बौद्ध श्रमण चिन्तन परम्परा के चिन्तक प्रो. तुलसीराम

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति’ में लिखा है कि भारतीय इतिहास दो संस्कृतियों के बीच संघर्ष का इतिहास है। ये दो संस्कृतियाँ हैं- वैदिक ब्राह्मण संस्कृति तथा बौद्ध श्रमण संस्कृति। एक तरफ जहाँ वैदिक ब्राह्मण संस्कृति स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म, ईश्वर कर्मफल, वर्ण-व्यवस्था परजीवीपन आदि मनुष्य विरोधी मूल्यों को समाज में स्थापित करना चाहती है, वहीं दूसरी तरफ बौद्ध श्रमण संस्कृति तर्क, विज्ञान, स्वतन्त्रता, समानता, मैत्री, करूणा, न्याय, श्रम आदि मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहती है। प्रो. तुलसीराम इसी बौद्ध श्रमण चिन्तन परम्परा के चिन्तकों में से एक थे। डॉ. अम्बेडकर के पश्चात उन्हीं की शैली में जिन मुट्ठी भर लोगों ने जीवन जीने का प्रयास किया, प्रो. तुलसीराम उन्हीं में से एक थे।

प्रो. तुलसीराम, देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर थे। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर रहते हुए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति की बारीकियों का अध्ययन भी बड़ी गम्भीरता से किया है। वास्तव में वे एक गम्भीर अध्येता थे। उनके व्याख्यानों और लेखों में दिये गये सन्दर्भों से उनके ज्ञान की गहराई और विशालता का पता चलता है। उनकी आत्मकथा का पहला भाग ‘मुर्दहिया’ 2010 और दूसरा भाग ‘मणिकर्णिका’ 2013 में प्रकाशित होने के पश्चात, उनके जीवन के बचपन और बी.एच.यू. में छात्र जीवन का परिचय आम जन के लिए सुलभ हुआ। वरना 2008 तक तो वे अपने गाँव का पता तक सार्वजनिक करने को तैयार नहीं थे। मैं अपने शोध कार्य के दौरान प्रो. राव के जन्म स्थान का विवरण शोध प्रबन्ध में देना चाहता था लेकिन उन्होंने कहा कि केवल आजमगढ़ लिख दीजिए मैंने भी वैसा ही किया। बाद में पता चला कि वे अपने गाँव से निकलने के पश्चात् जीवन पर्यन्त वापस नहीं गये। कोई बात रही होगी। आत्मकथा के दोनों भागों में तत्कालीन समाज और उससे संघर्ष करते हुए स्वयं का चित्रण उन्होंने किया है।

अपनी आत्मकथाओं के प्रकाशन के पूर्व वे हिन्दी पट्टी में दलित चिन्तक के रूप में स्थापित हो चुके थे। बौद्धिक सेमिनारों में प्रखर वक्ता, पत्र-पत्रिकाओं में सारगर्भित और तार्किक लेखों में प्रो. तुलसीराम को एक निर्भीक और समाज के प्रति समर्पित बुद्धिजीवी की जो छवि निर्मित किया वह छवि उनकी जीवन यात्रा के साथ सतत निखरती गयी। 1997-98 में उन्होंने ‘भारत अश्वघोष’ नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया। हालांकि यह पत्रिका बहुत लम्बी नहीं चल पायी। आलोचना और तद्भव जैसी पत्रिकाओं ने उनके गम्भीर और लम्बे लेखों का प्रकाशन किया। यत्र-तत्र पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे हुए उनके लेख भारतीय राजनीति और समा को समझने की अलग दृष्टि प्रदान करते हैं।

प्रो. तुलसीराम के जीवन में बुद्ध का विज्ञानबोध कबीर का फक्कड़पन और डॉ. अम्बेडकर की सामाजिक प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। इस तरह के जीवन का चुनाव उन्होंने स्वयं किया। हम समझ नहीं सकते हैं कि ऐसा जीवन चुनना कोई आसान नहीं रहा होगा। उनकी पत्नी श्रीमती प्रभा चौधरी कहती हैं कि मेरी शादी में एक दुल्हा व एक बाराती रिक्शे पर आये थे। बौद्ध रीति से विवाह सम्पन्न हुआ। उस समय वे जे.एन.यू. में सहायक प्रोफेसर थे।

‘संचय’ जैसी कोई प्रवृत्ति उनके अन्दर नहीं थी। सम्भवतः यही कारण है कि उन्होंने अपने विद्वतापूर्ण लेखों का भी कोई संग्रह नहीं करवाया जबकि उनके लेख बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। फक्कड़पन इतना कि वे अपने दोस्तों को अक्सर स्वयं खाना बनाकर खिलाते रहते थे। न जाने कितने व्यक्तियों और संस्थाओं को आर्थिक सहयोग करते थे। ज्ञान की भूख जबर्दस्त। किसी भी तथ्य का जिक्र बिना प्रमाण के नहीं करते थे। सामाजिक प्रतिबद्धता इतनी कि किसी की भी आलोचना करने से नहीं हिचकते थे। चाहे वे नेता हो, लेखक हों या कोई दल ही क्यों न हो। अपना पक्ष बड़ी ही निर्भीकता से रखते थे।

प्रो. तुलसीराम का बचपन एक अछूत परिवार में व्यतीत हुआ था। चेचक के प्रकोप से एक आँख चली जाने के कारण उन्हें अपने बचपन में दोहरी पीड़ा का दंश झेलना पड़ा। अंग्रेजों के जाने के पश्चात कांग्रेस का शासन भारत में स्थापित हुआ। भारत का संविधान जो व्यक्ति की गरिमा की रक्षा सहित नागरिकों के समस्त अधिकारों की रक्षा का वचन देता था, लागू हो चुका था। इन परिस्थितियों में प्रो. तुलसीराम ने होश सँभाला। गाँव में दलित और ‘काना’ होने की दोहरी पीड़ा को झेलते हुए उन्हें पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। पूर्वी उत्तर प्रदेश में भारतीय मार्क्सवादी सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय थे। उस समय स्वाभाविक था कि अपनी मुक्ति के लिए छटपटाते दलित नौजवान की भेंट मार्क्सवादियों से हो, और वही हुआ भी। वे भारतीय मार्क्सवादियों के माध्यम से मार्क्सवाद से परिचित हुए। यहाँ से उन्होंने अम्बेडकर और बुद्ध तक की विचार-यात्रा स्वयं किया। कहना न होगा कि उनके जीवन और विचारों पर यूरोप की मार्क्सवादी चिन्तन परम्परा एवं भारत की बौद्ध श्रमण परम्परा का गहरा प्रभाव पड़ा है। वे अम्बेडकर के चिन्तन को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं।

 प्रो. तुलसीराम पर बुद्ध, मार्क्स और अम्बेडकर के साथ महात्मा फुले, रामास्वामी पेरियार का भी प्रभाव पड़ा था। वे अपने विचारों को इन्हीं महापुरुषों की चिन्तन परम्परा की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था दोनों की कटु आलोचना करते हैं। ब्राह्मणवाद वर्ण व्यवस्था को स्थापित करना चाहता है। वे मानते हैं कि भारत की सबसे बड़ी समस्या वर्ण-व्यवस्था और उसकी वैचारिकी है। वर्ण-व्यवस्था के कारण न केवल दलितों को बल्कि शूद्रों और महिलाओं को भी अपमान एवं क्रूरता का दंश झेलना पड़ा। दलितों को अमानवीय परिस्थिति में जीवन-यापन करने को बाध्य होना पड़ा।

ज्ञान, सम्पत्ति तथा शस्त्र से विहीन होना पड़ा। वर्ण-व्यवस्था के आदर्शों का प्रभाव भारतीय जनमानस में इतना व्याप्त है कि गैर दलित आज भी दलितों को मनुष्य मानने को तैयार नहीं हैं। महिलाओं को भी भारतीय समाज पुरुषों के बराबर मानने को तैयार नहीं है, क्योंकि महिलायें वर्ण-व्यवस्था में शूद्र की श्रेणी में हैं। वर्ण-व्यवस्था का सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि भारत एक देश के रूप में सदैव कमजोर बना रहा जिसके कारण सदियों तक विदेशियों ने इसे पराधीन बनाकर रखा। तुलसीराम भारत में पूँजीवाद की स्थापना के लिए वर्ण-व्यवस्था को उत्तरदायी मानते हैं। उनके अनुसार हमारे देश का पूँजीवाद वर्ण-व्यवस्था की ही देन है। वर्ण-व्यवस्था ने ही यहाँ बनिया वर्ग को पैदा किया तथा ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को समस्त धन सम्पदा का ईश्वरीय स्वामी घोषित किया। यूरोप की तरह भारत में पूँजीवाद सामन्तवाद से संघर्ष करके स्थापित नहीं हुआ बल्कि भारत में पूँजीवाद की स्थापना में सामन्तवाद सहायक की भूमिका में था।

  बुद्ध से लेकर सन्त रैदास संत कबीर, जोतिराव फुले, पेरियार रामास्वामी और डॉ. अम्बेडकर के कार्यों और चिन्तन में ब्राह्मणवाद का प्रखर विरोध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। पूँजीवाद आधुनिक काल की वैश्विक परिघटना है जिसके शोषक प्रवृत्ति पर महात्मा फुले से लेकर डॉ. अम्बेडकर तक प्रश्न खड़ा करते हैं। पूँजीवाद के भारतीय संस्करण के पूर्णतः अस्तित्व में आने के पहले ही डॉ. अम्बेडकर का परिनिर्वाण हो गया। 1956 के पश्चात् बौद्ध श्रमण परम्परा के चिन्तकों में से कुछ ने पूँजीवाद का समर्थन किया तो कुछ ने विरोध। लेकिन दोनों में से किसी भी पक्ष ने पिछले 70 वर्षों में भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था का दलितों पर हुए प्रभावों का प्रामाणिक अध्ययन नहीं प्रस्तुत किया। प्रो. तुलसीराम सैद्धान्तिक रूप से न केवल भारतीय पूँजीवाद के विरुद्ध थे बल्कि उसे वर्ण-व्यवस्था के समान ही मनुष्य के लिए घातक भी मानते हैं और उसके विरुद्ध संघर्ष की आवश्यकता पर बल देते हैं।

प्रो. तुलसीराम लम्बी और कष्टकारी बीमारी से जूझते हुए 13 फरवरी 2015 को निर्वाण प्राप्त हो गये। वे वर्तमान केन्द्रीय सरकार के फासीवादी स्वरूप को पहले ही पहचान गये थे जिसको रेखांकित करने से लेकर आज भी फासीवादी विरोधी परम्परा के राजनीतिक उत्तराधिकारियों में बहस चल रही है। प्रो. तुलसीराम जीवन और उनकी दृष्टि हमें मानव विरोधी शोषक परम्पराओं को समझने तथा स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व व न्याय पर आधारित एक नया प्रबुद्ध भारत में बनाने में सहायक होगी। इसी कामना के साथ बौद्ध श्रमण चिन्तन परम्परा के चिन्तक प्रो. तुलसीराम को विनम्र श्रद्धांजलि।

(डॉ. अलख निरंजन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

अलख निरंजन
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