सुप्रीमकोर्ट के राडार पर हैं जनहित याचिकाएं

देश की शीर्ष अदालत जनहित याचिकाओं को कभी निजी जनहित याचिका तो कभी प्रचार हित याचिका की न केवल संज्ञा से नवाज रही है बल्कि तल्ख टिप्पणियाँ कर रही है कि निजी मामलों को निपटाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है और कभी-कभी परियोजनाओं को रोकने या सार्वजनिक प्राधिकारियों पर दबाव बनाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जा रहा है।

ऐसे में भविष्य में शीर्ष अदालत इसके लिए और कड़े दिशानिर्देश बना दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हकीकत में जनहित याचिकाओं के माध्यम से उठाए गए मुद्दों से कार्यपालिका काफी असहज महसूस करती रही है। अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के दायर मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की वजह से उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों की जवाबदेही तय होने लगती है। न्यायालय के सक्रिय हस्तक्षेप के कारण न्यायपालिका और सरकार में टकराव हो जाता है,क्योंकि सरकार लोकतंत्र में भी जवाबदेही नहीं चाहती।

मुख्य न्यायाधीश ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए पीएम की उपस्थिति में मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि अब यह निजी हित याचिका बन गई है और निजी मामलों को निपटाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। जस्टिस रमना ने कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं कि जनहित याचिका ने जनहित में बहुत काम किया है, लेकिन आजकल जनहित याचिका उन लोगों के लिए एक औजार बन गई है, जो राजनीतिक मामलों या कॉरपोरेट प्रतिद्वंद्विता को सुलझाना चाहते हैं।

अभी इसकी सुर्खियाँ सूखी भी नहीं थीं कि उच्चतम न्यायालय ने एक मामले में तुच्छ जनहित याचिकाओं के कुकुरमुत्ते की तरह फैलते जाने की घटना पर चिंता व्यक्त की है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह याचिकाएं मूल्यवान न्यायिक समय का अतिक्रमण करती हैं। तुच्छ जनहित याचिकाओं को जड़ से खत्म कर देना चाहिए; वे न्यायिक समय का अतिक्रमण करती हैं, विकास गतिविधियों को रोकती हैं।

जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस हिमा कोहली की एक अवकाश पीठ ने अर्धेंदु कुमार दास बनाम ओडिशा राज्य मामले में इस तरह की प्रथा की निंदा करते हुए कहा है कि शुरुआत में ही इस तरह के मामले बड़े पैमाने पर जनहित में विकासात्मक गतिविधियों को रोक देंगे। पीठ ने भक्तों के लाभ के लिए पुरी जगन्नाथ मंदिर परिसर में ओडिशा सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों को चुनौती देने वाली दो याचिकाओं को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।

पीठ ने कहा है कि हाल के दिनों में यह देखा गया कि जनहित याचिकाओं में कुकुरमुत्ते की तरह वृद्धि हुई है। हालांकि, ऐसी कई याचिकाओं में कोई भी जनहित शामिल नहीं है। याचिकाएं या तो प्रचार हित याचिकाएं या व्यक्तिगत हित याचिकाएं हैं। हम इस तरह की तुच्छ याचिकाएं दायर करने की प्रथा का बहिष्कार करें। वे कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के अलावा और कुछ नहीं हैं। वे एक मूल्यवान न्यायिक समय का अतिक्रमण करते हैं जिसका उपयोग अन्यथा वास्तविक मुद्दों पर विचार करने के लिए किया जा सकता है। यह सही समय है कि ऐसी तथाकथित जनहित याचिकाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया जाए, ताकि व्यापक जनहित में विकासात्मक गतिविधियां ठप न हों। वर्तमान मामले में न्यायालय ने कहा कि इस तरह की याचिकाएं जनहित के लिए हानिकारक हैं, क्योंकि उनका उद्देश्य भक्तों को सुविधाएं प्रदान करने के लिए सरकार द्वारा किए गए कार्यों को रोकना होता। पीठ ने प्रत्येक याचिकाकर्ता पर ओडिशा राज्य को देय 1,00,000 रुपये (एक लाख रुपये) का जुर्माना लगाया।

गौरतलब है कि पीआईएल की अवधारणा देने वाले भारत के 17 वें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस पी.एन.भगवती ने एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में कहा था कि कोर्ट को बुनियादी मानवाधिकारों (बेसिक ह्यूमन राइट्स) से वंचित लोगों को बड़े पैमाने पर न्याय तक पहुंच प्रदान करने के लिए नए तरीकों और रणनीतियों को अपनाना होगा, जिनके लिए स्वतंत्रता और स्वाधीनता (लिबर्टी) का कोई अर्थ नहीं है। दरअसल समाज में वंचितों को सशक्त बनाने और मजबूत करने के अपने उद्देश्य के बावजूद आरोप लगते रहे हैं कि जनहित याचिका का अक्सर एक हथियार के रूप में उसका दुरुपयोग किया जा रहा है और अक्सर अदालतों का कीमती समय बर्बाद किया जाता है।

वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने एक तुच्छ याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि इसके दुरुपयोग के कारण जनहित याचिका की अवधारणा पर फिर से विचार करना होगा। इसने इस बारे में भी बात की कि गरीबों, उत्पीड़ितों और जरूरतमंदों की सुरक्षा के लिए अवधारणा कैसे पेश की गई, जिनके मौलिक अधिकारों का अक्सर उल्लंघन किया जाता है और उनकी शिकायतों को अनसुना कर दिया जाता है।

जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर द्वारा की गई थी। एक समाचार रिपोर्ट जिसमें बिहार में विचाराधीन कैदियों (अंडरट्रियल प्रिजनर्स) के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में बात की गई थी, जिन्हें बिना सजा के जेल में सालों साल बिताने पड़े, एक वकील की नज़र उस पर पड़ी, जिसने तब इन विचाराधीन कैदियों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। हुसैनारा खातून बनाम स्टेट ऑफ बिहार (1979), का मामला जनहित याचिका का पहला मामला बन गया था। 1980 में, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन का मामला उठाया गया था, जिसमें तिहाड़ जेल के एक कैदी ने तिहाड़ में कैदियों के शारीरिक उत्पीड़न (फिजिकल टाउचर) की शिकायत करते हुए, न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर को कागज का एक टुकड़ा भेजा था। जस्टिस अय्यर ने इसे जनहित याचिका में बदल कर इस मुद्दे को उठाया था। हालांकि, बाद में जनहित याचिका दायर करने की ऐसी प्रथाओं को छोड़ दिया गया था।

जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में क्रमश आर्टिकल 32 और आर्टिकल 226 के तहत उनके रिट क्षेत्राधिकार को लागू करके दायर की जा सकती हैं। आर्टिकल 32 संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ नागरिकों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के अधिकारों से संबंधित है, जो मामले में परमादेश, बंदी प्रत्यक्षीकरण, उत्प्रेषण और यथा-वारंटो रिट जारी कर सकता है। आर्टिकल 226 हाई कोर्ट को संविधान के भाग III में उल्लिखित अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में अपने क्षेत्राधिकार में रिट जारी करने का अधिकार देता है।

जनहित याचिका की अवधारणा के दुरुपयोग की शिकायतें भी आये दिन सामने आती रही हैं और अदालतें कभी जुर्माने के साथ तो कभी चेतावनी के साथ इसे ख़ारिज करती रही हैं।

नरेंद्र मोदी सरकार ने पहले पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर उच्चतम न्यायालय में दलील दी थी कि जनहित याचिका दायर करना कुछ लोगों का पेशा बन चुका है। इसके बाद, सरकार ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त पद पर राकेश अस्थाना की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिकाओं के संदर्भ में उच्च न्यायालय में इसी बात को दोहराया है ।सरकार का दावा है कि मौलिक अधिकारों की रक्षा के मकसद से शुरू की गई जनहित याचिका (पीआईएल) की व्यवस्था अब एक उद्योग की शक्ल ले चुकी है और यह कुछ लोगों का पेशा बन चुका है । सरकार का यह भी तर्क है कि पीआईएल व्यवस्था के माध्यम से कुछ व्यक्ति और संगठन समानांतर सरकार चलाने का प्रयास कर रहे हैं ।

दरअसल देश के संविधान या किसी कानून में जनहित याचिका परिभाषित नहीं है । यह व्यवस्था नागरिकों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की देन है । इस व्याख्या ने मौलिक अधिकारों के दायरे का भी विस्तार किया है और निजता, भोजन, आवास और स्वास्थ्य सुविधाओं को मौलिक अधिकार के दायरे में लाया गया ।

संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जनहित याचिका दायर करने का सिलसिला 1980 के दशक में बिहार की जेलों में विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति और भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोड़ने की घटना शीर्ष अदालत के संज्ञान में लाये जाने से शुरू हुआ था। जनहित याचिकाओं का दायरा बढ़ा और न्यायालय को इसे नियंत्रित करने की आवश्यकता महसूस हुई। न्यायालय ने फरवरी, 2008 में इस बारे में दिशा-निर्देश तैयार किये, जबकि जनवरी, 2010 में एक फैसले में जनहित याचिकाओं की विचारणीयता के बारे में नये निर्देश भी दिये।

पीआईएल व्यवस्था के दुरुपयोग से चिंतित उच्चतम न्यायालय ने बार बार ऐसे याचिकाकर्ताओं को चेतावनी दी है। न्यायालय बार-बार स्पष्ट रूप से आगाह कर रहा है कि राजनीतिक या निजी हित साधने के लिए पीआईएल को पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन या प्राइवेट इंटरेस्ट लिटिगेशन नहीं बनाया जाए। जनहित याचिका के नाम पर दायर अनेक याचिकाओं को न्यायालय ने पाया कि ये पब्लिसिटी के लिए दायर की गयी हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय न सिर्फ याचिका खारिज कर रहा है बल्कि याचिकाकर्ता संगठन और व्यक्तियों पर 10 हजार रुपए से लेकर 25 लाख रुपए तक जुर्माना भी किया गया है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पीआईएल की व्यवस्था ने प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण, जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों, मानसिक रोग चिकित्सालयों, वृन्दावन की विधवाओं, संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकार की योजनाओं-परियोजनाओं से नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित मामलों में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाये हैं ।

जनहित याचिकाओं के बढ़ते प्रवाह के मद्देनजर न्यायपालिका ने 6 फरवरी, 2008 को जनहित याचिकाओं को नियंत्रित करने के लिए व्यापक दिशा निर्देश तैयार किये थे । इसके तहत मेडिकल और अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश, मकान मालिक-किरायेदार विवाद, नौकरी, पेंशन और ग्रेच्युटी तथा कुछ अपवादों को छोड़ केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ दायर मुकदमों पर जनहित याचिका के रूप में विचार नहीं करने का फैसला किया था ।

इन दिशा निर्देशों के तहत मुख्य रूप से दस प्रकार के मामलों को ही जनहित के दायरे में शामिल किया गया था। इनमें बंधुआ मजदूरी, उपेक्षित बच्चे, श्रमिकों को श्रम कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नही करने, श्रमिकों का शोषण, कैदियों की शिकायत, पुलिस द्वारा मामला दर्ज नहीं करने और हिरासत में मौत, महिलाओं के उत्पीड़न से जुड़े मामले, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण पारिस्थितिकी असंतुलन, प्राचीन धरोहरों, संस्कृति, वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण, खाद्य पदार्थों में मिलावट, दंगा पीड़ित और कुटुंब पेंशन जैसे मामले शामिल किये गये थे। न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि किसी व्यक्ति विशेष या निजी हित से जुड़े मामले जनहित याचिका के रूप में स्वीकार नहीं किए जायेंगे।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

जेपी सिंह
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