पत्रकार प्रभात शुंगलू का प्रसून जोशी को खुला ख़त

(मॉब लिंचिंग के मसले पर 49 बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों और समाज शास्त्रियों के लिखे खत के जवाब में 60 दूसरे लोगों ने पत्र लिखा है। इसमें प्रसून जोशी, मधुर भंडारकर और कंगना राणावत जैसे फिल्म उद्योग से जुड़े तमाम लोग शामिल हैं। जिसमें उन्होंने न केवल पहले लिखे गए बुद्धिजीवियों के खत को पक्षपातपूर्ण करार दिया है बल्कि उसमें मोदी सरकार की नीतियों का खुलकर समर्थन किया है। बाद में लिखे गए इस खत का जवाब वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू ने प्रसून जोशी के नाम खुले खत के माध्यम से दिया है। पेश है यहां प्रभात शुंगलू का पूरा पत्र-संपादक)

प्रिय प्रसून जोशी,

तेईस जुलाई को जिन जानी-मानी हस्तियों ने बढ़ती मॉब लिंचिंग को लेकर प्रधानमंत्री मोदी को खुला पत्र लिखा उसके जवाब में कुछ दूसरी हस्तियों समेत मशहूर गीतकार, ऐडमैन, सेंसर बोर्ड के चीफ प्रसून जोशी ने पीएम को खत लिखा है कि आप ये सो कॉल्ड बुद्धिजीवियों की बातों से ज़रा भी परेशान न हों। इनकी मेमेरी सेलेक्टिव है। इनका गुस्सा सेलेक्टिव है। ये टुकड़े टुकड़ गैंग के लोग हैं। ये अपने आपको देश के conscience keepers समझते हैं, self-styled guardians समझते हैं। लेकिन इनकी मंशा विशुद्ध रूप से राजनीतिक है। ये षड्यंत्रकारी लोग एक false narrative यानि झूठी कहानी देश पर थोपना चाहते हैं। इनकी बातों से आप कतई परेशान न हों, हम आपके साथ हैं। क्योंकि आप ही हैं जो सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास जीतने का जज़बा रखते हैं। इस खत में और भी बाते हैं जो मैं आगे आपको बताऊंगा और उसका विश्लेषण भी करूंगा। इस खत पर नामी गिरामी फिल्म सेलिब्रिटीज़ जैसे कंगना रणावत और मधुर भंडारकर समेत इकसठ लोगों ने भी साइन किया है। 

एक खत लिंचिंग पर है तो जवाब में दूसरे खत में धर्म, भेदभाव, राष्ट्रवाद सबका तड़का मारा गया है। इन खतों को समझ लेंगे तो ये समझ भी आ जायेगा कि देश में राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवाद और लिबरल डेमोक्रेसी के बीच क्यों जंग छिड़ी हुई है।  

पहले आपको इन दोनों खतों में अंतर बताना ज़रूरी है। श्याम बेनेगल, अनुराग कश्यप वाले खत में साफ था कि नब्बे फीसदी लिंचिंग के मामले पिछले पांच साल में हुए जिसके ज़यादातर शिकार दलित या मुसलमान हुए। इनमें भी मुसलमान सबसे ज्यादा। प्रसून जोशी के खत में मुसलमान शब्द गायब है। और लिंचिंग के साथ-साथ दूसरे मुद्दे भी जोड़ दिये गये हैं जैसे भेदभाव और मंदिरों में तोड़-फोड़। श्याम बेनेगल के खत में केवल लिंचिंग का मुद्दा ही था। बाकायदा आंकड़ों के साथ। और उससे जुड़ा ये ट्रेंड की लिंचिंग के वक्त भीड़ अब पीटे जाने वाले शख्स से जय श्री राम के नारे भी बुलवा रही है। 

प्रसून के खत में लिंचिंग को एक सामाजिक बुराई बताया गया है, मगर इसको रोकने में सरकार या राज्य सरकारों की नाकामी पर चुप्पी है। ऐसी हत्याओं को अंजाम देने वाले अपराधी गो रक्षकों को क्यों कानून का खौफ नहीं है। क्या उन्हें कहीं से संरक्षण मिल रहा है?

प्रसून के खत में जय श्रीराम और राम शब्द का इस्तेमाल कई बार होता है और ये बताने के लिये जबरन जय श्रीराम बुलवाने के आरोप या तो झूठे हैं या जय श्रीराम बोलने वालों को ही जेल में डाला गया। इस खत में ये झूठ भी फैलाया गया कि ये इंटेलेक्चुअल, टुकड़े-टुकड़े गैंग, लिबरल गैंग हमेशा देश में भगवान राम को मानने वाले लोगों की हंसी उड़ाता है। 

प्रसून के खत में कैराना से हिंदू माइग्रेशन का ज़िक्र है, जबकि माइग्रेशन की बीजेपी की वो दलील स्थानीय पुलिस ही पंक्चर कर चुकी है। उन तथ्यों पर सवाल उठा चुकी है। प्रसून के खत में कैराना का अर्धसत्य तो है मगर मुज़फ्फऱनगर दंगों का ज़िक्र नहीं है, उन दंगो में मारे गये लोगों का ज़िक्र नहीं है जिसमें 42 मुसलमान और 20 हिंदू मारे गये थे। हाल-फिलहाल उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पचहत्तर मामले वापस लेने का फैसला किया है। 41 ऐसे मामलों में ट्रायल कोर्ट ने किसी को दोषी नहीं पाया। लेकिन प्रसून के खत में ये सवाल नहीं पूछा जाता कि आखिर आरोपियों को क्या बचाया जा रहा है, अगर हां तो क्यों। क्या प्रसून ने पता किया ये कौन लोग हैं जिन्हे ट्रायल कोर्ट रिहा कर चुकी है या जिनके खिलाफ योगी सरकार ने मुकदमें वापस लेने का फैसला किया है कि इन्हें झूठा ही फंसाया गया। पता किया आपने प्रसून कि इन हत्यायों के पीछे कौन लोग थे, किसकी साज़िश थी। 

एक दिलचस्प बात और। प्रसून के इस खत में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के मामले गिनाये गये हैं जो ज्यादातर या तो पश्चिम बंगाल से हैं। या फिर केरल से। यानि सिर्फ देश के दो राज्यों में हिंसा है, और ये दोनों राज्य बीजेपी के पास नहीं हैं, पर जिसे हासिल करने के लिये वो तड़प रही, बेचैन हो रही। तमाम हथकंडे अपना रही। इस खत से साफ है कि इसे ड्राफ्ट करते वक्त आपने पार्टी यानि बीजेपी से भी भरपूर इनपुट लिया है।

आपको मैं प्रसून के ज़रिये ही इस खत का मर्म समझाना चाहता हूं। ये अलग बात है कि खत में उनकी संगत में जो लोग हैं वो नेशनलिस्ट टाइप ही हैं। और ये कहने में कतई गुरेज़ नहीं कि इस देश को अब हिंदुत्व और राष्ट्रवादी चश्मे से देखने के लिये ही चश्मे बांटे जा रहे हैं जो चश्मा खरीद ले वो देश भक्त जैसे प्रसून, कंगना, मधुर। और जो ये चश्मा खरीदने से मना कर दे वो अर्बन नक्सल, लिबटारड, खान मार्केट गैंग, टुकड़े-टुकड़े गैंग। क्यों प्रसून? सही बात न। आप हमसे बड़े देशभक्त निकले। बड़े छुपे रुस्तम निकले।  

प्रसून के खत में चूंकि चौरासी के सिख नरसंहार का ज़िक्र नहीं इसलिये मैं गोधरा नरसंहार का भी ज़िक्र नहीं करूंगा। हां, इस खत में कश्मीरी पंडितों के पलायन पर चुप्पी की बात ज़रूर है। प्रसून जी, आपको तो मोदी जी से पूछना चाहिये कि ये लिबटार्ड, खान मार्केट गैंग, टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले पूछ रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों को वापस उनके घर कब भेजेंगे। ये पूछ रहे हैं कि पांच साल आपकी सरकार ने इस बाबत क्या ठोस कदम उठाये।

मानिये न मानिये लेकिन आपका भी गुस्सा सेलेक्टिव है, प्रसून जी। 

प्रसून आप तो अपनी फील्ड यानि ऐड की दुनिया के बड़े होनहार खिलाड़ी थे, एक संवेदनशील नये ज़माने के गीतकार के रूप में आपने अपनी पहचान बनाई। निर्भया मामले में आपने जो मुंबई में कविता पढ़ी, हमने उसे सुन कर भी आपके जज्बे को सलाम किया। प्रणाम बोलें या सलाम। क्यों प्रसून जी? आप जैसा कहें…सलाम शायद लिबरल बोलते हैं, और प्रणाम हिंदू। यानि देश की बहुसंख्यक आबादी, क्यों यही है न आपके खत की थीम। हिंदू मेजोरिटेरियनिज्म बनाम लिबरल लोकतंत्र। मैं हिंदू। तुम टुकड़े-टुकड़े, अर्बन नक्सल। ऐंटी नेशनल। 

एक बार बहुत पहले “रंग दे बसंती” के गीतों के वो बागी तेवर देखकर, सुनकर आप का फैन हो गया था। 

ऐ साला अभी-अभी, हुआ यकीं..कि आग है मुझमें कहीं… 

हुई सुबह मैं जल गया…सूरज को मैं निगल गया

…धुंआ छटा खुला गगन मेरा, नई डगर, नया सफर मेरा

…आंधियों से झगड़ रही है लौ मेरी

..अब मशालों सी बढ़ रही है लौ मेरी

…नामों निशां रहे न रहे…ये कारवां..रहे न रहे 

उजाले मैं पी गया…रौशन हुआ जी गया…

रू ब रू…रौशनी

उसी फिल्म में आपने तो वो गीत भी लिखा न…

खून चला…

खुली सी चोट लेकर, बड़ी सी टीस लेकर

आहिस्ता…आहिस्ता

सवालों की उंगली

जवाबों की मुठ्ठी

संग लेकर खून चला

कुछ कर गुज़रने को खून चला

सरकारें बदलती हैं। प्रसून, आप सेंसर बोर्ड के चीफ बना दिये जाते हैं। फिर एक दिन लंदन में आप प्रधानमंत्री मोदी का इंटरव्यू करते हैं। इंटरव्यू क्या बल्कि चाय पर चर्चा समझिये। जहां पर वो देश के जाने-माने गीतकार, ऐडमैन नहीं बल्कि पीएमओ के मुलाज़िम की तरह प्रधानमंत्री मोदी से सवाल करते हैं। याद कराऊं कुछ सवाल-

सेना बलिदान देती है, लेकिन लोग सेना पर सवाल करते हैं। आपको कैसा लगता है।

आप छोटी-छोटी चीज़ों पर भी गौर कर रहे हैं। टॉयलेट बन रहे गांव-गांव। कैसे सोच लेते हैं आप कि देश को क्या चाहिये।

ये सभी जानते हैं आपको अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। एक फकीरी है आप में। कहां से ये गुण मिले आपको। क्या आप हमेशा ऐसे थे।

किस आलोचना को आप स्वीकार करते हैं और किसे दरकिनार। 

मोदी जो के मन मुताबिक जब काम नहीं होता तो मोदी जी गुस्सा होते हैं क्या।

हां, इस मोड़ से तो आप ने भी राष्ट्रवादी मशाल पकड़ ली। फिर आपको दरबार के बाहर की दुनिया षड़यंत्रकारी लगने लगी। जैसे कि इस खत में साफ दिखता है। इस इंटरव्यू के बाद भी लगा कि नहीं प्रसून ऐसे सवाल नहीं पूछ सकते। सच्चाई कड़वी लगी। हलक के अंदर नहीं ले जा पाया। 

लेकिन “रंग दे बसंती” में तो आपने कहा था…लूज़ कंट्रोल… I am a rebel…जिसने दिल को जीता है…वो अलफा है थीटा है….

आप के लिये तो अलफा और थीटा सब कुछ अब वही फकीर है। उनकी फकीरी में ही आपने अपने जीवन का सार ढूंढ लिया है। आपने अपनी राजनीतिक गणित सही बिठा ली है। आपने निर्भया पर कविता लिखकर रोंगटे खड़े कर दिये थे। कभी पहलू, अखलाक, तबरेज़ की मौत पर लिखने का मन नहीं किया? क्यों नहीं किया? क्या आप के हिंदुत्व पर चोट लगती। क्या पहलू और तबरेज़ पर दो शब्द बोलने से आप कम भारतीय कहलाते। या कहीं ऐसा तो नहीं कि आप के ऐसा करने से आपके अल्फा और थीटा नाराज़ हो जाते। आपको अपने दरबार से वनवास भेज देते। वनवास जाने से डरते हैं आप। है न। सोचिये, उस भारत माता के बारे में जिसकी पहचान को ही खत्म करने की कोशिश हो रही है। उसकी गोद में जो रंग बिरंगे फूलों का गुलदस्ता था, जो उसकी पहचान थी, उस गुलदस्ते में सिर्फ एक रंग के फूल ही सहेजे जा रहे हैं, बाकी रंग के फूलों को गुलदस्ते से नोंच कर हटाया जा रहा है।

कुछ सवालों के जवाब चाहिये प्रसून। इन सवालों के जवाब आपके पास होते तो आप खत में ये लिखते कि प्रधानमंत्री जी, जो श्याम बेनेगल साहब ने बोला है वही देश की आवाज़ है। सबका विश्वास जीतने का यही मौका है। जुमलों से बाहर निकलिये। खैर, आपसे उम्मीद भी नहीं।

दरबार में कसीदे ही गढ़े जाते हैं।

(प्रभात शुंगलू वरिष्ठ पत्रकार हैं, बहुत सालों तक “आज तक” और “आईबीएन-7” में वरिष्ठ पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं।)

Janchowk

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  • प्रिय प्रसून जोशी जी । मैं आपको यह पत्र एक भूतपूर्व अल्मोड़ा वासी होने के नाते लिख रहा हूं ।आपको मैं अल्मोड़े का प्रतिभाशाली कलाकार समझता रहा था । अब नहीं । शक है कि तारे जमीं के गीत आपने लिखे या कहीं से टीपे ?
    इतिहास की विडंबना देखिए एक तिहाई दुनिया में समाजवाद लाने वाले और 102 देशों में आजादी लाने वाली विचार धारा मार्क्सवाद के जनक कार्ल मार्क्स और एंगेल्स भी उसी देश में पैदा होते हैं जहां बाद में फासीवादी हिटलर पैदा होता है । यानी जर्मनी में । मानो प्रायश्चित हो उसी हिटलर का वध भी मार्क्स एंगेल्स के शिष्य स्टालिन के देश की रूसी सेना करती है ।
    1917 की रूसी क्रांति से ही प्रेरणा पाकर ही भगत सिंह क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा लिखते हैं । उसी समाजवादी स्वप्न की स्थापना हेतु भारत में 1935 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना होती है अल्मोड़े को ही यह सौभाग्य मिलता है की कामरेड पूरन चंद जोशी उसके पहले महासचिव बनते हैं । मात्र 22 वर्ष की उम्र में मेरठ षड्यंत्र केस में वह जेल में बंद होते हैं । 1907 में ही जन्मे भगत सिंह के समकालीन कामरेड जोशी 28 की उम्र में सी पी आई के महासचिव बनते हैं ।उनके नेतृत्व में पार्टी शानदार प्रगति करती है । उनकी पत्नी कल्पना दत्ता चिटगांव में अंग्रेजों का शस्त्रागार लूटने की साहसिक घटना को अंजाम देती हैं । इस पर एक फिल्म खेले हम जी जान से बनी है । आप अगर चाहें तो पी सी जोशी और कम्यूनिस्ट आंदोलन पर( 1935 से 1947 ) फिल्म बना लें । कम से कम इतनी आशा है आप अल्मोड़े के नाम को और अधिक कलंकित ना करेंगे ।
    शुभकामनाए ।
    ( शहीद भगत सिंह द्वारा फरवरी 1931 में क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा नामक लेख।( https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1931/krantikari-karyakram.htm )
    -- --उमेश चंदोला , मार्क्सवादी लेनिनवादी भगतसिंह वादी

  • सौ साल पहले, 1919 में आजादी के आन्दोलन का दमन करने के लिए अंग्रेजी हुकुमत ने रौलट ऐक्ट लाया था। उस ऐक्ट के देशव्यापी प्रतिरोध का प्रतीक जालियांवाला वाग का स्मारक है।
    सौ साल वाल 2019 में मोदी-2 यूएपीए 2019 लायी है। अब सरकार किसी भी नागरिक को आतंकी घोषित कर उसके जीवन और गरिमा के अधिकार को अपहृत कर लेगी। ऐसा आजादी के 72 साल बाद देश में पहली बार हो रहा है।
    अल्मोड़ा और जोशी की उभयनिष्टता के आधार पर प्रसूनजी को पीसी के समकक्ष खड़ा मत कीजिए।
    गुजराती होने के चलते मोदीजी और अमित शाह मोहन दास करमचंद गांधी नहीं हो सकते।
    जब मोदीजी के पास जलते सबालों का कोई जबाब नहीं होता है तब चीयर बैंडों को टेप बजाने पर लगा दिया जाता है।

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