किसान आंदोलन के नौ महीने (1): भारत के जनांदोलनों के इतिहास के असाधारण संग्राम की विशेषताएं

26 अगस्त को नौ महीने पूरे कर रहे किसान आंदोलन को किसी परिचय या भूमिका की आवश्यकता नहीं है।  यहां सीधे इसकी कुछ विशेषताओं पर आते हैं।   इस असाधारण किसान आन्दोलन की इन सबसे भी कहीं ज्यादा बुनियादी और दूरगामी छाप छोड़ने वाली विशेषतायें पाँच  हैं।  

पहली  है इस लड़ाई का नीतिगत सवालों पर पूरी तरह से स्पष्ट होना। आम किसान से लेकर नेताओं तक हरेक की जुबान पर एक ही बात है ; खरीद में कारपोरेट, खेती में ठेका और उपज की जमाखोरी कालाबाजारी वाले तीनों कृषि कानूनों और बिजली संबंधी प्रस्तावित क़ानून  की पूरी तरह से वापसी। उनकी पक्की राय है कि ये सिर्फ किसानों का नहीं भारत की जनता का सर्वनाश करने वाले क़ानून हैं और चूँकि जिंदगी और मौत के बीच कोई बीच का रास्ता नहीं होता इसलिए इनकी वापसी के अलावा कोई बीच का रास्ता नहीं है। इसके साथ उनकी मांग है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर निर्धारित करना और उसे कानूनी दर्जा देकर उससे कम पर खरीदना दंडनीय अपराध बनाना। इन मांगों पर उनकी जानकारियां एकदम अपडेटेड हैं जिन्हें वे गजब की सरलता से बताते भी हैं। ध्यान  देने की बात है कि यह माँगें नहीं हैं – ये नवउदारीकरण के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की नकेल पकड़ उसे पीछे लौटाने जैसी बात है।  नीतियों को उलटने और देश की जरूरत के  हिसाब से नीतियां बनवाने की बात है। 

दूसरी यह कि वे असली गुनहगारों को भी भलीभाँति पहचानते हैं इसलिए उनके आंदोलन के निशानों में सिर्फ चिरकुट नेता नहीं हैं।  अडानी के शोरूम और अम्बानी के पेट्रोल पम्प और संस्थान हैं। उन्हें पता है कि राक्षस की जान किस गिद्ध में है।  दिल्ली चलो में भी वे कारपोरेट नियंत्रित मोदी के गोदी मीडिया से बात तक नहीं कर रहे हैं। उसे अपने घेराव के डेरों में आने नहीं दे रहे हैं।  हर आह्वान में देश भर में एक डेढ़ लाख से ज्यादा जगहों पर इस तिकड़ी- मोदी, अडानी, अम्बानी – के पुतले फूंके गए।  आंदोलन के हर आह्वान का निशाना कारपोरेट रहा। यह हालिया दौर के संघर्षों के हिसाब से बहुत नयी और साहसी बात है। 

तीसरी असाधारणता है हुक्मरान भाजपा-आरएसएस जिसे अपना ब्रह्मास्त्र मानती है उस धर्माधारित साम्प्रदायिक विभाजन के मामले में पूरी तरह स्पष्ट होना।  छहों  सीमाओं पर और उनके समर्थन में देश भर में  चलने वाली सभाओं में तकरीबन हर वक्त किसानों की मुश्किलों और इन तीन चार कानूनों पर अपनी बात कहने के साथ ही भाजपा और मोदी के विभाजनकारी एजेंडे का पर्दाफ़ाश जरूर करता है।  उसे समझने की जरूरत पर जोर देता है और सभी धर्मों को मानने वालों से इस साजिश को समझने की अपील करता है। जिन्होंने पहले कभी इन दुष्टों की संगत की थी वे अब बाकायदा माफियां मांगते और भविष्य में ऐसा न करने की कसम खाते घूम रहे हैं।  सिर्फ कहने में ही नहीं बरतने में भी यही सद्भाव और सौहार्द्र नजर आता है।  हिन्दू, मुस्लिम, सिख मिलकर लंगर चलाते हुए साफ़ नजर आते हैं।  इस तरह यह संघर्ष बिना किसी सैध्दांतिक सूत्रीकरण में जाए ही साम्प्रदायिकता के जहर के उतार की दवाई भी दे रहा है और बिना किसी अतिरंजना के कहा जा सकता है कि आज के समय में यह एक बड़ी बात है।  

जन के विभाजन का एक और रूप जातिगत ऊँचनीच की जीवित सलामत बजबजाती कीच  है।  इस आंदोलन ने – कम से कम दिल्ली बॉर्डर्स पर तथा स्थानीय लामबन्दियों में – इसे शिथिल होते हुए देखा है।  आंदोलन के नेताओं के भाषणों में यह मुद्दा बना है।  इस मामले में दिल्ली की सीमाओं पर बसे प्रदेशों के गाँवों की दशा को  देखते हुए यह काफी उल्लेखनीय बात है।  

 
चौथी और सबसे नुमाया खूबी है इसकी जबरदस्त चट्टानी एकता। मंदसौर गोलीकाण्ड के बाद  लगातार संघर्षरत करीब ढाई सौ संगठनों वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) इसकी धुरी है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की अलग अलग किसान यूनियनें और राष्ट्रीय किसान महासंघ इसके साझे मोर्चे में हैं। अलग-अलग विचारधाराओं और नेताओं के आग्रहों के बावजूद इस लड़ाई के मामले में एकजुटता में ज़रा सी भी कसर नहीं है। यह एकता रातों रात नहीं बनी। इसके पीछे जहां कृषि संकट की भयावहता और कार्पोरेटी हिन्दुत्व वाली सरकार की निर्लज्ज नीतियों को तेजी से लागू करने की हठधर्मिता से उपजी वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) परिस्थितियाँ हैं तो वहीं इनके खिलाफ आक्रोश को आकार देने के लिए, सबको जोड़ने की अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी ओर से उसके महासचिव हन्नान मौल्ला  द्वारा धीरज के साथ की गयी कोशिशें हैं और नाशिक से मुम्बई तक किसान सभा के पैदल मार्च और राजस्थान के किसान आन्दोलन से बना असर भी है। ऐसी एकता बनाना कम मुश्किल नहीं है मगर उसे चलाना और बनाये रखना और भी कठिन है।  इन 200 दिनों ने इन सारी मुश्किलों और कठिनाईयों को आसानी के साथ निबाहते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब एकाध दो के इधर उधर विचलन के बाद भी किसान नहीं डिगने वाला। 


यही एकता इस आंदोलन के मंच – संयुक्त किसान मोर्चा – के किये आह्वानों के साथ हो रही लामबंदी के रूप में दिखती है।  मेहनतकश संगठनों की ऊपर कही जा चुकी बात अलग भी रख दें तो हाल के दौर में यह पहला मौक़ा था जब 24 विपक्षी दल इकट्ठा होकर भारत बंद के समर्थन में उतरे। 

पाँचवीं विशेषता इसकी राजनीतिक सर्वानुमति है जिसका घोषित एकमात्र उद्देश्य है कारपोरेट परस्त किसान विरोधी मोदी सरकार को हटाना- भाजपा को हराना।पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह अभियान चलाया जा चुका है और मिशन उत्तर प्रदेश – उत्तराखंड के नाम पर इसका आगाज़ 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर से होने वाला है।  तिकड़मों के बादशाहों, थैलियों के भामाशाहों और सीबीआई-ईडी के घोड़ों पर सवार नादिरशाहों की हुकूमत के खिलाफ यह कम बड़ी बात नहीं है।  यही संकल्पबद्धता  है जिसने देश के 19 राजनीतिक पार्टियों को इसकी मांगों के समर्थन में सड़कों पर उतरने की प्रेरणा दी है।  एनडीए में शामिल कई दल भी किसानों के पक्ष में बोलने के लिए मजबूर हुए।

उत्तरकाण्ड 

एक आम सवाल यह पूछा जाता है कि आखिर कब तक चलेगा यह आंदोलन? यह हमदर्दों और शुभाकांक्षियों का प्रश्न है इसलिए इसे संज्ञान में लिया जाना चाहिए। 

पंजाब से शुरू हुए इस आंदोलन का जल्दी ही हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में असरदार हो जाना पुरानी बात हो गयी।  यह स्वाभाविक था।  ये वे इलाके हैं जहां कृषि अपेक्षाकृत विकसित है और तीन चौथाई सरकारी खरीद यहीं से होती है।  किन्तु इस बीच यह देश के बाकी प्रदेशों में भी पहुँच चुका है। जिन प्रदेशों में एमएसपी पर खरीद का सरकारी ढाँचा तकरीबन है ही नहीं – वहां भी इसकी धमक सुनाई दे रही है।  व्यापकता और विस्तार के ये आयाम दिल्ली बॉर्डर पर डटे किसानों की ताकत और हौसला बढ़ाने वाले हैं। 

दूसरी और तीसरी पारस्परिक संबद्ध अहम बातें हैं इस आंदोलन से बना माहौल और इसके नेतृत्व का राजनीतिक हस्तक्षेप का महत्त्व समझना, बेझिझक उसे करना। जो किसानों की मांगों और आंदोलन से सहमत नहीं हैं उनका भी मानना है कि इस संघर्ष ने देश के 90 फीसदी किसानों के मन में यह बात बैठा दी है कि ये क़ानून उसके खिलाफ है और यह भी कि नरेंद्र मोदी किसान विरोधी हैं। हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों और उसके थोड़े से पहले हुए पंजाब, उत्तर प्रदेश और केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा  का सूपड़ा साफ़ होना इस आंदोलन से बने प्रभाव का नतीजा है।  संयुक्त किसान मोर्चे द्वारा अगले वर्ष होने वाले चुनावों के मद्देनजर “मिशन उत्तर प्रदेश – उत्तराखण्ड” का ऐलान किया जा चुका है।  अब बात निकल ही चुकी है तो उसका दूर तक जाना तय है।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय सचिव हैं।)  

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