रविदास मंदिर मसला: कोर्ट के आंगन से लेकर राजनीति के दामन तक

दिल्ली स्थित रविदास मंदिर को गिराए जाने को लेकर पूरे देश में बवाल उठ खड़ा हुआ है। पंजाब से लेकर यूपी तक के दलित सड़कों पर हैं। पंजाब बंद के बाद इस मुद्दे पर रामलीला मैदान में आयोजित बड़ी रैली और फिर तुगलकाबाद तक हजारों की संख्या में मार्च कर दलित अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुके हैं। और प्रदर्शन पर पुलिस लाठीचार्ज के बाद भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर समेत तकरीबन 90 से ज्यादा लोग गिरफ्तार हैं। इन सब के खिलाफ कई संगीन धाराएं लगा दी गयी हैं।

वैसे राजधानी के ग्रीन जोन में स्थित मंदिर को गिराने का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट से आया है। और कोर्ट ने फैसले के पीछे मंदिर के चलते ग्रीन जोन और पर्यावरण के नुकसान को प्रमुख कारण बताया है। लेकिन यह फैसला किसी के भी गले नहीं उतर रहा है। दरअसल यह केवल सामान्य मंदिर नहीं था बल्कि 600 साल पुराना एक धरोहर था और पुरातत्व की संपत्ति के तौर पर उसके रखरखाव के दायरे में आता है। लिहाजा तुगलकाबाद स्थित इस मंदिर के टूटने या फिर उसके विस्थापित होने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए था। अगर कोर्ट ने ग्रीन जोन को कारण बताकर यह फैसला लिया है तो उसे इसी दिल्ली के भीतर कई ऐसे मंदिर और ढांचे मिल जाएंगे जो पुरातत्व निर्माणों की श्रेणी में भी नहीं आते हैं। करोलबाग इलाके के ग्रीन जोन में स्थित आशाराम बापू के बड़े आश्रम पर कोर्ट की तो कभी निगाह नहीं गयी। इसी तरह से ढेर सारे उदाहरण मिल जाएंगे।

और एक दूसरे नजरिये से भी यह फैसला तार्किक नहीं दिखता है। सुप्रीम कोर्ट अगर आस्था का सवाल मानकर अयोध्या में राम मंदिर के विवाद को हल करने के लिए बेंच गठित करता है और जमीन के मालिकाने को लेकर हर तरह के ऐतिहासिक साक्ष्यों और दस्तावेजों की पड़ताल कर रहा है। तो फिर आस्था के एक दूसरे मंदिर को बगैर किसी से पूछे या फिर उससे जुड़े लोगों की भावनाओं का ख्याल किए कैसे गिराए जाने का आदेश दे सकता है। क्या भावनाएं भी दो होती हैं? क्या सुप्रीम कोर्ट भी अब जातीय श्रेणियों की श्रेष्ठता और उनके अनुक्रम के हिसाब से व्यवहार करने लगेगा? अगर नहीं तो फिर बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के छिड़े विवाद को लेकर इतनी माथपच्ची क्यों? उसे भी रविदास मंदिर की भेंट चढ़ा देना चाहिए। वहां तो कोई ग्रीन बेल्ट का भी मामला नहीं है।

तुगलकाबाद स्थित रविदास मंदिर जिसे हटा दिया गया।

लेकिन मामला इतना आसान नहीं है जितना सामने से दिख रहा है। इस बात में कोई शक नहीं कि इसमें किसी तबके से ज्यादा सरकार की इच्छा शामिल है। और पूरा प्रकरण भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े खेल का हिस्सा जान पड़ता है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर के मामले में एक संभावना यह भी है कि शायद जिस तरह से जमीन के मालिकाने को लेकर बहस केंद्रित हो रही है उसमें राम मंदिर के लिए पूरी जमीन का मिल पाना मुश्किल है। ऐसे में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से बहुत अलग कोई फैसला आता नहीं दिख रहा है। फिर भी कोर्ट के जरिये मंदिर बनने और नहीं बन पाने दोनों स्थितियों में बीजेपी-संघ ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है। किसी को लग सकता है कि भला राम मंदिर और रविदास मंदिर के बीच क्या रिश्ता है। लेकिन रिश्ता है।

दरअसल इस देश के भीतर दलित ही वह तबका है जिसको संघ और बीजेपी के लिए अपने हिंदुत्व के ढांचे में समेट पाना मुश्किल हो रहा है। ब्राह्मणवाद के खिलाफ वही असली मोर्चा लेता है। और अपने पूरे चरित्र, स्वभाव और जेहनियत में नास्तिक धारा के बिल्कुल करीब होता है। अनायास नहीं जब ब्राह्मणवादी ताकतों के नेतृत्व में सांप्रदायिक उन्माद भड़कता है तो उसके शिकार मुस्लिम से ज्यादा दलित होते हैं। लिहाजा जगह-जगह पर अपने हिसाब से दलितों और मुसलमानों के बीच एक किस्म की एकता बनती दिखती रहती है। संघ इस चीज को पहले से ही जानता है लिहाजा उसकी हरचंद कोशिश होती है कि दलितों को मुसलमानों से न केवल अलग किया जाए बल्कि जरूरत पड़ने पर मुसलमानों के खिलाफ उन्हें हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर लिया जाए। जैसा कि उसने गुजरात के दंगों में किया था। और यह मॉडल पूरे देश में वह बीच-बीच में दोहराता रहता है। इसको अंजाम तक पहुंचाने और उसको सफलतापूर्वक इस्तेमाल करने की पूर्व शर्त यह है कि दलितों को भी उनके धर्म के सवालों पर उन्मादित कर दिया जाए। और उन्हें भी अपने रोजी-रोटी के सवालों से काटकर आस्था के सवालों पर केंद्रित कर दिया जाए।

इस मामले में दलितों के बीच आगे बढ़ा तबका जिसके एक हद तक रोजी-रोटी के सवाल हल हो गए हैं उसके सबसे पहले संघ के पाले में आने की संभावना है। और एकबारगी किसी समुदाय के अगुआ हिस्से को अगर गिरफ्त में ले लिया गया तो पूरे समुदाय के उसके पीछे खड़े होने की संभावना बढ़ जाती है। लिहाजा रविदास मंदिर निर्माण के मामले में अपने तरह का दलितों के सांस्कृतीकरण का पहलू भी जुड़ा हुआ है। जिसमें दलित पहचान के साथ उन्हें पूजा और दूसरे कर्मकांडों का अधिकार दिए जाने का मामला शामिल है।

इस बात में कोई शक नहीं कि इस मंदिर को गिराए जाने के जरिये यह भी संदेश देने की कोशिश की गयी है कि दलितों का दर्जा समाज और देश में दोयम है और इस तरह से उनके पूरे अस्तित्व और पहचान पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया गया है। लेकिन इस काम को कोर्ट के जरिये करवाकर सरकार ने उस दाग को अपने दामन तक पहुंचने से रोक दिया है। कोई पूछ सकता है कि भला कोर्ट और सरकार के बीच क्या रिश्ता है। तो यहां सीधे-सीधे लिखने की जगह सिर्फ इशारे में यह बताया जा सकता है कि जिस बेंच ने यह फैसला दिया है उसके बीजेपी के साथ रिश्ते जगजाहिर हैं।

दिल्ली में विरोध प्रदर्शन।

बीजेपी और संघ इस मसले को लेकर एक दूरगामी रणनीति पर काम कर रहे हैं। जिसके तहत अगर कोर्ट का फैसला राम मंदिर के पक्ष में आ जाए तो वाह-वाह और नहीं भी आए तब भी राममंदिर का निर्माण उसके एजेंडे में सबसे ऊपर होगा। और इस कड़ी में अगर देश के दलित भी रविदास मंदिर के लिए ही सही “मंदिर वहीं बनाएंगे” का देश भर में नारा गुंजायमान करेंगे। तो देश भर में उत्तर से लेकर दक्षिण तक और दलित से लेकर ब्राह्मण तक के बीच “मंदिर वहीं बनाएंगे” का नारा गूंज रहा होगा। फिर आखिर में भला इसका लाभ किसको होगा? उसको जो पूरे देश को आस्था और अंधविश्वास के आग में झोंक देना चाहता है या फिर उसको जो जनता के बुनियादी मुद्दों को उठाकर देश की राजनीति को सही दिशा देना चाहता है? और ऐसा होने पर सबसे ज्यादा नुकसान उन दलितों का होगा जिसका 80 फीसदी हिस्सा अभी भी आर्थिक और सामाजिक दोनों पैमानों पर सबसे निचले स्तर पर खड़ा है।

दरअसल उसके बाद पता चला यही बीजेपी और संघ मिलकर यह कहें कि अयोध्या में राम मंदिर और दिल्ली में रविदास मंदिर दोनों का निर्माण वही करेंगे। और फिर सवर्णों के साथ ही पूरे दलित समुदाय को अपने पीछे गोलबंद कर लें। और पूरे देश में मंदिर निर्माण के पक्ष में आंधी चलने लगे। इस मुद्दे के जरिये दलितों को अपने पक्ष में लाने का एक दूसरा मकसद भी है। दरअसल देश में दलित ही वह तबका है जो संविधान और उससे जुड़ी तमाम संस्थाओं को लेकर सबसे ज्यादा आग्रहशील रहता है। क्योंकि वह उनको सीधे डॉ. भीमराव अंबेडकर से जोड़कर देखता है। लिहाजा किसी ऐसी स्थिति में जब कोर्ट के फैसले का विरोध करना होगा तो इस मामले में अब दलित सबसे आगे होंगे। दूसरे तरीके से कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की जमीन में गहराई तक जड़ जमाए संविधान के पत्थर पर दलितों के हाथ से छीनी चलवायी जाएगी।

सारी संस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं या फिर संघ और बीजेपी के आगे नतमस्तक हो गयी हैं। अभी जो कुछ थोड़ा बहुत बचा है वह कोर्ट और आखिरी तौर पर संविधान है। लिहाजा संविधान को ध्वस्त करने का रास्ता कोर्ट से होकर जाता है। ऐसे में जिस दिन कोर्ट की साख खत्म हो जाएगी संविधान की सत्ता अपने आप समाप्त हो जाएगी। क्योंकि संविधान को संरक्षित करने का काम आखिरी तौर पर कोर्ट करता है और जब वही अपनी भूमिका में नहीं रहेगा तो फिर संविधान को उसकी भूमिका से अलग करने में भला कितना दिन लगेगा।

बताया तो यहां तक जा रहा है कि अगर किसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट से राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ नहीं होता है तो संघ राम मंदिर के साथ रविदास मंदिर के मामले को भी उठा लेगा और फिर इन दोनों मंदिरों के निर्माण के लिए देशभर में अभियान छेड़ सकता है। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि जरूरत पड़ने पर दोनों मंदिरों के लिए संघ जनमत संग्रह तक के रास्ते पर जा सकता है। और उन्माद थोड़ा आगे बढ़ा तो फिर हिंदू राष्ट्र की घोषणा का एजेंडा भी उसके साथ जोड़ा जा सकता है। और यह सब कुछ 2022 तक करने की योजना बतायी जा रही है। अनायास नहीं पीएम मोदी द्वारा 2022 का बार-बार नाम लिया जाता है। कुछ इस तरह से जैसे संघ और बीजेपी के जीवन में वह कोई अहम पड़ाव हो।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

महेंद्र मिश्र
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