन्दी जाति की पहचान और अस्मिता के नाम पर भाव-विह्वल रहने वालों की सूची में परसाई शामिल नहीं हैं। यह तय है कि जो भी एक ख़ास डिजाइन में फिट नहीं होगा, पुनरुत्थानवाद के ख़िलाफ़ शिक्षित करने का काम करेगा और हिन्दी को नई गरिमा और ऊंचाई देगा, उसकी खुली मुख़ालफ़त संभव न हो तो उसे लेकर चुप्पी का हथियार इस्तेमाल किया जाएगा।

(धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)  

धीरेश सैनी
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