अवमानना का डर दिखाकर हासिल नहीं की जा सकती इज्जत!

साख कहें या अपने प्रति दूसरों का आदर, उसे कमाना पड़ता है। इसे न तो खरीदा जा सकता है न ही अवमानना का डर दिखाकर या भयाक्रांत करके हासिल किया जा सकता है। अब इस बात को किसी ऐसे माननीय को नहीं समझाया जा सकता है जो नाक पर गुस्सा लेकर न्याय की कुर्सी पर बैठते हैं, लेकिन उच्चतम न्यायालय में बिना चीफ जस्टिस बने जस्टिस अरुण मिश्रा का नाम प्रभावशाली न्यायाधीशों में लिया जाता था।

तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल से ही  देश के राजनितिक रूप से कुछ सबसे संवेदनशील मामलों को अनिवार्य रूप से उनकी पीठ को सुनवाई के लिए आवंटित किया जाता रहा और उच्चतम न्यायालय  के चार वरिष्ठ न्यायाधीश ने अपनी ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेंस में यह सवाल उठाया था की उस समय एक जूनियर जज की पीठ को इतने महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई क्यों सौंपी जा रही है।

यह सिलसिला उन चार जजों में से एक जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल में भी जारी रहा। नतीजतन जस्टिस अरुण मिश्रा का सुनवाई के दौरान बार के प्रति रुखा व्यवहार बढ़ता ही गया और जमीन अधिग्रहण से जुड़े मामले में बहस के दौरान दिसंबर 2019 में जस्टिस अरुण मिश्रा ने वरिष्ठ वकील शंकरनारायण को अवमानना कार्रवाई की धमकी दे दी।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष राकेश खन्ना, कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी ने इस मामले को जस्टिस मिश्रा की पीठ के सामने उठाया तो जस्टिस मिश्रा ने कहा कि जज के तौर पर 20 साल के करियर में मैंने कभी किसी वकील पर अवमानना कार्रवाई का आदेश नहीं दिया।

अवमानना की कार्रवाई करने की चेतावनी मिलने के बाद एक वरिष्ठ वकील के अदालत कक्ष से बाहर जाने की घटना के दो दिन बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्रा ने बृहस्पतिवार को माफी मांग ली। उन्होंने कहा कि अगर उनकी बात से किसी को बुरा लगा हो तो वह बार के हर सदस्य से ‘दंडवत’ माफी मांगते हैं। साथ ही उन्होंने कहा कि मैंने अपने जीवन में कभी भी किसी इंसान या पशु-पौधे को भी दु:ख पहुंचाया हो तो भी मैं उसके लिए माफी मांगता हूं।

उच्चतम न्यायालय के तीसरे वरिष्ठतम जज जस्टिस मिश्रा ने वरिष्ठ वकीलों के समूह से कहा, हो सकता है, मैंने कुछ कहा हो लेकिन मेरे कहने का मतलब कुछ गलत नहीं था। अगर मेरी वजह से किसी को ठेस पहुंची हो तो मैं माफी चाहता हूं। उन्होंने कहा कि गोपाल शंकर नारायणन एक बेहतरीन वकील हैं, उन तक मेरा यह संदेश पहुंचा दिया जाए।

दरअसल जमीन अधिग्रहण के एक मामले की जस्टिस मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ में सुनवाई चल रही थी। वरिष्ठ वकील गोपाल शंकर दलीलें रख रहे थे। जस्टिस मिश्रा ने उन्हें दलीलों को न दोहराने को कहा, जिसके बाद दोनों में नोकझोंक हुई। इसी दौरान जस्टिस मिश्रा ने उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की चेतावनी दी, जिसके बाद नारायणन कोर्ट रूम से बाहर चले गए थे। इस पर वरिष्ठ वकीलों समेत बार के अध्यक्ष ने जस्टिस मिश्रा से वकीलों से बात करते समय थोड़ा संयम बरतने का अनुरोध किया था।

पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने कहा कि युवा वकील इस कोर्ट में आने से डरते हैं। इससे बार के युवा सदस्यों पर असर पड़ता है। वहीं, कपिल सिब्बल और सिंघवी ने कहा कि यह बार और बेंच की जिम्मेदारी है कि हम कोर्ट का डेकोरम कायम रखें और एक-दूसरे को सम्मान दें।

कपिल सिब्बल, मुकुल रोहतगी, अभिषेक मनु सिंघवी, दुष्यंत दवे, शेखर नाफडे समेत अन्य वरिष्ठ वकीलों ने जस्टिस मिश्रा से बार के सदस्यों के साथ विनम्र और सहनशील रहने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि बार और पीठ दोनों का ही यह कर्तव्य है कि वे अदालत की गरिमा बनाए रखें और दोनों को परस्पर एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। इन सभी ने कहा कि अदालत में शिष्टता बनी रहनी चाहिए। लिहाजा जस्टिस मिश्रा को और विनम्र होना चाहिए। वहीं रोहतगी ने कहा कि कई युवा वकील इस कोर्ट में आने से डरते हैं, चाहे कारण सही हो या गलत। सभी ने कहा कि वह किसी एक वाकये की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि पूर्व में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं।

जस्टिस मिश्रा के साथ पीठ में बैठे जस्टिस एमआर शाह ने कहा कि हर चीज पारस्परिक होनी चाहिए। कभी-कभार ये चीजें आवेश में हो जाती हैं। इसके बाद जस्टिस मिश्रा ने कहा कि किसी अन्य जज की तुलना में उनका बार से अधिक नाता रहा है। मैं बार का मां के समान आदर करता हूं। मैं अपने दिल से यह कह रहा हूं और कृपया इस तरह की कोई धारणा अपने दिमाग में मत रखिए। उन्होंने कहा कि मुझे किसी के प्रति भी कोई शिकायत नहीं है। मैं ऐसे किसी आयोजन में नहीं जाता जिसे बार द्वारा आयोजित नहीं किया गया हो। मैं जहां भी गया वहां बार का सम्मान किया।

जस्टिस मिश्रा ने कहा कि अहंकार इस महान संस्था को नष्ट कर रहा है और बार का यह कर्तव्य है कि वह इसकी रक्षा करे। उन्होंने कहा कि आजकल न्यायालय को उचित ढंग से संबोधित नहीं किया जाता। यहां तक उस पर हमला बोला जाता है। यह सही नहीं है और इससे बचने की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि मामले में बहस के दौरान वकील को किसी के भी बारे में व्यक्तिगत टिप्पणियां करने से बचना चाहिए। मैं बार से जुड़ा रहा हूं और यह कहना चाहता हूं कि बार पीठ की जननी है। मैंने न्यायाधीश के तौर पर अपने पूरे करियर में किसी भी वकील के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने की पेशकश नहीं की। अहंकार किसी के लिए भी अच्छा नहीं है, लेकिन कुछ वकील कई मौकों पर इसका प्रदर्शन करते हैं। मेरी बात से किसी को ठेस पहुंची हो तो मैं हाथ जोड़कर माफी मांगता हूं।

दरअसल यह विवाद सितंबर-अक्तूबर 2019 का है। जस्टिस अरुण मिश्रा के भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों को चुनौती देने संबंधी मामले की संविधान पीठ में सुनवाई से अलग हटने की मांग से शुरू हुआ था और वरिष्ट वकील शंकर नारायणन जस्टिस अरुण मिश्रा के हटने की मांग में शामिल थे। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एस रवींद्र भट्ट की संविधान पीठ ने इस मांग को ठुकरा दिया।

कई किसान संगठनों और व्यक्तियों ने मामले की सुनवाई में जस्टिस मिश्रा के शामिल होने पर आपत्ति जताई थी। उनकी दलील थी कि वह पिछले साल फरवरी में शीर्ष अदालत की तरफ से सुनाए गए फैसले में पहले ही अपनी राय रख चुके हैं।

जस्टिस मिश्रा फरवरी 18 में वह फैसला सुनाने वाली पीठ के सदस्य थे, जिसने कहा था कि सरकारी एजेंसियों द्वारा किया गया भूमि अधिग्रहण का मामला अदालत में लंबित होने की वजह से भू स्वामी द्वारा मुआवजे की राशि स्वीकार करने में पांच साल तक का विलंब होने के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। इससे पहले, 2014 में एक अन्य पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि मुआवजा स्वीकार करने में विलंब के आधार पर भूमि अधिग्रहण रद्द किया जा सकता है।

किसानों के कुछ संगठनों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा था कि किसी न्यायाधीश को पक्षपात की किसी भी आशंका को खत्म करना चाहिए, अन्यथा जनता का भरोसा खत्म होगा और सुनवाई से अलग होने का उनका अनुरोध और कुछ नहीं बल्कि संस्थान की ईमानदारी को कायम रखना है।

उन्होंने कहा कि उनकी प्रार्थना का सरोकार अपनी पसंद के व्यक्ति को पीठ में शामिल कराने से दूर-दूर तक नहीं है और ‘वैश्विक सिद्धांत’ हैं जिन्हें यहां लागू किया जाना है। हम सिर्फ इस ओर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। दीवान ने विभिन्न निर्णयों का उल्लेख किया और कहा था कि जब किसी न्यायाधीश के सुनवाई से अलग होने की मांग की जाती है तो उसे अनावश्यक संवेदनशील नहीं होना चाहिए, इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं लेना चाहिए।

सुनवाई से अलग होने से इनकार करते हुए जस्टिस मिश्रा ने कहा था कि पीठ से उनके अलग होने की मांग करने वाली याचिका ‘प्रायोजित’ है। उन्होंने कहा था कि अगर हम इन प्रयासों के आगे झुक गए तो यह इतिहास का सबसे काला अध्याय होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
Published by
जेपी सिंह