लद्दाख में मोदीः खोल से बाहर नहीं निकलने की जिद

लोगोें का यह पूछना लाजिमी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी लद्दाख यात्रा से क्या संदेश दिया है? वह ऐेसे समय में लद्दाख गए हैं जब चीन के साथ सीमा पर जारी तनाव को खत्म करने के लिए कमांडर स्तरों पर चल रही बातचीत फेल हो  चुकी है और चीन से रिश्ते खत्म करने के कई संकेत भारत दे चुका है। चीन के 59 ऐप पर प्रतिबंध लगाने का कदम इनमें से एक है। इसके अलावा रेलवे के एक सरकारी ठेके को रद्द करने जैसे कुछ और कदम उठाए गए हैं। कमोबेश, इन सांकेतिक कदमों के बीच तनाव-ग्रस्त सीमा पर उनका जाना एक ऐसी पहल के रूप में आना था कि लगता कि अगर चीन भारतीय क्षेत्र से बाहर नहीं गया तो भारत उससे दो-दो हाथ करके ही रहेगा। अगर पहले घोषित कार्यक्रम के अनुसार रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह वहां जाते तो लोग इसका बहुत ज्यादा अर्थ नहीं निकालते। लेकिन प्रधानमंत्री के जाने के बाद यह चर्चा होनी ही थी कि उनके इस कदम के क्या मायने हैं। 

लेकिन प्रधानमंत्री ने इस यात्रा के जरिए 20 जवानों की शहादत पर सख्त कदम उठाने की भारत की मंशा जताने के बदले एक ऐसा संकेत दिया है जो धुंधला है। वह यही दिखलाता है कि भारत अभी तय नहीं कर पाया है कि उसे क्या करना है। अगर मोदी सख्त कदम उठाने के पहले कुछ और वक्त लेना चाहते थे तो इसमें कोई बुराई नहीं थी। सैन्य कार्रवाई के कदम ऐसे नहीं होते कि जल्द बाजी में उठा लिए जाएं। लेकिन अगर वक्त लेने का उनका यह तरीका था तो इसे सही नहीं माना जा सकता है। 

चीन को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के अस्पष्ट रवैए के पीछे के कारण समझना मुश्किल नहीं है। ये उनकी राजनीतिक शैली और उनकी विचारधारा से ही उपजे हैं। ऊपर से भले ही वह चीन से अच्छे संबंधों की नेहरू के जमाने से चली आ रही नीतियों पर  चलता दिखाई दे रहे हैं, लेकिन वास्तव में यह दूसरी सोच का परिणाम है। यह आरएसएस और भाजपा की पाकिस्तान तथा अन्य मुस्लिम देशों के खिलाफ एकजुट होने की नीति है। इसलिए गलवान की घाटी में 20 जवानों की शहादत के बावजूद प्रधानमंत्री तथा भारत सरकार की भाषा में कोई कठोरता नहीं दिख रही है। लोगों ने सही याद दिलाया है कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी ने बेहद फिल्मी अंदाज में  पाकिस्तान को घुस कर मारने की धमकी दी थी। बीस जवानोें की शहादत के बाद चीन ने कोई अफसोस जाहिर नहीं किया और उलटे इस कार्रवाई के लिए कथित रूप से जिम्मेदार भारतीय सेना के अफसरों को दंड देने की मांग रख दी।

उसने गलवान घाटी पर अपना दावा भी ठोंक दिया। जाहिर है कि 15 जून की घटना के पहले सीमा पर तैनात कमांडरों के बीच वास्तविक नियंत्रण से दोनों सेनाओं के पीछे हटने को लेकर जो सहमति हुई थी उस पर अमल करने का चीन का कोई इरादा नहीं था और आगे भी नहीं है। भारत के बीस जवानोें ने इसे लागू कराने के लिए अपनी जान दी। इसे याद रखने के बदले मोदी ने ऐसी बात कही जो चीन को खुश करने वाला और देश के नागरिकों में निराशा पैदा करने वाला है। उन्होंने कह दिया कि चीन भारतीय सीमा में न घुसा था और न घुसा हुआ है। उन्होंने अभी तक चीन का नाम लेकर उसे अपनी हरकतों से बाज आने के लिए कोई सीधी चेतावनी नहीं दी है। लद्दाख जाकर भी नहीं दी। यह भारत सरकार के विदेश विभाग की उस नीति के विपरीत है जो लगातार चीनी सेना को अपने स्थानों पर वापस जाने के लिए कह रही है। 

 लद्दाख में मोदी के भाषण पर आई प्रतिक्रियाओं में गहराई का अभाव नजर आता है। विपक्ष सिर्फ इस पर जोर दे रहा है कि उन्होंने चीन का नाम नहीं लिया और उन्होंने साफ-साफ कोई संकेत नहीं दिया। अगर मोदी के भाषण को ठीक से देखें तो पता चल जाता है कि वह कहना क्या चाहते हैं। उनका भाषण उनके हर भाषण की तरह मूलतः अपने देश की राजनीति से संबंधित है और हिंदुत्व की विचारधारा से प्रेरित है। असल में, इस बड़े संकट के समय भी देश के सभी समुदायों को साथ लेने का कोई भाव इसमें दिखाई नहीं देता। उन्होंने इशारों इशारों में लद्दाख के लोगों को राष्ट्रभक्त और कश्मीर घाटी को अलगाववादी करार दे दिया।

उन्होंने भारत पर विदेशी हमलावरों के लगातार हमले का जिक्र किया जो संघ की पाठशाला में बुनी गई कहानी का पाठ है। इस कहानी का खलनायक मुसलमान है। हिंदुत्व की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए ही उन्होंने बांसुरी वाले कृष्ण तथा सुदर्शनधारी कृष्ण का जिक्र किया। अगर उन्होंने लद्दाख के लोगों को कुषक बकुला के जरिए संबोधित किया तो देश के  बहुसंख्यक समुदाय को श्रीकृष्ण के प्रतीक के जरिए। वह देश की सीमा पर आए इस संकट के समय भी उन्हीं प्रतीकों के इस्तेमाल में लगे हैं जो उन्हें नागरिकता कानून तथा सांप्रदायिक विभाजन के अन्य कार्यक्रमों पर आगे बढ़ने में मदद करता है। 

उनके भाषण से ही एक और बात स्पष्ट होती है कि वह अभी भी अर्थ को ही अपना औजार मान रहे र्हैं। विेकासवाद बनाम विस्तारवाद के विमर्श को सामने लाने का मतलब है कि उन्हें लग रहा है कि अपने आर्थिक हितोें को ध्यान में रख कर चीन नरम पड़ जाएगा। सच पूछा जाए तो 20 जवानों के शहीद हो जाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा के उल्लंघन के बाद जिस तरह के कड़े आर्थिक उपायोें  की उम्मीद की जा रही थी, वे अभी तक नहीं उठाए गए हैं। अकेले  गुजरात में हजारों करोड़ के चीनी निवेश हैं। उस पर चुप्पी बनी हुई है। ऐपों पर प्रतिबंध भी सांकेतिक ही है।

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी को उम्मीद बनी हुई है कि आर्थिक लाभ के लिए चीन नरम रूख अपनाएगा। क्या वह सही सोच रहे हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति का कोई भी छात्र बताएगा कि इस क्षेत्र के संसाधनों और इसके सामरिक महत्व के सामने चीन के लिए भारत के साथ व्यापार कोई मायने नहीं रखता है। चीन के हिसाब से विश्व और एशिया में दबदबे के लिए भी भारत के महत्व को कम करना जरूरी है। प्रधानमंत्री मोदी हिंदुत्व और भूमंडलीकरण को साथ लिए राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। 

नीतियों के अलावा लद्दाख में भी उनका व्यक्तिवाद उनसे अलग नहीं हुआ। सीमा पर संकट तथा कोरोना महामारी उन्हें नाटकीयता और खुद की छवि बनाने के मोह से उबरने का मौका दे रही है, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हैं। वह गंभीर से गंभीर काम को एक प्रचार-कार्यक्रम में बदलने के लालच को छोड़ नहीं पाते हैं। सीमा पर प्रधानमंत्री नेहरू के जाने वाले वीडियो भी सोशल मीडिया में दिखाई दे रहे हैं। उसमें सबसे पहले जिस पर नजर जाती है वह है एक टीम के अगुआ के रूप में नेहरू की मौजूदगी। उनके साथ प्रतिरक्षा मंत्री से लेकर दूसरे अधिकारी तक दिखाई देते हैं। यहां अकेला नायक पूरी दुनिया से लड़ने का दंभ पाले दिखाई देता है। संकुचित विचारधारा और अपनी बनाई छवि से बाहर आए बगैर प्रधानमंत्री मोदी उन जिम्मेदारियों को नहीं निभा सकते जिसकी उम्मीद उनसे की जा रही है।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

अनिल सिन्हा
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