युद्ध समस्या का समाधान नहीं है। इसीलिए कहा जा सकता है कि हमेशा इसे अंतिम विकल्प के रूप में ही चुना जाना चाहिए। अतः यूक्रेन पर रूस के हमले के सिलसिले में रुख तय करते हुए यही प्रश्न निर्णायक होगा कि रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने यूक्रेन के खिलाफ ‘विशेष सैनिक कार्रवाई’ का फैसला मनमाने ढंग से कर लिया या उन्होंने इसका चुनाव आखिरी विकल्प के रूप में किया।
जिन लोगों ने घटनाक्रम पर नजर रखी है, उन्हें मालूम है कि जो स्थिति 24 फरवरी को आई, उसकी परिस्थितियां असल में 2014 से ही बन गई थी, या बनाई जा रही थीं। बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इन हालात को बनाने की शुरुआत 1991 में सोवियत संघ के विघटन के तुरंत बाद कर दी गई थी।
संक्षेप में यहां सिर्फ दो पहलुओं का जिक्र करना काफी होगा। पहला यह कि पूर्व सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को दिए गए आश्वासन को तोड़ते हुए अमेरिका और उसके साथी देशों ने उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के विस्तार को जारी रखा। अब हालात यहां तक आ गए थे कि यूक्रेन को इसमें शामिल करने की तैयारी कर ली गई थी। 2021 में यूक्रेन ने नाटो के साथ साझा सैनिक अभियान में हिस्सा भी लिया।
दूसरा पहलू 2014 में अवैध ढंग से यूक्रेन में कराए गए सत्ता परिवर्तन से जुड़ा है। तब अमेरिका की योजना के तहत यूक्रेन के धुर-दक्षिणपंथी गुटों की मदद से निर्वाचित राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को सत्ता छोड़ने और देश से भागने के लिए मजबूर कर दिया गया। तब से हर व्यावहारिक अर्थ में यूक्रेन में अमेरिका समर्थित सरकार रही है, जो नस्लवादी नीतियों के तहत रूसी मूल के लोगों के खिलाफ हिंसा को अनुमति देती रही है।
ये दोनों ऐसे पहलू हैं, जिनसे रूस की सुरक्षा के लिए प्रत्यक्ष खतरा पैदा हो रहा था। इसे देखते हुए ही रूस ने पिछले नवंबर में यूक्रेन की सीमा पर अपने सैनिकों की तैनाती शुरू की। उसके बाद दिसंबर के मध्य में रूस सरकार ने अमेरिका और नाटो के सदस्य देशों को अपनी सुरक्षा संबंधी चिंताओं की सूची भेजी। उस दस्तावेज में सबसे प्रमुख बात रूस की यह मांग थी कि नाटो के पूरब की तरफ और विस्तार ना करने की कानूनी गारंटी उसे दी जाए। इसका व्यावहारिक मतलब है कि नाटो में यूक्रेन और जॉर्जिया को शामिल नहीं किया जाए।
यूरोप के सामरिक समीकरणों और वहां की भू-राजनीतिक स्थिति से परिचित किसी व्यक्ति को यह मांग अनुचित नहीं लगेगी। आखिर नाटो को अपनी सीमा के पास तक पहुंचने देने, वहां सैनिक और अति आधुनिक हथियार तैनात करने, और उसके दबाव में अपनी शर्तें थोपने की परिस्थिति बनने की इजाजत आखिर कोई बड़ी शक्ति कैसे दे सकती है? रूस आज भी एक बड़ी ताकत है। 1990 के दशक में लगे झटके और लूट से उबर कर गुजरे दो दशकों में वह फिर से अपने पांव पर खड़ा हो गया है। तो जाहिर है, रूस ने अपनी लक्ष्मण रेखाएं पश्चिम को बताईं। अगर पश्चिम उनका सम्मान करता, तो आज जो दुर्भाग्यपूर्ण सूरत बनी है, वैसा नहीं होता। बल्कि उससे रूस और पश्चिमी देशों में सहयोग की नई स्थितियां भी बनतीं, जिससे वैश्विक स्तर पर शांति का उददेश्य आगे बढ़ता।
मगर अमेरिका और पश्चिमी देशों ने हिकारत के भाव के साथ रूस की मांग सिरे से ठुकरा दिया। तब शायद उन्हें इस बात का असहसास नहीं था (या मुमकिन है कि वे दुनिया को इसकी भनक नहीं लगने देना चाहते थे) कि दुनिया पर उनके एकछत्र राज करने का दौर गुजर चुका है। अब यह साफ है कि पश्चिम को इसका अहसास कराने की लंबी तैयारी व्लादीमीर पुतिन ने पहले से की थी। चीन के साथ रूस की धुरी बनाने में उन्होंने अपनी जो ताकत झोंकी थी, उसके पीछे भी इस तैयारी के लक्षण तलाशे जा सकते हैँ। बीते चार फरवरी को ये तैयारी अपने एक ठोस मुकाम पर पहुंची, जब शीतकालीन ओलंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह में भाग लेने बीजिंग गए पुतिन की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ शिखर वार्ता हुई। इस बातचीत के बाद दोनों ने जो साझा वक्तव्य जारी किया, तभी विश्लेषकों ने उसे एक नई विश्व व्यवस्था की बुनियाद बता दिया था।
इस विश्व व्यवस्था में एक धुरी चीन और रूस हैं। इनमें एक आर्थिक महाशक्ति है, जबकि दूसरा उसी दर्जे की सैनिक महाशक्ति है। उन देशों के साथ सहानूभूति और समर्थन रखने वाले देशों की एक बड़ी संख्या है। अगर पश्चिमी देश इस बदली स्थिति को स्वीकार करते, तो फिर वे उस नजरिए से रूस के साथ पेश नहीं आते, जैसा उन्होंने हाल के महीनों में किया है। अगर वे इसे समझ पाते, तो चीन को घेरने की मुहिम में एक नए शीत युद्ध की जमीन वे तैयार नहीं करते। लेकिन उन्होंने ऐसा किया। तो आखिर किसी ना किसी दिन, किसी ना किसी ताकत के हाथों उनके सामने नए सच का आईना होना ही था। यही 24 फरवरी यूक्रेन के खिलाफ रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई के साथ हुआ है।
आधुनिक काल का जब कभी इतिहास लिखा जाएगा, 24 फरवरी 2022 को उस दिन के रूप में दर्ज किया जाएगा, जब 1991 में अस्तित्व में आए कथित एक-ध्रुवीय विश्व के अंत की पुष्टि हो गई। अभी ये युद्ध अपनी परिणति तक नहीं पहुंचा है। ऐसे में युद्ध के कभी भी कोई नया मोड़ ले लेने की गुंजाइश बनी हुई है। इसलिए अभी ऐसी बड़ी घोषणा करना बेशक एक बड़ा जोखिम उठाना है। लेकिन कई ऐसे संकेत हैं, जिनके आधार पर यह जोखिम उठाया जा सकता है। गौर करें:
स्पष्ट है, यूक्रेन सीमा पर दबाव बढ़ा कर रूस की सुरक्षा संबंधी चिंताएं पश्चिमी देशों के सामने रखने और उन चिंताओं की अनदेखी होने पर असल में सैनिक कार्रवाई कर देने के लिए पुतिन ने सही समय का इंतजार किया। ध्यान देने की बात है कि कोविड-19 महामारी ने पश्चिम के विकसित देशों के शासन तंत्र की कमजोरियों और विफलताओं को खोल कर सामने रख दिया है। इसकी वजह से वे देश सामाजिक तनाव और आर्थिक मुश्किलों के दौर में हैं। फिर यह वो समय है, जब ऊर्जा की महंगाई दुनिया पहले से ही झेल रही थी। अब युद्ध के माहौल से इसमें और बढ़ोतरी हुई है, तो उसकी मार सारी दुनिया के साथ-साथ पश्चिमी आबादी पर भी पड़ने वाली है। यानी यह ऐसा समय है, जब पश्चिमी सरकारों के लिए युद्ध की अनुकूल स्थिति नहीं है। जबकि दूसरी तरफ रूस ने चीन के साथ संबंध गहरे कर अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा की व्यवस्था कर ली है। उसने गुजरे महीनों में असामान्य रूप से विदेशी मुद्रा का भंडारण किया है।
इन गणनाओं के साथ ही केजीबी के पूर्व अधिकारी पुतिन ने प्रहार किया है। इसकी भौतिक चोट का शिकार यूक्रेन बना है। लेकिन मनोवैज्ञानिक, रणनीतिक, और सामरिक चोट एक-ध्रुवीय विश्व के सूत्रधार तक पहुंची है। ये चोट ऐसी है, जिसकी पीड़ा उसे हो रही है, लेकिन उसका कारगर जवाब देने में वह खुद को लाचार पा रहा है। जब ऐसा हो, तब यह अनुमान लगाना निराधार नहीं होता कि जमीनी सूरत बदल चुकी है। ये बदलाव काफी समय से आ रहा था, लेकिन परिवर्तन परदे के पीछे था। पुतिन ने परदा हटा दिया है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)