गरीबी उन्मूलन और शांति का आपसी सम्बंध! विशेष संदर्भ गांधी, विनोबा और मुहम्मद यूनुस

और दिनों की तरह विश्व शांति दिवस भी गुजर गया। शांति के लिए तरह-तरह के विचार और सिद्धांत कहे गए लिखे गए, लेकिन इन सब के बीच सबसे बड़ा सवाल बिना सुलझे रहा कि किसी समाज, देश और पूरी दुनिया में शांति कैसे आए। शांति सब तरफ हो, पूरी दुनिया में हो, यह आज की ज़रूरत है, लेकिन शांति के लिए युद्ध न होना या युद्ध की परिस्थितियों का न होना ही काफी नहीं है।  शांति के लिए यह भी ज़रूरी है कि दुनिया का हर इंसान अपने जीवन में शांति महसूस कर सके।

इस नज़रिए से शांति तब तक नहीं आ सकती जब तक हर इंसान उन सब हालातों में ना हो जिसमें आजकल है। इन हालातों में सबसे बड़ी बुरी बात गरीबी का रहना है। तमाम तरह की तरक्की के बाद भी दुनिया की 30 फीसदी आबादी गरीबी की हालत में रहने को मजबूर है। जिसके लिए यह आबादी जिम्मेदार नहीं हैं। जिम्मेदार वो लोग हैं अपने आप को रहनुमा कहते हैं और कहीं न कहीं व्यवस्था से जुड़े हैं।

एशिया, ख़ासकर दक्षिण एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में लाखों करोड़ों लोग ऐसे हैं जो गरीबी के मानक, दो डालर या यूं कहें रु 150 से कम में रोज जिंदा रहने को मजबूर हैं। भारत में तमाम तरह की कोशिश के बावजूद 28 फीसदी आबादी सरकारी तौर पर गरीबी में रहने को मजबूर है। जबकि गैर सरकारी तौर पर यह आंकड़ा बहुत ज्यादा है।

देश में गांधीजी और आचार्य विनोबा ने इस स्थिति को अपनी जिंदगी के शुरुआती दौर में बहुत अच्छी तरह समझ लिया था। गांधी ने अपने प्रयोगों में गरीबी दूर करने के अनेक उपायों को आजमाया। जिसमें ग्राम स्वराज की परिकल्पना और उसका अमलीजामा देश की गरीबी दूर करने के लिए बहुत कारगर हो सकता था। बदक़िस्मती से आजादी के फौरन बाद गांधी जी की शहादत हो गई, नहीं तो गांधी जी ने जैसे अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ मुहिम चलाई वैसे ही वह गरीबी के ख़िलाफ़ मुहिम चलाते। 

आचार्य विनोबा ने इसी गरीबी को खत्म करने के लिए भूदान और ग्रामदान की मुहिम चलाई और मुल्क को गरीबी से निजात दिलाने की एक राह और रोशनी दी। लेकिन बाद में हमारी शासन व्यवस्था उस राह पर नहीं चल सकी, या ऐसे खराब हालात पैदा हो गए जिससे भूदान और ग्रामदान का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।

जबकि विनोबा जी भूदान और ग्राम दान अभियान के दौरान जिन सात बातों पर जोर देते थे उनमें पहली बात गरीबी दूर करने की थी तो सातवीं बात विश्व शांति की थी, यानि दुनिया में शांति और सुकून तब तक नहीं आ सकता जबतक गरीबी खत्म नहीं हो जाती। यह बड़े मार्के की बात थी, यह सूत्र था जिसे हमारी व्यवस्था ना जान सकी और ना मान सकी। जब हम अपने मुल्क में इस पर ढंग से ध्यान नहीं दे सके तो दुनिया में इस बात का झंडा कौन उठाता?

भूदान और ग्रामदान जैसे गरीबी दूर करने के सूत्र के आधे अधूरे  लागू होने के बाद भी दशक बीत गए, लेकिन इसपर गंभीर चर्चा नहीं हो सकी कि ग़रीबी दूर करने और शांति में क्या आपसी सम्बन्ध है। जबकि गरीबी दूर करने के लिए अरबों-खरबों रुपए खर्च करके सैकड़ों योजनाएं चलाई गईं थीं और शांति तो कोसों दूर थी और है।

पूरी दुनिया में भी गरीबी दूर करने के लिए अलग अलग मुल्कों में अलग अलग तरीके अपनाए जाते रहे। कहीं सरकारी तौर पर तो कहीं गैर सरकारी तौर पर। हमारे मुल्क के पड़ोस बंगलादेश में घोर गरीबी थी। वहां की तानाशाही की सरकारें भी अपने मुल्क की गरीबी को दूर करने में जब कामयाब नहीं हो पाईं तो वहां एक गैर-सरकारी मुहिम शुरू हुई जिसने बंगलादेश में ग्रामीण गरीबी को दूर करने में अहम किरदार निभाया।

यह मुहिम करीब चालीस साल पहले प्रो मुहम्मद यूनुस साहब ने शुरू की थी। हालांकि उस मुहिम का बेसिक गांधी और विनोबा के तौर तरीके से बिल्कुल अलग था। जो कि गांधी विनोबा के जाने के बाद तमाम तरीके के सामाजिक आर्थिक बदलाव को देखते हुए और उस मुल्क के हालात को देखकर ज़रूरी लगा होगा। लेकिन जो भी था वह बहुत ही असरदार रहा।

प्रो मुहम्मद यूनुस ने बंगला देश में माइक्रोफाइनेंस का जो माडल बनाया वह बाद में बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक के गठन में और उसकी मार्फत बांग्लादेश में गरीबी दूर करने और मुल्क की तरक्की में अहम रहा। बाद में यह माडल दुनिया के और देशों में भी लागू किया गया। हमारे मुल्क में उस माडल को लागू तो किया गया लेकिन यह अधूरे तौर तरीके से । बाद में यह माडल भी मुल्क की बाबूगिरी में उलझकर रह गया।

प्रो मुहम्मद यूनुस ने अपने मुल्क में जो काम किया उसको अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति भी मिलने लगी। लोग बांग्लादेश में गरीबी दूर करने के तौर तरीकों की तारीफ करने लगे। बांग्लादेश के गरीबी दूर करने के मॉडल में प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक स्वास्थ्य को भी ध्यान में रखा गया था। इसका फल यह हुआ कि बांग्लादेश का मानव विकास सूचकांक कई विकास शील देशों से भी ऊंचा हो गया। और तो और आर्थिक प्रगति में बांग्लादेश से कहीं आगे माने जाने वाला भारत भी मानव विकास सूचकांक में बांग्लादेश से पीछे हो गया।

ज़ाहिर है बांग्लादेश में गरीबी मिटी तो सुख शांति आई और इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महसूस भी किया गया। इसी कारण 2006 में प्रो मुहम्मद यूनुस और उनके द्वारा स्थापित बांग्लादेश ग्रामीण बैंक को संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया। उन्हें यह पुरस्कार गरीबी दूर करके शांति स्थापित करने के लिए यानी शांति के लिए दिया गया जो कि एक अनोखी बात थी। माडल गरीबी दूर करने का, और नोबेल पुरस्कार शांति का।

इस पुरस्कार ने गरीबी दूर करने और विकास में लगे कार्यकर्ताओं को चौंका दिया था। हमारे देश में विकास पुरुष कहे जाने नेता तो भौंचक्के रह गए थे, जो बड़े बड़े उद्योगों को ही विकास और गरीबी दूर करने का माध्यम मानते थे। लेकिन प्रो मुहम्मद यूनुस के माडल ने गरीबी दूर करने पर ही शांति और सुकून आने की अवधारणा को सिद्ध कर दिया था। और यह भी सिद्ध हो कर दिया था कि बिना गांव और गांव के निवासियों की तरक्की के कोई भी देश ना तो तरक्की कर सकता है और ना वहां शांति स्थापित हो सकती है।

(इस्लाम हुसैन स्वतंत्र लेखक हैं और आजकल उत्तराखंड में रहते हैं।)

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