आर्थिक तबाही को सुनिश्चित करने वाला जन-मनोविज्ञान!

चुनाव में मोदी की भारी जीत लेकिन जनता में उतनी ही ज्यादा ख़ामोशी! मोदी जीत गये, भले जनता के ही मत से, लेकिन विडंबना देखिये कि वही जनता उनकी जीत पर स्तब्ध है! 2019 में मोदी की जीत सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी उन्माद में होश खो चुके लोगों का एक अपराध था, और इस जीत पर उनकी स्तब्धता इस अवबोध की अभिव्यक्ति कि उन्हें जिता कर लोगों ने जैसे खुद को ही दंडित किया है। लोग दुखी, पीड़ित और त्रस्त हैं, लेकिन मोदी को जिता कर अपने ही अंदर के इस दुख, विरोध और प्रतिवाद के भाव से इंकार कर रहे हैं, बल्कि उसका दमन कर रहे हैं, उसकी हत्या, और आज भी 2014 के अपने मूलभूत पाप का तर्क खोज रहे हैं । कह सकते हैं कि अभी लोग विपक्ष को अस्वीकार कर वास्तव में अपने सत्य को ही अस्वीकार कर रहे हैं।

मनोविश्लेषण में आत्म-दंड के ऐसे मामलों की बहुत चर्चा मिलती हैं। जाक लकान का एक प्रसिद्ध मामला था -ऐमी का मामला, जिस पर उनके कई सिद्धांत टिके हुए हैं। ऐमी ने अपने वक़्त की पेरिस की एक प्रसिद्ध नायिका पर छुरे से प्रहार किया था। उस नायिका में बस वह अपनी हसरतों, अपनी कामनाओं को मूर्त रूप में देखती थी और महज इसीलिये वह उससे ईर्ष्या करने लगी थी । वह खुद अपने कारणों से या अपनी परिस्थितियोंवश उस स्थिति में पहुंचने में असमर्थ थी । उसकी मौजूदगी ऐमी को अपनी कल्पना में खुद के लिये जैसे एक ख़तरा लगने लगी थी। इसीलिये उसने मौक़ा देख कर उस नायिका पर पागल की तरह वार कर दिया ।

बाद में, मनोविश्लेषण में पाया गया कि वह वास्तव में ऐसा करके खुद को ही दंडित कर रही थी। एक पिछड़ी हुई विचारधारा की चपेट में आए लोगों ने अपने से ज्यादा शिक्षित, प्रगतिशील और विकसित सोच के लोगों को घसीट कर धराशायी कर दिया, यह जंगली उन्माद अब पांच साल बाद देख रहा है कि उसकी कीर्ति स्वयं को दंडित करने के अलावा कुछ साबित नहीं हुई है। वह स्तब्ध है। वह लगभग पलायनवादी विक्षिप्तता में फंसता जा रहा है । बेहाल अर्थनीति आज जानकारों की चिंता का विषय है, लेकिन इसके दुष्प्रभावों के भोक्ता आम लोग सांप्रदायिक विद्वेष और ‘राष्ट्रवाद’ का धतूरा पी कर मानों किसी परम मोक्ष को साधने में लगे हैं।

वे इस सच को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। भारतवासी ऐसी खुद की बुलाई हुई विपत्तियों के दुर्योग को आंख मूंद कर अस्वीकारने की कला में माहिर हैं । वे शर्म में अपना मुंह छिपाये घूम रहे हैं । मुंह छिपाये मोदी और उनके कुनबे के कोरे तांडव को बस देख रहे हैं । श्री राम के वंशजों की कथाएं सुन रहे हैं ! कहना न होगा, यही वैराग्य का जन-मनोविज्ञान हमारी अर्थ-व्यवस्था के चरम पतन को सुनिश्चित करने के लिये काफी है । जान मेनार्ड केन्स ने आर्थिक मंदी को जन-मनोविज्ञान का परिणाम बताया था, हम इसे आज साफ देख रहे हैं । अब तो मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के जश्न से ही जनता में नई लालसाओं का जोश पैदा होगा ; अर्थनीति की दिशा पलटेगी। अर्थ-व्यवस्था के इस चरम संकट का समाधान अर्थ-व्यवस्था के बाहर, राजनीति में खोजना होगा ।

(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)

अरुण माहेश्वरी
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