पश्चिम बंगाल में कोविड संकट के बीच चमके ‘रेड वॉलेंटियर्स’

कोविड महामारी ने पश्चिम बंगाल में जमीनी स्तर पर वामपंथियों के लिए भारी आशा पैदा की है; और उसका श्रेय युवा रेड वॉलेंटियर्स यानि लाल स्वयंसेवियों को जाता है, क्योंकि वे कोलकाता और राज्य के सुदूर इलाकों में आपातकाल व संकट की स्थिति का मुकाबला कर रहे हैं।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी ने पश्चिम बंगाल में 2019 के लोक सभा चुनाव और 2021 के विधान सभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं की और उनके शीर्ष नेतृत्व ने अपनी विश्वसनीयता और पुनर्जागरण की इच्छा खो दी है, वह भी ऐसे राज्य में जहां 3 दशकों तक उनका एकछत्र राज रहा। पर ये युवा आदर्शवादी एक हारे हुए, हतोत्साहित वाम को रास्ता दिखा रहे हैं; वे बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में वास्तविक रूप से दिखाई देने वाले कार्यकर्ता बन गए हैं।

महामारी, व्यापक जनता की असहाय स्थिति और निराशा ने लाल स्वयंसेवियों को गति, उत्साह और ऊर्जा दी है कि वे जमीनी स्तर पर भौतिक रूप से लगकर एक ऐसा अभियान चलाएं जिसकी कोई सीमा नहीं है। यह पश्चिम बंगाल के सामाजिक राजनीतिक फलक में लोगों की आखें खोलने का काम कर रहे हैं। वह बता रहे हैं कि वामपंथ का सबसे बेहतर हिस्सा क्या कुछ नहीं कर सकता है।

पहली बात तो यह है कि वे किसी भी प्रकार की संकीर्णता के परे हैं। दूसरे, वे बिना किसी सवाल-जवाब व प्रतिदान की आशा के, तत्काल व निरंतर संपर्क के लिए हाज़िर हैं। और तीसरे, वे बहुत ही प्रभावशाली, कुशल और उद्यमी हैं। यह कोई मायने नहीं रखता कि आप कौन हैं, वे आप तक पहुंचेंगे और मदद करेंगे। और यदि आप हाशिये पर हैं तो उनकी प्रतिबद्धता एक विश्वास और आदर्शवाद भरा कृत्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए, जब एक कोविड मरीज के लिए ब्लड थिनर की आवश्यकता थी और वह कोलकाता में कई जगह स्टॉक में नहीं था, उसके मित्रों ने दवा के लिए पूरा कोलकाता छान मारा। पर दवा उपलब्ध नहीं थी।

मुकुन्दपुर, दक्षिण कोलकाता के पास रहने वाले एक लाल स्वयंसेवी, जिसने मरीज को पहले दवा लाकर दी थी, को इस परेशानी का पता लगा। उसने कोलकाता के बीसियों केमिस्ट की दुकानों में कोशिश की, रोज बड़े अस्पतालों के पास की दुकानों में सुबह और शाम घंटों समय खर्च करके दवा का पता करता रहता। पर दुर्भाग्यवश उसे सफलता नहीं मिली। फिर भी वह हारा नहीं, लगा रहा।

एक ऑनलाइन खुदरा उद्यम में पूर्णकालिक कार्यकर्ता होते हुए भी वह किसी तरह समय निकालकर अपनी स्कूटर पर सारे कोलकाता में इस दवा की तलाश में भागता फिरता। उसके लिए यह जुनून बन गया था। वह रात देर तक, कभी-कभी तो आधी रात के बाद तक भी स्वयंसेवी का काम करता। ‘‘मेरे दिल में बहुत पीड़ा होती है यह देखकर कि बुज़ुर्ग लोग दवा लेने के लिए घंटों तक लाइन में खड़े रहते हैं।’’ उसने कहा।

इसलिए वह कोशिश करता रहा। और वह मरीज को जानता भी नहीं था। ‘‘मेरे दिमाग में कुछ ऐसा कौंधा कि आखिर मुझे यह दवा कैसे नहीं मिलेगी? मुझे किसी भी हालत में इसे हासिल करना है।’’ वह बोला।

अन्त में कोलकाता के बाहर एक छोटे इलाके में, जो हवाई अड्डे से काफी दूर है, एक दवा की दुकान का पता चला, जहां एक दूसरे लाल स्वयंसेवी ने दवा प्राप्त कर ली। तो उसके मित्र ने उसकी बाइक 4 घंटे चलाकर मरीज को दवा पहुंचाई। जो असंभव था वह भी दृढ़ इच्छाशक्ति और अथक प्रयास से संभव हो गया; यह मजबूत प्रतिबद्धता का कृत्य था और विशाल मानवता का भी।

लाल स्वयंसेवी, यानि रेड वॉलेंटियर्स एक संगठित समूह के रूप में काम करते हैं। वे सोशल मीडिया, मित्रों, मोहल्ला समूहों, अन्य ग्रुपों व सीपीएम की स्थानीय इकाइयों के साथ नेटवर्किंग के जरिये काम करते हैं। कुछ अपने क्षेत्रों और मोहल्लों के माध्यम से काम करते हैं जबकि कई पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए हैं। और यह नेटवर्क, जिससे मरीजों या दवा की जरूरत वालों तक पहुंचा जा पाता है और मदद की जाती है, निश्चितता के साथ सहज ढंग से और मेहनत से, बिना किसी अड़चन के 24×7 घंटे काम करता है।

‘‘हम यह काम इसलिए करते हैं कि इमारा करना जरूरी है। हमें करना ही होगा। बस, इससे अधिक कुछ नहीं है। हम न ही लोगों को इमदाद बांट रहे हैं न समाज सेवा कर रहे हैं। हम सिर्फ इसलिए यह काम करते हैं कि इस समय उसे करना आवश्यक है; वरना हम चैन से सो नहीं सकते।’’ एक लाल स्वयंसेवी ने कहा।

पूरी प्रक्रिया को इतना सटीक और सुगम बना दिया गया है कि जैसे ही जानकारी मिलती है, मरीज और उसके परिवार के पास स्वयंसेवियों के फोन आने लगते हैं। मोहल्ले के स्वयंसेवी मदद करने के लिए जुट जाते हैंः खाना, पन्सारी का सामान, दवाएं, एंबुलेंस, परिवहन, ऑक्सीजन, बातचीत, डॉक्टर, अस्पताल, आदि। यह आपातकाल के समय बहुत बड़ा नैतिक, भौतिक व सामाजिक सहयोग है-खासकर ऐसे लोगों के लिए जिनके पास न पैसे हैं न पहुंच।

अविश्वसनीय कहानियां कही जा रही हैं इन लाल स्वयंसेवियों के बारे में। कैसे वे अपनी पूरी ऊर्जा ऐसी कठिन परिस्थितियों में लगा रहे हैं। भारी वर्षा में वे रिक्शे पर जाकर ऑक्सीजन पहुंचाते हैं क्योंकि मोटरसाइकिल पानी में रुक जा सकती है। कोई बुजुर्ग दम्पति अकेले हैं तो उन्हें पास के अस्पताल ले लाते हैं-कई बार अपने वाहन से। अगर सरकारी अस्पतालों में बेड खाली होते, वे परिवहन का इन्तजाम करके उन्हें भर्ती करवाते हैं। मदद की गुहार संकट के समय हो या सामान्य समय में, वे उसी गंभीरता और प्रतिबद्धता के साथ काम करते हैं।

लाल स्वयंसेवियों का सबसे बड़ा गुण है कि उनमें लेशमात्र भी संकीर्णता की भावना नहीं है। उन्होंने भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ताओं की मदद की है, त्रिणमूल और अन्य दलों के समर्थकों की भी मदद की है। इन हिम्मती युवाओं की विशाल हृदयता, और उनका अपनी जान की बाजी लगाकर लोगों की मदद  करना उन्हें जनता का प्यारा बना देता है।

ये लाल स्वयंसेवी सीपीएम के युवा संगठन डीवाईएफआई (DYFI) और छात्र संगठन एसएफआई (SFI) द्वारा प्रेरित हैं, पर वे उन सभी को जोड़ने के लिए अपना द्वार खुला रखते हैं जो इस मुहिम में साथ देना चाहते हैं। इन अर्थों में उनके प्रतिब़़द्ध कार्यकर्ताओं में से कई अलग-अलग वैचारिक धाराओं से आते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो केवल द्वितीय लहर के समय कुछ ठोस मदद पहुंचाना चाहते थे। और, यद्यपि पश्चिम बंगाल जन-निराशा और मृतकों की संख्या के लिहाज से दिल्ली, उत्तर प्रदेश और गुजरात से बेहतर स्थिति में था और ऑक्सीजन व असपताल के बेड के भारी अभाव से नहीं जूझ रहा था, लाल स्वयंसेवियों ने बहुत बेहतर और मजबूत जमीनी सहायता नेटवर्क कायम की और कई जगहों पर सरकारी तंत्र के अभाव को पाट दिया, खासकर सुदूर क्षेत्रों और गावों में। और यह परिघटना पूरे बंगाल में देखी गई, आसनसोल से लेकर बर्धवान और कूच बिहार से लेकर उत्तर बंगाल तक।

सचमुच लाल स्वयंसेवियों के जमीनी प्रयास अब कोविड के दायरे से आगे जा चुके हैं। अब वे एक किस्म के सामाजिक सुरक्षा कवच बन गए हैं, जिसको जनता हर प्रकार की मदद और सलाह के लिए खोज रही है। उदाहरण के लिए वे मॉनसून में टूटी दूर-दराज के इलाकों की सड़कों की मरम्मत करते हैं। पूर्वी मेद्नीपुर में उन्होंने गांव वालों के साथ मिलकर एक टूटी सड़क बनाई क्योंकि वे चाहते थे कि चिकित्सा आपातकाल के दौर में सड़कें ठीक हों।

इसी तरह से पाकुरिया-मानसिंहबेर और पाकुरिया-कसारिया रोड भी टूटी हुई थीं। राहत कार्य के दौरान स्वयंसेवियों ने उसे देखा और पाया कि किसी भी वाहन-दुपहिया गाड़ी या एंबुलेंस के लिए सड़क को पार करना मुश्किल था। तो उन्होंने ग्रामीणों को संगठित किया और सड़क को ठीक किया। यहां तक कि त्रृणमूल कांग्रेस वाली स्थानीय पंचायत ने उनके प्रयासों की सराहना करते हुए वायदा किया कि वे मानसून के बाद पक्की सड़क का निर्माण करवाएंगे।

हाल के दिनों में रेड वॉलंटियर्स के सोशल मीडिया पेज पर लोगों के सलाह, बातचीत और मेडिकल व अन्य मदद की मांगों की बाढ़ सी आ गई है। किसी को अच्छे डॉक्टर या विशेषज्ञ का नाम पता करना है तो कोई बताता है कि उसकी मां बारिश में फंसी हुई है तो क्या करें? कोई बताता है कि वह बेरोज़गार है और किराया नहीं भर पा रहा। कुछ लोग चिकित्सा संबंधी राय भी मांगते हैं। उन्हें तुरन्त सोची-समझी राय मिलती है और लाल स्वयंसेवियों से सहयोग भी मिलता है। डाक्टरों का भी प्रबंध होता है।

यह लाज़मी है कि सीपीएम की राजनीति से इतर, रेड वॉलंटियर्स के बहुमूल्य और नि:स्वार्थ काम को नागरिक समाज और मीडिया से बहुत सराहना मिली है। इसलिए उन्हें गंभीरता से लिया जा रहा है और तहे-दिल से समर्थन भी मिल रहा है।

कई सामाजिक संगठन कई तरह से, यहां तक कि आर्थिक तौर पर भी उनकी मदद के लिए आगे आए हैं। उदाहरण के लिए बीई कॉलेज के एलुम्नाई ऐसोसिएशन ने कुछ जिलों में 159 फ्रन्टलाइन रेड वॉलेंटियर्स को स्वास्थ्य बीमा दिया है। हरेक स्वयंसेवी का 2 लाख का बीमा हुआ है। फिर, कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज के एलुम्नाई ऐसोसिएशन ने आठ लाख रुपयों का एक कोष बनाया है जिससे लोगों की मदद की जा सके। नेशनल मेडिकल कॉलेज एलुम्नाई ने एसएफआई के स्वयंसेवियों के काम के लिए 75,000 रुपये दिये हैं।

यह सच है कि ऐसे राज्य में, जहां वामपंथ पीछे चला गया है और दक्षिणपंथी दल ही प्रमुख विपक्ष है, लाल स्वयंसेवियों ने दिखाया है कि कैसे हवा का रुख बदला जा सकता है, अपने जीवन, अपने शरीर और आत्मा को दांव पर लगाकर, अथक और निःस्वार्थ परिश्रम करते हुए, कठिन परिस्थितियों में अदम्य साहस और मानवता का परिचय देकर ही यह संभव है।

(अमित सेनगुप्ता हार्डन्यूज़ के कार्यकारी संपादक और स्तम्भकार हैं, जो वर्तमान समय में कोलकाता में रहते हैं। अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी अनुवाद कुमुदिनी पति ने किया है।)

कोविड रिस्पॉन्स वॉच, काउन्टरकरेंट्स से साभार

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