भावनाओं के राजनीतिक बीहड़ में खोए राम

बाबरी मस्जिद विध्वंस के 28 साल बाद अयोध्या में पांच अगस्त को धूमधाम से राम जन्म भूमि मंदिर का शिलान्यास हो गया। सन् 1989 में सांकेतिक रूप में रखे गए नींव के पहले पत्थर के साथ हिंदुओं में जिस राम चेतना का संचार हुआ, उसे मंदिर आंदोलन ने एक ठोस राजनीतिक आकार दिया।

इस चेतना को संवाद-विमुख बनाने की शुरुआत सन् 2002 में गुजरात से हुई, जिसका अक्स अयोध्या में चौक-चौराहों पर बिकती और कुछेक घरों पर फहराती धर्म पताकाओं में छपे क्रुद्ध राम और हनुमान की तस्वीरों में भी दिखता है।

कह सकते हैं कि 30-35 वर्षों में राम बहुत बदल गए हैं और अकेले भी हो चुके हैं। अयोध्या में बिना सीता जी के राम कहीं नहीं दिखते, लेकिन नए राम के साथ सीता जी नहीं हैं।

निर्माण और भावनाएं
दुनिया के चार प्रमुख धर्मों- ईसाई, इस्लाम, हिंदू और बौद्ध- का पिछले एक हजार सालों का इतिहास देखें तो आखिरी केंद्रीय धार्मिक निर्माण कार्य इस्लाम के ही खाते में दर्ज है। हमें 624 ईसवी का साल मिलता है, जब मुसलमानों ने काबे की ओर मुंह करके पांच वक्त की नमाज पढ़नी शुरू की।

629-630 में जब मोहम्मद साहब मक्का वापस आए, तब इसकी महत्ता और भी बढ़ी और वक्त के साथ-साथ इसमें मरम्मत होती गई, जिसे आज हम एक वर्गाकार इमारती ढांचे के रूप में देखते हैं।

ईसाईयों में सबसे पुराना तीर्थ येरुशलम है, फिर रोमन राजाओं के वक्त रोम में कुछ धार्मिक इमारतें बनीं और उसके बाद इंग्लैंड का कैंटरबरी बाकायदा चर्चों का शहर बना। दुनिया के एक मात्र धर्म राज्य वैटिकन का स्वतंत्र अस्तित्व 20वीं सदी की चीज है, जिसे सन् 1929 में इटली से अलग करके बनाया गया।

इसके बाद भी दुनिया में धार्मिक निर्माण कार्य जारी तो रहे, लेकिन ऐसा कोई धार्मिक स्थल नहीं बना, जिसे उस धर्म की अस्मिता से जोड़ा गया हो। कह सकते हैं कि इतिहास में आज हम उस जगह खड़े हैं, जहां काफी अरसे बाद वृहद हिंदू अस्मिता से जुड़ा कोई निर्माण कार्य होने जा रहा है।

राम हिंदुओं की वृहद धार्मिक अस्मिता से जुड़े हैं, जो इन्हीं 30-35 सालों में न सिर्फ शैव और शाक्त बल्कि कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत वैष्णव परंपरा को भी पीछे छोड़ती हुई हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में उभर रही है।

शैवों, शाक्तों और वैष्णवों के बीच मौजूद टकराव पिछले सौ वर्षों में तिरोहित होते गए हैं और दक्षिण भारत के शैवों से लेकर बंगाल और पहाड़ के शाक्तों तक में राम कथा को लेकर बराबर सम्मान दिखता है, लेकिन जो राम इस धार्मिक समरसता के केंद्र में हैं, उनके स्वरूप में उस क्रोध का स्थान कहां है, जो अभी उनकी तस्वीरों में दिखाई देने लगा है?

वे तो वनवासी राम हैं। केवट को उतराई न दे पाने के कारण सकुचाए हुए राम। थके, भूखे, शबरी के जूठे बेर खाने वाले राम। आज भी इलाहाबाद में कुंभ लगता है तो अवध की ग्रामीण महिलाएं गाती हैं, ‘अवधा लागे उदास, हम न अवध में रहबै/ रघुबर संगे जाब, हम न अवध में रहबै।’ अवध उदास है, राम वहां नहीं हैं। सीता और लक्ष्मण के साथ वन-वन भटकते हुए वे बारिश में भीग रहे होंगे- गाते-गाते अवध की स्त्रियां भीग जाती हैं।

मेरी दादी गाती थीं- ‘राम बेईमान अकेले छोड़ गइलें’, और कोठरी में बंद होकर रोती थीं। वे एक बार भी राम जन्मभूमि का दर्शन करने नहीं गईं। जिसके हृदय में राम हों, वह दर्शन की लाइन में क्यों लगे? अवध में राम लोगों के मन में हैं। यहां हर कोई राम को डांटता-डपटता है, प्रेम करता है, उलाहने देता है और अक्सर झगड़ा किए बैठा रहता है।

ग्रामीण अवध में कोई राम को देखना चाहता है तो अपने गीतों में बसी कहानियों के जरिये देखता है। पहलौठी लड़का होता है तो उसमें राम का रूप देखा जाता है- ‘रानी कवन-कवन फल खायू, राम बड़ सुन्नर हो।’ शादी किसी की हो, वर राम ही होते हैं- ‘मउरा संवारैं राम अवधपुरी मा, चंदन संवारैं सिया के अंगना।’ किसी का मन करता है तो वह राम वनवास दो साल पहले ही खत्म कर देता है, ‘बरह बरिस पै राम अइलैं, अंगनवा ठाढ़ भइलैं न हों।’

बेटा परदेस गया है और बहू घर में रूठी बैठी है तो अवध के गांव में आज भी मां का मन कुछ इस तरह मसोसता है- ‘मचिया ई बैठेली कौसिल्ला रानी, मने-मने झंखेली हो/ जीउ केहू मोरे सीता के मनइहैं त राम ले बोलइहैं न हो।’ कोई मेरी सीता को मना लेता और राम को बुला लाता। अवध में राम से अधिक सीता का सम्मान है। सीता अवध का दुख हैं, सो जिक्र हर जगह पहले उनका ही होता है।

बुधवार रात जब मैं फैजाबाद के फतेहगंज में राम जानकी मंदिर की सजावट देख रहा था, मेरे दोस्त के मुंह से बरबस निकल गया- ‘नए मंदिर में राम के साथ जानकी का भी होना जरूरी है!’

धर्म में जगह
मंदिर आंदोलन से जो राम निकलकर आए हैं, कभी-कभी लगता है कि वे अपनी ही कथाओं को झुठलाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि ये वाले राम पूरी तरह राजनीतिक हैं। राम के दस हजार से अधिक मंदिर अयोध्या में पहले से ही हैं, अब एक और बनने जा रहा है। सरकार का मानना है कि इससे न केवल यहां के सभी मंदिरों की बल्कि अयोध्यावासियों की भी आमदनी बढ़ेगी।

ऐसा हो तो बहुत अच्छा, लेकिन पिछले तीन दशकों में राम का नाम लेकर जो ढेरों योजनाएं अयोध्या के लिए घोषित की गईं, वे कहां गईं, कोई नहीं जानता। सबसे बड़ी बात यह कि किसी के भी पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि सनातन धर्म में राम की कोई अपरिहार्यता तो है नहीं, फिर समूचे हिंदू धर्म के लिए वे गया-गंगासागर, कुंभ, चार धाम और काशी जितने अपरिहार्य कैसे बन जाएंगे? दरअसल, इस सवाल में ही कलियुग के राम के साथ-साथ अयोध्या का भविष्य भी छुपा है।

  • राहुल पाण्डेय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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