लोकतंत्र पर राहुल गांधी की समस्याग्रस्त सोच

राहुल गांधी ने लंदन जाकर भारतीय लोकतंत्र के बारे में जो कुछ कहा, उस पर भारतीय जनता पार्टी का एतराज जताना उसके दोहरे मानदंड को जाहिर करता है। देश की राजनीति या अपने राजनीतिक विरोधियों के बारे में विदेश की धरती पर जाकर आलोचनात्मक, बल्कि अपमानजनक टिप्पणियां करने का रिवाज खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कायम किया है। ऐसे में भाजपा को यह अपेक्षा क्यों करनी चाहिए कि विपक्षी नेता ऐसा ना करें? 

वैसे भी राहुल गांधी ने देश के हालात के बारे में जो कुछ लंदन में कहा, वे भारत में भी लगातार कहते रहे हैं। आज की दुनिया में सूचनाओं के हर पल होने वाले विश्व-व्यापी संचार के बीच कौन-सी बात कहां कही गई, इसका कोई अर्थ नहीं बचा है। अर्थ सिर्फ इसका बचा है कि बात क्या कही गई है? 

जिस एक बात को भाजपा ने खास कर उठाया, वह है कि राहुल गांधी ने अमेरिका और यूरोप से भारतीय लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने की अपील की। यानी उन्होंने देश के मामलों में विदेशी ताकतों से हस्तक्षेप करने को कहा। यह बात भी अर्धसत्य है। दरअसल, सवाल-जवाब के एक सत्र के दौरान उनसे भारत की घटनाओं पर कोई प्रभावशाली विदेशी प्रतिक्रिया ना होने के बारे में पूछा गया था। इस पर उन्होंने जो कहा, उसका मतलब था कि यूरोप और अमेरिका खुद को लोकतंत्र का रक्षक मानते हैं। इसलिए यह सवाल उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे चुप क्यों हैं? जाहिर है, उनका तात्पर्य उनके इस आरोप के बारे में चुप्पी से था कि भारत में लोकतंत्र का चौतरफा गला घोंटा जा रहा है।

विवाद ढूंढने के लिए आवर्धक (magnifying) लेंस लेकर बैठे राजनीतिक विरोधियों को इस टिप्पणी में जरूर विवाद खड़ा करने के कुछ तत्व मिल सकते हैं। इस टिप्पणी से यह संकेत तो मिलता ही है कि राहुल गांधी उन देशों की ‘चुप्पी’ से प्रसन्न नहीं हैं। बहरहाल, वे सचमुच अप्रसन्न हैं या इस संबंध में प्रश्न आने पर उन्होंने अप्रसन्नता का संकेत दिया, यह हमारे सामने स्पष्ट नहीं है। लेकिन उनकी बहुत-सी टिप्पणियों से यह मालूम पड़ता है कि वे अमेरिका और यूरोप को सचमुच लोकतंत्र का गढ़ मानते हैं। उन्होंने इस पश्चिमी प्रोपेगैंडा को बिना किसी आलोचनात्मक समीक्षा के स्वीकार कर रखा है कि उन देशों का प्रतिनिधित्व (representative) सिस्टम लोकतांत्रिक है। 

यह बात उनकी चीन संबंधी टिप्पणी से भी जाहिर हुई। हालांकि उन्होंने चीन की मैनुफैक्चरिंग ताकत की बेहिचक चर्चा की, लेकिन एक सवाल पर उन्होंने कहा कि चीन का आर्थिक सिस्टम coercive है- यानी जोर-जबर्दस्ती पर आधारित है। एक ऐसे देश के नेता का जहां आज भी न्यूनतम मजदूरी दिए बिना लाखों श्रमिकों से काम लिया जाता हो, जहां तब-तब बंधुआ या बाल बंधुआ मजदूरों को छुड़ाए जाने की खबरें आती हों, और जहां उद्यमों में मालिक मनमर्जी से कर्मचारियों को हटा देते हों (अगर सामाजिक अपराधों की बात भी करें, तो यह सूची बेहद लंबी हो सकती है), वहां का कोई नेता किसी अन्य देश के सिस्टम में जोर-जबर्दस्ती की बात करे, तो इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा। आखिर कानून से तय मजदूरी पर किसी से काम लेना और राज्य का पीड़ित को संरक्षण ना मिलना जोर-जबर्दस्ती नहीं है, तो और क्या है? 

राहुल गांधी की इस टिप्पणी के निहितार्थों को गंभीरता से समझने की कोशिश की जाए, तो लोकतंत्र के बारे में उनकी समझ को लेकर भी आसानी से राय बनाई जा सकती है। लोकतंत्र की जिस समझ से वे इत्तफ़ाक रखते हैं, उसमें राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता संबंधी कुछ संवैधानिक प्रावधानों और वयस्क मतदान से सरकार निर्वाचित होने की स्थापित प्रक्रिया को लोकतंत्र माना जाता है। लेकिन उन संवैधानिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं का आम जन का कितना बड़ा हिस्सा सचमुच उपयोग कर पाता है, यह बात उसमें मायने नहीं रखती।

भूख, गरीबी, अशिक्षा आदि से जैसी अस्वतंत्रताओं से पीड़ित लोग अगर वोट के अधिकार का इस्तेमाल कर लेते हों, तो उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी मान लिया जाता है। चूंकि ऐसे लोकतंत्र में शासक वर्ग से नियंत्रित सियासी पार्टियों के सामने चुनाव लड़ने की मजबूरी होती है, तो वे कुछ जन-कल्याणकारी या राहत पहुंचाने वाली योजनाओं की बात (या सत्ता में आने पर उन पर अमल भी) करती हैं। इस बीच कुछ ऐसी पार्टियां भी उभरती हैं, जो इसके बजाय लोगों की धार्मिक, नस्लीय, जातीय और लैंगिक पहचानों पर जोर डाल कर सामाजिक खाईं बढ़ाने की रणनीति से मतदाताओं को अपने पाले में लाने के प्रयास करती हैं। दलों के बीच ऐसी ही प्रतिस्पर्धाओं को लोकतंत्र मान लिया जाता है।

लेकिन इस मान्यता के अंदर यह बात गायब रहती है कि निर्वाचित होने का अधिकार होने के बावजूद किसी आम व्यक्ति के लिए सचमुच प्रतिनिधि निर्वाचित होना असंभव बना रहता है। किन्हीं खास राजनीतिक परिस्थितियों में अगर कोई गरीब या वंचित समुदाय का व्यक्ति निर्वाचित हो भी जाए, तो जल्द ही वह सुख-सुविधाओं के बीच जीने वाले उस ‘राजनीतिक समुदाय’ का हिस्सा बन जाता है, जो असल में समाज के शासक वर्ग के हितों को पूरा करने का औजार बना रहता है।

विडंबना यह है कि अगर कोई अन्य समाज या देश रोजमर्रा की वास्तविक अस्वतंत्रताओं से लोगों को मुक्त कराने की दिशा में आगे बढ़ा हो, लेकिन इस बीच उसका सिस्टम लोकतंत्र की इलीट समझ के मुताबिक ना हो, तो उसे इलीट लोकतंत्र के संचालक जोर-जबरर्दस्ती से संचालित बताने का अभियान चलाए रखते हैं, ताकि वहां का मॉडल सामाजिक-आर्थिक अस्वतंत्रताओं के बीच जी रहे तबकों को आकर्षित ना करने लगे। 

राहुल गांधी की मुश्किल यह है कि उन्होंने लोकतंत्र की इन अलग-अलग धारणाओं के बीच इलीट धारणा को आत्मसात कर रखा है। इसीलिए उनकी पूरी विचार प्रक्रिया में यह पहलू गायब है कि लोकतंत्र कोई स्थिर (static) सिस्टम नहीं है, ना ही इसकी कोई गति-अवरुद्ध संवैधानिक ढांचा हो सकता है। लोकतंत्र एक उत्तरोत्तर विकसित होने वाली प्रक्रिया है, जिसका राजनीतिक ढांचा उस समय की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) की झलक देता है। यानी लोकतंत्र का स्वरूप समाज विशेष की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) से अनिवार्य रूप से जुड़ा होता है। 

इसलिए असल विचार का सवाल यह है कि जिस दौर में हम मौजूद हैं, उसमें कथित लोकतांत्रिक देशों की राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का क्या स्वरूप है? साथ ही बीसवीं सदी के मध्य के दशकों में वहां की political economy क्या थी, जिस दौर में वहां बनी मैनुफैक्चरिंग और अन्य उत्पादक शक्ति को राहुल गांधी ने लोकतंत्र के लिए जरूरी माना है। गौरतलब है कि भारत और पश्चिम में इसी शक्ति में गिरावट को उन्होंने लोकतंत्र के वर्तमान संकट का प्रमुख कारण माना है। 

तो उस समय पश्चिमी देश औद्योगिक पूंजीवाद के दौर में थे। तब वहां बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों में हजारों की संख्या में श्रमिक एक साथ काम करते थे। इससे तब ट्रेड यूनियन आंदोलन ने तेज रूप ग्रहण किया था। सोवियत क्रांति ने उन आंदोलनों को एक खास सपना और दिशा दी थी। उससे पूंजीवादी समाजों में लोकतंत्रीकरण (democratization) का दौर आया, जिसने पूंजीवादी लोकतंत्र के बारे में वह वैश्विक धारणा पैदा की, जो आज तक विकासशील देशों के लोगों के दिमाग पर हावी है। 

बहरहाल, उस दौर में भी अमेरिका जैसे देश में ब्लैक समुदाय के लोग काफी समय तक मताधिकार से वंचित रहे। हालांकि अपने महान संघर्ष से उन्होंने मताधिकार प्राप्त किया, लेकिन तब तक औद्योगिक पूंजीवाद अपने बेहतर दौर से निकलने लगा था। तब तक शासक वर्ग ने अर्थव्यवस्था का समग्र वित्तीयकरण (Financialization) करने में अपना पूरा जोर लगा दिया था। 1980 का दशक आते-आते वित्तीय पूंजीवाद का दौर आ गया। इसके परिणामस्वरूप रेंट से अपनी समृद्धि में असीमित वृद्धि करने वाले एक नए कुलीनवर्ग (oligarchy) का उदय हुआ, जिसने व्यवस्था पर हर व्यवहारिक रूप में अपना शिकंजा कस लिया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद यह परिघटना बेरोक ढंग से आगे बढ़ी और ऊपर से लोकतांत्रिक दिखने वाली व्यवस्थाएं धीरे-धीरे कुलीनतंत्र (oligopoly) में तब्दील हो गईं। भारत में लोकतंत्र की जो समस्या है, उसकी जड़ में भी यही पहलू मौजूद है। 

अगर राहुल गांधी इस नजरिए से समस्या को देखते, तो उन्हें अमेरिका और यूरोप ना तो लोकतांत्रिक नजर आते और ना ही भारत में बनती स्थितियों पर उनकी चुप्पी से उन्हें नाखुशी होती। तब असल में वे इस चुप्पी के आधार पर उन देशों के लोकतांत्रिक होने के दावे को कठघरे में खड़ा करते। लेकिन हकीकत यह है कि बीते एक साल के दौरान उन्होंने यह बात अनेक बार कही है कि वे भारत को “पश्चिमी लोकतांत्रिक दुनिया” का हिस्सा मानते हैं। दरअसल, इस बिंदु पर वे और भाजपा (और अन्य दल भी) एक जगह खड़े नजर आते हैं। ये सभी पश्चिमी कथित लोकतांत्रिक दुनिया से जुड़ना अपनी उपलब्धि मानते हैं, जबकि “coercive system” के विरोध में खड़ा होने की उनके बीच होड़ छिड़ी नजर आती है। 

यह जो सोच है, इससे पैदा होने वाले भ्रम या भटकाव की झलक कांग्रेस के रायपुर महाधिवेशन में पारित अंतरराष्ट्रीय प्रस्ताव में भी देखने को मिली थी। लंदन में एक अन्य मौके पर जब राहुल गांधी से कांग्रेस की विदेश नीति के बारे में पूछा गया, तब भी यह भ्रम जाहिर हुआ। गांधी ने वहां विस्तार से यह बताया कि कांग्रेस की गृह नीति क्या है और उसके बाद जोड़ा कि विदेश नीति भी उन घरेलू उद्देश्यों ही जुड़ी हुई होगी। यानी आज की de-globalize होती दुनिया, ब्रिक्स की धुरी पर उभरते अंतरराष्ट्रीय सहयोग के नए ढांचे, de-dollarization आदि जैसी ऐतिहासिक परिघटनाओं पर कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं था।  

भाजपा ने राहुल गांधी की टिप्पणियों को लेकर जो शोर मचाया और कांग्रेस ने उसके ही अंदाज में उसका जवाब देने की जो पुरजोर कोशिश की, उसके बीच लोकतंत्र और विदेश नीति संबंधी राहुल गांधी- और प्रकारांतर में कांग्रेस की समझ पर देश में गंभीर और व्यापक चर्चा की गुंजाइश नहीं बन पाई है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। वैसे भी भारत में राजनीतिक ध्रुवीकरण का जो वातावरण है, उसके बीच ऐसे गंभीर विषयों पर शायद ही आज चर्चा होती है। लेकिन ये विषय बुनियादी किस्म के हैं- ना तो कांग्रेस और ना ही यह देश, इन्हें लंबे समय तक नजरअंदाज कर पाएंगे। ऐसा सिर्फ खुद को नुकसान में रखने का जोखिम उठा कर ही किया जा सकता है।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

सत्येंद्र रंजन
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