राहुल गांधी का बढ़ता कद: जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा

भारत के लोकतंत्र में पार्टियों का इतिहास यहां की भू-पारिस्थितिकी की तरह दिखता है। भारत की उत्तरवर्ती सीमा टैक्टोनिक असंतुलन की शिकार है। इसकी वजह से यहां पहाड़ों की ऊंचाई लगातार बढ़ती जा रही है। कुछ पर्वत शिखर ऊंचाइयां छू रहे हैं। लेकिन, इस असंतुलन की वजह से यह और इसकी जद में आने वाली अरावली पहाड़ियां भी भूकंप का शिकार होती हैं। दुनिया के सबसे ऊंचा पहाड़ होने का गर्व हिमालय को ज़रूर है, लेकिन यह टैक्टोनिक असंतुलन की वजह से उतना ही खतरनाक क्षेत्र भी बना हुआ है। भूकंप से दरकने, टूटने और बर्बादियों का एक मंजर इन इलाकों में दिखता ही रहता है।

भारतीय लोकतंत्र में हूबहू तो नहीं, लेकिन यहां भी टैक्टोनिक असंतुलन दिखता है और इससे होने वाले भूकंपों से शिखरों का ध्वस्तीकरण, नये शिखरों का निर्माण और शिखरों की श्रृंखलाओं का निर्माण होता हुआ दिखता है। ये पार्टियां अपनी जमीन पर कम, अपने शिखर को बढ़ाने में ज्यादा रुचि रखती हैं और इसी प्रवृत्ति में अपना वजूद भी नष्ट करती हैं। 

यह टैक्टोनिक असंतुलन, जिसे एक समय में खतरनाक माना जाता है उसे अब बहुत से राजनीतिक सिद्धांतकार भारतीय लोकतंत्र की खूबी मानने लगे हैं, कई तो इसे भारत का डीएनए भी कहने लगे हैं। बहरहाल यह असंतुलन इन पहाड़ों, शिखरों आदि के नीचे की वह जमीन है, जिसमें कई ताकतें काम कर रही हैं और वे सतह के नीचे लगातार एक दूसरे के साथ भिड़ी हुई हैं।

इस समय तो शिखरों पर लड़ाइयां चल रही हैं। पिछले दस सालों में भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ दास-समाज के राज्य की रणनीति बनाने वाले चाणक्य की भात को किनारे से खाने की नीति का सहारा लिया। इसने कांग्रेस को राज्यवार कुतरने की नीति अपनाई और इसके लिए चुनाव से अधिक विधायकों को तोड़ने और उनकी खरीद-फरोख्त की नीति पर काम किया। इसके बाद नेहरू-गांधी परिवार और राहुल गांधी पर सीधा हमला कर कांग्रेस के भीतर नेतृत्व का संकट खड़ा किया। इन दोनों आक्रमणों से कांग्रेस का भौगोलिक क्षेत्र सीमित हुआ और केंद्रीय नेतृत्व में गुटबंदियां खड़ी हो गईं। इन दोनों का सीधा असर कांग्रेस के क्षेत्रीय और केंद्रीय नेतृत्व के संकट के रूप में सामने आया।

भाजपा की इस रणनीति से कांग्रेस के परम्परागत वोट संख्या पर कोई खास असर नहीं पड़ा। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को लगभग 29 प्रतिशत वोट मिले थे। उस समय मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने सरकार बनाई। 2014 में कांग्रेस को 19.31 प्रतिशत वोट मिले और मात्र 44 लोकसभा सीट मिलीं। कांग्रेस ने सबसे कम सीट पाने का इतिहास बनाया। वहीं भाजपा महज 31 प्रतिशत वोट के आधार पर भारत के चुनाव के इतिहास में सबसे कम वोट प्रतिशत पर लोकसभा में बहुमत हासिल करने वाली पार्टी बनी और यहां से नरेंद्र मोदी का आगाज हुआ।

इस जीत को मोदी का करिश्मा कहा गया जबकि इस करिश्मे की जमीनी हकीकत दावों से बहुत अलग थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 19.67 प्रतिशत रहा। इस तरह से हम देख सकते हैं कि नेतृत्व में जिस तरह की खलबली और राहुल गांधी और नेहरू-गांधी परिवार को लेकर जिस तरह की असहजता दिख और दिखाई जा रही थी, वह उसके समर्थक जमीन की अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि यह भाजपा के सीधे हमले का परिणाम जैसा अधिक था। कह सकते हैं यह टैक्टोनिक असंतुलन की वजह से शिखरों की लड़ाई और घबराहट थी।

अब कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ भी वही चुनावी रणनीति अपनाते हुए दिख रही है। लेकिन वह कुतरने के बजाय राज्यों में अपने वोट आधार को पुनर्गठित कर अपनी जमीन बना रही है। साथ ही वह भाजपा के भौगोलिक प्रसार को उत्तर-भारत तक सीमित कर देने की रणनीति बनाने में लगी हुई। यह इंदिरा गांधी की वह दक्षिण नीति जैसा ही है जब उन्हें उत्तर-भारत की नई उभर रही राजनीति से चुनौती मिल रही थी। उस समय उन्होंने दक्षिण का रुख किया था। राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा इसी रणनीति का हिस्सा था।

लेकिन कांग्रेस ने कुतरने की बजाय अपने वोटों के पुनगर्ठन की नीति पर चलने की राह लिया। कर्नाटक के चुनाव में राहुल गांधी ने भाजपा पर वैचारिक हमले पर ज्यादा जोर दिया। इससे भाजपा के वोट प्रतिशत पर लगभग डेढ़ प्रतिशत की चपत लगी लेकिन कांग्रेस ने अपने कुल वोट प्रतिशत में ढाई प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर बहुमत हासिल कर लिया। कांग्रेस यही रणनीति तेलंगाना में ले रही है, जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा का राज्य नेतृत्व अभी से भगदड़ की स्थिति में दिखने लगा है। 

कांग्रेस अपने वोट पुनर्गठन की रणनीति पर चल रही है। लेकिन भाजपा मोदी-शाह के नेतृत्व में अब भी नेहरू-गांधी परिवार पर हमला करने और राहुल गांधी को अक्षम, अराजक, गैर-जिम्मेदार आदि साबित करने में लगी हुई है। कई प्रचार यह स्थापित करते हुए दिखते हैं कि यह परिवार और खुद राहुल गांधी आदतन भ्रष्ट और देश के प्रति अपराधी किस्म के हैं। इसके बरख्श यदि हम भाजपा के प्रस्तावित माॅडल को देखें, तब हमें मोदी ‘एक अकेला-देश बचाता’ जैसा छाती ठोक दावा दिखता है और दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में योगी-मामा का बुलडोजर माॅडल दिखता है।

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने तो बाकायदा गैंगस्टर संस्कृति को खत्म करने के उस माॅडल का विज्ञापन भी दिया जिसमें एक गैंगस्टर की जमीन को कब्जे में लेकर उस पर आवास निर्माण की योजना लागू किया और कथित गरीबों को कुछ दर्जन भर मकान वितरित किए। हालांकि इन विज्ञापनों के नीचे दब गई उन बातों का जिक्र दूसरे मीडिया और जन समूह कर रहे हैं, जिसकी नीति के तहत महात्मा गांधी से जुड़े संस्थानों की जमीनों पर कानून के झोल का सहारा लेकर कब्जा जमाने और उस पर पांच सितारा होटल बनाने के दिन-रात प्रयास जारी हैं।

महात्मा गांधी को उत्तर प्रदेश में पहुंचाने के लिए गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार से नवाजा गया। वहीं गांधीवादियों के संस्थानों पर कब्जा अभियान भी चलाया जा रहा है। बुलडोजर और गांधी का यह विरोधाभासी माॅडल दरअसल कुछ और नहीं दास-समाज की उस चाणक्य नीति का भोथरा माॅडल है जिसमें वह कहता है कि राजा को राज्य चलाने के लिए क्रूरता का उदाहरण पेश करना चाहिए और साथ ही खुद को एक आदर्श शासक की तरह दिखाना चाहिए।

चाणक्य की यह नीति ही बुलडोजर नीति है और इसे बाकायदा माॅडल की तरह पेश किया जा रहा है। यदि भाजपा इस नीति को माॅडल बनाकर लोकसभा चुनाव में ले आती है, तब उत्तर भारत में राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘मुहब्बत की दुकान’ का खुलना भी तय है। चाहे वह उत्तर प्रदेश हो या मध्य प्रदेश, कांग्रेस को वोट पुनर्गठन का फायदा मिलना तय है।

भाजपा राज्य प्रभारियों में फेरबदल कर आगामी लोकसभा चुनाव अभियान की ओर बढ़ चली है। वह मुद्दों को तलाशने, उसे बनाने, और पिछले अनुभवों के सार संकलन से एक निष्कर्ष की ओर बढ़ती दिख रही है। राहुल गांधी पर हमला करने की जो रणनीति बनाई गई थी, उसका असर गुजरात की निचली और ऊपरी दोनों ही अदालतों में दिख रहा है। जज महोदय ने वही बात कही जो भाजपा स्थापित करना चाह रही है। जैसे आप पर एक के बाद एक कई मुकदमे दर्ज हुए हैं, एक नेता को साफ चरित्र का होना चाहिए, उदाहरण बनना चाहिए, आपके बयान से सरकारी नीति की आलोचना को बल मिलता है, आदि-आदि।

जज महोदय के निर्णय में भाजपा के चुनावी भाषणों की अनुगूंज सुनाई देती है। यदि वह लोकसभा चुनाव में जीतकर आये प्रत्याशियों के अपराधों के रिकॉर्ड को देखते और भाजपा के राज्य और केंद्र सरकार के मंत्रियों के कारनामों पर भी नजर डालते, तब वह अपनी बात को और भी गहराई दे सकते थे और भारतीय लोकतंत्र के संकट पर एक अच्छा खासा ऐतिहासिक अवलोकन भी पेश कर सकते थे, जिसका ऐतिहासिक महत्व भी होता। लेकिन यह इतना छोटा मुकदमा है और इसके निर्णय की इस तक ही सीमा बनती है जिसमें राहुल गांधी को बांध पाना मुश्किल है। उन्हें जितना ही कम करके आंका जा रहा है, उनका कद उसी गति से अधिक बढ़ता दिख रहा है।

अभी तक भाजपा अपने केंद्र सरकार की ओर से जिस नये एजेंडे की तरफ जाती हुई दिख रही है, उसमें समान नागरिक संहिता ही मुख्य तौर पर दिख रहा है। विश्वगुरु हो जाने का दावा फिलहाल बनता हुआ नहीं दिख रहा है और अमेरीका यात्रा से मोदी का जो रूप निखरकर आना था वह बनता हुआ नहीं दिख रहा है। उत्तर प्रदेश में विशाल पूंजी निवेश का मेला भी चंद दिनों की चर्चा के बाद गायब होता हुआ दिख रहा है।

गुजरात में हिंदू-मुस्लिम विभाजन का राग अभी भी सुना जा रहा है, लेकिन 2014 में जिस तरह इसे लोकसभा चुनाव में सुना और सुनाया गया, वैसी स्थिति अब नहीं रही। मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार, मामा सरकार से बदलकर बुलडोजर मामा सरकार के नामांतरण तक गई है, इससे अधिक इस सरकार की प्रभावशीलता नहीं दिख रही है। खुद अपनी ही पार्टी के कारनामों से जनता का पैर धोने की नौबत आ गई।

मोदी माॅडल की अमित शाह के नेतृत्व में नार्थ-ईस्ट पाॅलिसी का नतीजा एक भयावह शक्ल ले लिया है, और वह माॅडल बनने की स्थिति में नहीं दिखता। देवेंद्र फणनवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र में विपक्ष विहीन सरकार का माॅडल जरूर उभरकर आया है, लेकिन इस सरकार के हिस्सेदार अजित पवार और शिंदे गुट न तो भाजपा के अनिवार्य अंग बने हैं और न ही भरोसेमंद घटक ही। यह माॅडल भी अवसरवाद की चरम अभिव्यक्ति बनकर उभरा है।

भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के समय की गठबंधन राजनीति में डबल-इंजन की सरकार एक नीतिगत मसला था और भाजपा राज्यों में अपनी पकड़ बनाने के लिए इस दिशा में काम करते हुए अपना जनाधार बना रही थी। इस नीति ने भारत के लोकतंत्र में एक विशाल गठबंधन की राजनीति को जन्म दिया, जिसमें अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियां हिस्सा बनीं। इन क्षेत्रीय पार्टियों ने विचारधारा के स्तर पर घोर पतन और अवसरवाद का प्रदर्शन किया।

क्षेत्रीय पार्टियां भ्रष्टाचार में आकंठ डूबीं और घोर महत्वाकांक्षा में बुरी तरह से पतित हो गईं। कुछ पार्टियां अपना अस्तित्व ही खो देने के लिए अभिशप्त हो गईं। इसके पतन, अवसरवाद और पतित नेतृत्व को हवा देने का काम 2014 में भाजपा के नये नेतृत्व ने खूब अच्छी तरह से अंजाम दिया। 2019 के लोकसभा और बाद के विधानसभा चुनावों में भाजपा नेतृत्व अपने ही घटक को खाने की ‘बिच्छू नीति’ का सहारा लिया। इसकी वजह से इससे जुड़े बहुत से दल कांग्रेस के खेमे की ओर बढ़ चले हैं।

पुराने गठबंधन के कुछ नेता जिनकी पार्टियां अस्तित्व के संकट से गुजर रही हैं, वो उपयुक्त समय आने का इंतजार कर रही हैं कि किस करवट जाया जाये। नीतिगत स्तर पर केजरीवाल की पार्टी आप और मायावती की बसपा ही भाजपा के साथ खड़ी होती दिख रही है। चुनाव में इनके साथ आप का भाजपा के साथ जाना संभव नहीं लगता है। मायावती जी पर जरूर भ्रष्टाचार का शिकंजा है और ‘अफवाहों की मानें’ तो उनमें राष्ट्रपति बनने की आकांक्षा बनी हुई है। हालांकि वह इस बात को कई बार नकार चुकी हैं। लेकिन उनके साथ मुख्य समस्या यही है कि उनके हाथों से उत्तर प्रदेश की नब्ज छूट चुकी है और वह दलित समुदाय की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रही हैं।

भाजपा की इस गठबंधन नीति के बरख्श राहुल गांधी एक प्यारे इंसान, सबकी सुनने वाले, सबको जगह देने वाले, विचारधारा और चिंतन से लैस भारत के हरेक नागरिक के बगल में खड़े होकर उसकी बात सुनने वाले और ‘मुहब्बत की दुकान’ खोलने वाले एक मुहल्लेदार आम आदमी की तरह उभरकर सामने आ रहे हैं।

अडानी और मोदी के मामले में समझौताहीन होना, गठबंधन में बराबरी और अपने हक का दावा करना, विपक्ष के नेताओं के साथ घरेलू और राजनीतिक संबंध बनाने की ओर बढ़ना और जनता के विविध लोगों के बीच जाकर उनके साथ भोजन से लेकर उनके रोजगार के कामों में हाथ लगाना और बात करना और चाणक्य नीति की बजाय नागार्जुन के करुणा शून्यवाद की दार्शनिक अवस्थिति पर खुद को लाने की कोशिश करना, उन्हें नया अवसर प्रदान करता हुआ दिख रहा है।

यदि कर्नाटक में कांग्रेस के वोट पुनर्गठन की नीति देश के स्तर पर लागू होती है, तो कमजोर हो चुके भाजपा गठबंधन के 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले वोट प्रतिशत में गहरी गिरावट आयेगी और खुद भाजपा के 38 प्रतिशत वोट में सेंध लगेगी। और यदि यह वोट प्रतिशत बना भी रह जाये, जैसा कर्नाटक के हाल के चुनाव में हुआ तब भी कांग्रेस की वोट पुनर्गठन की रणनीति भाजपा को मुश्किल में डाल देगी।

मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत का अभियान महाराष्ट्र में विपक्ष मुक्त भारत के अभियान में बदल चुका है जबकि इसी समय में कांग्रेस के क्षेत्रीय और केंद्रीय नेताओं के कद में इजाफा होता दिख रहा है, खासकर राहुल गांधी का नया उभार भारतीय लोकतंत्र के वोट की राजनीति में रामचरित मानस की चौपाई को चरितार्थ करता दिख रहा हैः

जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा। तासू दून कपि रूप देखावा।।

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

अंजनी कुमार
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