ख्वाबों के परवान चढ़ने से पहले ही धराशायी हो गए सचिन

एक कहावत है –

“उसी के साहिल, उसी के कगारे,

तलातुम में फंस कर जो दो हाथ मारे”

कांग्रेस की नैया भीषण मंझधार में हिचकोले खा रही है और इस बुरे दौर में जिन युवाओं की तरफ आस भरी निगाहों से पार्टी देख रही है वो युवा इस तूफान में दो हाथ मारने के बजाय कश्ती से छलांग मारकर भाग जाना चाहते हैं। लेकिन क्या वाकई ये नेता इस तरह खुद को या अपने दल को राजनैतिक झंझावात से बचा रहे हैं ? क्या वाकई कांग्रेस की डगमगाती कश्ती से छलांग लगा लेने से उनका राजनीतिक जीवन आबाद हो रहा है?

मेरे ख़्याल राजनैतिक चक्रवाती तूफान के बीच घिर चुकी, डगमगाती, हिचकोले खाती कांग्रेस की कश्ती के साथ लहरों के थपेड़ों से लड़ने की बजाय कश्ती से कूदना राजनैतिक आत्महत्या है। जिन फासीवादी शक्तियों के खिलाफ सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया सरीखे युवा नेताओं के राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है, जिस विचारधारा के ख़िलाफ़ राजनैतिक जीवन समृद्ध होता है आज उन्हीं शक्तियों के इशारों पर अपने सिद्धांतों और विचारधारा की बलि चढ़ाना उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं, बल्कि आत्महत्या है।

कहा जाता है-

युवा वो है जो संघर्ष करता है, जिसमें परिस्थितियों से लड़ने-जूझने का हौसला होता है, जिसकी आँखों मे क्रांति की ज्योति झलकती है। जिसने कहा- “तूफान बड़ा है ” वह युवा नहीं हो सकता। जो तूफान को भयंकर और प्रलयकारी मानकर खुद को लहरों के हवाले कर देता है वो केवल डूबता है, यही उसकी नियति होती है। 

तूफान भयंकर है, प्रलयकारी है, डुबोने पर आतुर है ….लेकिन जो इस तूफान में दो हाथ मारने की कुव्वत रखता है वही युवा है। फिर तूफान उसे उठा लेता है, उसका साथी बन जाता है उसे साहिल या किनारे तक पहुंचा देता है।

एक  कुशल राजनेता की सफलता की भी यही कसौटी है कि जब स्थितियां प्रतिकूल हों, जब पार्टी मुसीबत में हो तो वो समर्पण करने के बजाय आगे बढ़कर मोर्चा सम्भालता है, परिस्थितियों से मुकाबला करता है और उस समस्या से न केवल खुद को बल्कि अपने दल को भी उबारता है।

जरा सोचिए –

2003 में एक युवा देश की गौरवशाली कांग्रेस पार्टी में शामिल होता है, 2004 में 26 साल की उम्र में सांसद बन जाता है, 32 साल की उम्र में केन्द्रीय मंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो जाता है, 36 साल की उम्र में एक बड़े प्रदेश का अध्यक्ष बनाया जाता है, 40 साल की उम्र में उपमुख्यमंत्री बन बैठता हैं, पार्टी आपको भविष्य का मुख्यमंत्री मानती है…… इतना सब कुछ होने के बाद भी आपकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा आपके विचारों, सिद्धांतों और पार्टी के दलीय अनुशासन को मानने से इंकार कर देती है, उसका परित्याग कर देती है ……ऐसे में इसे महत्वाकांक्षी होना कहा जाए या स्वार्थी, पदलोलुप, सिद्धान्तविहीन कहा जाए ?

मसला बड़ा साफ है।

आज सचिन पायलट जहाँ खड़े होकर देश की सबसे पुरानी गौरवशाली विरासत वाली पार्टी को झुकाने तक की स्थिति में खुद को पाते हैं …. ये काबिलियत क्या केवल सिर्फ उनकी नैसर्गिक राजनैतिक प्रतिभा और कौशल का नतीजा है ? क्या इसमें दल की विचारधारा, सिद्धांत, दल के साथ और सहयोग का कोई योगदान नहीं है ? 

विरोधाभास हो सकता है, पार्टी के अंदर भी वैचारिक द्वंद्व लोकतांत्रिक होने का सबूत होता है लेकिन क्या सचिन पायलट ने जो किया वो एक वैचारिक-सैद्धांतिक द्वंद्व है ?

मेरे ख्याल से बिल्कुल नहीं ….. 

यहाँ विचार या सिद्धान्त की लड़ाई दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। यहाँ केवल पद और पावर की लड़ाई है। कांग्रेस ने सचिन पायलट को  सम्मान दिया, बड़ा ओहदा प्रदान किया, प्रदेश के अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री के रूप में शक्तियाँ प्रदान की। फिर भी पदलोलुपता और स्वार्थ की नैतिक सीमाओं से बाहर निकल कर दलीय अनुशासन को तोड़ना, पार्टी को कमजोर करना कहीं से भी जायज नहीं कहा जा सकता है।

दूसरी बात कि अगर ये मान भी लिया जाए कि सचिन पायलट के बदले तेवर केवल पद और पावर की लालसा में नहीं हैं तो भी ये कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि सचिन पायलट बीजेपी के ‘ऑपरेशन लोटस’ का हिस्सा नहीं हैं।

विगत दो-तीन महीने से चल रहे तमाम सियासी घटनाक्रम साफ तौर पर इशारा कर रहे हैं कि सचिन पायलट बीजेपी नेताओं के संपर्क में रहे हैं और गहलोत सरकार का तख्तापलट करने की साजिश रचते रहे हैं। सचिन के मुख्यमंत्री बनने की चाहत कई मौकों पर सामने आए उनके बयानों में झलकता रहा है।

सचिन पायलट ने अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए जिस तरह के सियासी षड्यंत्र के जाल को फैलाया है वो इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि इस युवा नेता के पास न कोई सिद्धान्त है, न विचारधारा और न ही दलीय अनुशासन । 

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने ट्विटर पर सचिन के संदर्भ में एक ट्वीट करते हुए लिखा है कि – 

“सचिन की सबसे बड़ी ख़ामी यह है उनके पास कोई विचारधारा ही नहीं। जबकि गहलोत के पास गांधी की समझ है। वे राजस्थान को आर-पार से समझते हैं। सचिन की राजस्थानी राम-राम सा से आगे नहीं गई। और अंततः जयश्री राम ही बोल बैठे।”

भले ही सचिन पायलट के पिता कांग्रेस के एक कद्दावर नेता रहे हैं लेकिन यह एक बड़ा सच है कि अपने पिता के आकस्मिक निधन के बाद जिस तरह से राजनीति में सचिन की एंट्री हुई है उससे पहले सचिन के पास कोई राजनैतिक अनुभव नहीं रहा है। पंच-सितारा पारिवारिक संस्कृति में पले-बढ़े सचिन के पास सांसद बनने से पहले संगठन के कार्य का भी अनुभव नहीं रहा है। कम उम्र में उम्मीदों से अधिक मिल जाने से उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पंख लग गए जिसके कारण वो राजनीति के मूल मर्यादा का मान-मर्दन करने पर उतारू हो गए।

ओम थानवी ने अपने एक अन्य ट्वीट में लिखा कि –

“सचिन पायलट इतने साल राजस्थान में आते-जाते इतनी बात न समझ सके कि पहली ही बार विधायक बन कर उप-मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख दोनों पद पा लेना मामूली बात नहीं थी। राजस्थानी में कहावत है- ठंडा कर-कर के खाना चाहिए। पर राजस्थानी साफ़ा भर पहन लेने से राजस्थान समझ में कहां आता है? 

मुख्यमंत्री बनने की पदलोलुपता में जिस तरह से उतावलेपन का प्रदर्शन सचिन ने दिखलाया है उससे इस बात की क्या गारंटी की उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पार्टी को भविष्य में फिर इस जगह पर खड़ा नही करेंगी ? इसके बाद उनकी महत्वाकांक्षा और बढ़ गई तो ?

याद कीजिए एक बड़े कद्दावर राजनेता दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा को ….कांग्रेस ने उन्हें उत्तराखंड का मुख्यमंत्री तक बनाया, लेकिन विजय बहुगुणा ने भाजपाई होने में कितना वक्त लगाया ? विजय बहुगुणा की बहन रीता बहुगुणा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में कांग्रेस की अध्यक्ष थीं और वर्तमान में यूपी की भाजपा सरकार में मंत्री हैं। 

अगर इस बात को भी नकार दिया जाए कि सचिन पायलट बीजेपी के संपर्क में हैं तो आने वाला वक्त बहुत जल्द इसका पर्दाफाश कर देगा। अगर सचिन पायलट बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा से दूरी बनाकर आगे बढ़ पाते हैं , प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में आरएसएस की आइडियोलॉजी के सहयोगी नहीं बनते हैं तो ही शायद उनके इस तेवर का मूल्यांकन सहानुभूति के साथ किया जा सके। लेकिन राजस्थान की सियासत की नब्ज़ को जानने वाले राजनैतिक जानकर इस बात को भली-भांति जानते हैं कि यहां तीसरे मोर्चे का प्रयोग कभी सफल नहीं हुआ है। सचिन पायलट जैसा तेज-तर्रार सियासी खिलाड़ी भला इस हकीकत से अनभिज्ञ कैसे हो सकता है? 

अचरज होता है कि सचिन पायलट जैसे युवा नेता इस बात को कैसे भूल जाते हैं कि इस विपरीत और प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस शख्सियत ने कांग्रेस की कमान को संभाल रखी है वो स्वयं इस बात का एक आदर्श उदाहरण है कि राजनीति का मूल मकसद जनता की सेवा करना है केवल बड़े पद पर विराजमान होना नहीं। 

याद कीजिए उस समय को जब कांग्रेस के निर्वाचित सांसदों ने सर्वसम्मति से सोनिया गांधी जी को दल का नेता चुना। प्रधानमंत्री के सिंहासन पर सोनिया गांधी की ताजपोशी होना तय हुआ लेकिन सोनिया गाँधी ने भारतीय लोकतांत्रिक पद्धति के सबसे पावरफुल माने जाने वाले उस पद को ठुकरा दिया जिस पर आसीन होना किसी भी राजनेता का सबसे बड़ा सपना और महत्वाकांक्षा होता है। 

वर्तमान समय मे बीजेपी की ओर से यह भी दुष्प्रचार किया जा रहा है कि सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेता राहुल गांधी के मार्ग का बाधा हैं इसलिए ऐसे नेताओं को किनारे लगाया जा रहा है।

ऐसे प्रोपोगैंडा को हवा देने वाले सियासी शूरमा या दरबारी मीडिया इस बात का जिक्र नहीं करेंगे कि राहुल गांधी ने तमाम अनुरोधों के बावजूद इस बड़े राजनैतिक दल के अध्यक्ष के पद का त्याग कर पार्टी को मजबूत करने के लिए सबसे ज्यादा मेहनत कर रहे हैं। आज जब आरएसएस की आइडियोलॉजी का वाहक राजनैतिक दल बीजेपी सबसे मजबूत स्थिति में है तो ऐसे मुश्किल समय में आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा के खिलाफ संघर्ष की सबसे अगली पंक्ति में सबसे आगे जो शख्स खड़ा है वो निस्संदेह राहुल गाँधी हैं। और क्या ये सच नहीं कि राहुल गांधी के राजनैतिक सफर का अंतिम लक्ष्य या मंजिल प्रधानमंत्री का सिंहासन होता तो इस सिंहासन पर वो पहले भी विराजमान हो सकते थे ?

कम से कम मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के बदले राहुल गांधी को प्रधानमंत्री तो बनाया ही जा सकता था। स्थितियां बहुत हद्द तक अनुकूल थीं, सोनिया गाँधी के हाथों में न केवल कांग्रेस बल्कि यूपीए गठबंधन की भी बागडोर थी, सत्ता में रहकर दल के अंदर भी अंतर्कलह की संभावना न के बराबर थी। लेकिन सोनिया गाँधी ने राहुल को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपने के बदले एक पुराने और कुशल राजनेता मनमोहन सिंह को इसके लिए आगे किया।

एक सफल और कुशल राजनेता का न प्रथम न अंतिम लक्ष्य पद की प्राप्ति होता है  उसका एकमात्र लक्ष्य लोकतंत्र के विधाता (जनता) की सेवा करना होता है। ऐसे राजनेता को पद या ओहदे की प्राप्ति तो जनता के आशीर्वाद और दलीय निष्ठा से स्वतः मिल जाते हैं।

(दया नन्द शिक्षाविद होने के साथ स्वतंत्र लेखक हैं।)

दया नंद
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