जावेद नकवी का लेख: इजराइल की वेदी पर एक विश्व का बलिदान

राजनीति के पर्यवेक्षकों से यह बात छुपी नहीं है कि इज़राइल के आधुनिक राज्य को 1948 में ‘फाइव आइज अलायन्स’ द्वारा बनाया गया था, जिसने फिर हमास को जन्म दिया ताकि पीएलओ जैसे सेक्युलर और गैर-साम्प्रदायिक संगठन को मात दी जा सके। इन दोनों ही परिघटनाओं के पीछे उद्देश्य अरब जगत के तेल के भंडारों के इर्द गिर्द उभरते वामपंथी उत्साह के खतरे को ख़त्म करना था।

आर्थर बाल्फोर के रॉथ्सचाइल्ड को भेजे गए पत्र, जिसने भविष्य के इज़राइली राज्य की ज़मीन तैयार की थी, का 2 नवंबर, 1917 को ड्राफ्ट होना और भेजा जाना महत्वहीन नहीं था। दूसरे शब्दों में कहें तो, ये प्रस्ताव बोल्शेविक क्रांति की वजह से यूरोपीय राजधानियों में खतरे की घंटी बजने के बाद भेजा गया था।

इन उद्देश्यों के मद्देनज़र एक ज़रूरी उपकरण बाल्फोर घोषणा से एक साल पहले ही आया था। 1916 के गुप्त साइक्स-पिकॉट समझौते ने मध्यपूर्व में स्थित ओटोमन साम्राज्य के इलाके को विभाजित कर दिया जो अब फ्रांस और ब्रिटेन का प्रभाव क्षेत्र बन चुका था। इसी समझौते ने लार्ड बाल्फोर को यहूदी अभिजात वर्ग के लिए अपने वादे के मसौदे को तैयार करने की ज़मीन दी।

इंग्लैंड के युद्ध प्रयासों को मिल रहे रॉथ्सचाइल्ड का समर्थन, नेपोलियन के विरुद्ध अभियान के दौरान अपने चरम बिंदु तक पहुंच चुका था। 1813-1815 तक नाथन मेयर रॉथ्सचाइल्ड लगभग अकेले ही पूरे ब्रिटिश युद्ध के वित्तपोषण का काम करते रहे, जिसमें ड्यूक ऑफ़ वेलिंग्टन की सेनाओं को पूरे यूरोप में वित्तीय संसाधन पहुंचाना शामिल था।

रॉथ्सचाइल्ड ने ही ब्रिटिशर्स के सहयोगियों की वित्तीय सब्सिडी के भुगतान की भी व्यवस्था की। कहा जाता है कि सिर्फ 1815 में ही रॉथ्सचाइल्ड ने 9.8 मिलियन पौंड (आज के एक अरब पौंड के बराबर) के बराबर की सब्सिडी ऋण के रूप में ब्रिटिश सहयोगियों को मुहैया करवाई।

रॉथ्सचाइल्ड को लिखे बाल्फोर के पत्र में, हालांकि, बात फलिस्तीन में यहूदियों के लिए सिर्फ एक “राष्ट्रीय गृह” की हुई थी, “इस स्पष्ट समझ के साथ कि ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाया जायेगा जो फलिस्तीन में रह रहे गैर-यहूदी समुदायों के नागरिक या धार्मिक अधिकारों, या किसी भी अन्य देश में रह रहे यहूदियों को मिली राजनितिक स्थिति या उनके अधिकारों का हनन करता हो।” गैर यहूदी लोगों के फलिस्तीन से निष्कासन की बात तो दूर इसमें किसी भी ऐसे धर्मशासित राज्य का भी उल्लेख नहीं था जिसमें सिर्फ यहूदी समुदाय बस्ता हो।

किसी भी स्थिति में इज़रायल बेंजामिन नेतन्याहू और उनके साथियों की कल्पना के अर्थों में एक धर्मशासित राज्य नहीं हो सकता था। यह विचार अंग्रेजी तबकों में कोई उत्सुकता पैदा नहीं करता था, जो शुरू से ही एक बहुसांस्कृतिक परिवेश के पक्षधर थे, जो एक दिन ऋषि सुनक या बराक ओबामा जैसे लोगों को जन्म देता और उनके ड्राइंग रूम्स तक उन्हें लेकर आता।

हालांकि, धार्मिक जिन्न को कभी भी पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया गया था। दूसरा गाल आगे करने की ईसाई परंपरा का मतलब पुराने नियम, ईट का जवाब पत्थर से देने को चुनौती देना था। लेकिन वास्तविक दुनिया में इसे कभी लोकप्रियता नहीं मिली।

यूरोपीय युद्धों, औपनिवेशिक शस्त्रागारों और पश्चिम के अंतहीन मलयुद्धों ने इसी उदासीन सच्चाई को एक बार फिर स्थापित कर दिया था, दास व्यापार के बारे में तो बात न ही की जाये, जो उन्होंने दूसरों की भूमि पर कब्ज़ा करने के लिए किया था। औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धियों ने दुनिया भर में चर्च बनाए लेकिन चोरी और हत्या के खिलाफ निषेधाज्ञा को नजरअंदाज कर दिया। रवांडा नरसंहार दो जनजातियों के बीच हुआ था और दोनों अपने औपनिवेशिक आकाओं द्वारा स्थापित एक ही चर्च में गए थे।

लेकिन, भारत में कुछ हिंदू कार्यकर्ता ईसाई-यहूदी-मुस्लिमों की अपने धर्मों के पाठ और भावना के बारे में निषेधाज्ञा के विपरीत थे। गांधी ईसाई अंदाज़ में एक शान्तिवादी थे, और इतने कि नागरिक अधिकार नेता और ईसाई उपदेशक मार्टिन लूथर किंग, उन्हें अपना प्रेरणास्रोत समझते थे।

वहीं दूसरी तरफ, यह हिंदुत्व की अवधारणा थी, जिसने 1939 में ही भारत में मुसलामानों और इसाइयों के साथ वह करने का प्रस्ताव रखा जो हिटलर यहूदियों के साथ जर्मनी में कर रहा था। हिटलर की अपनी प्रशंसा में, गोलवलकर उतने ही कम्युनिज्म विरोधी थे जितने मोदी जल्दी ही बनने वाले थे। हिंदुत्व के लिए यहुदियों के उपहास को पलट कर इज़राइल के समर्थन में उतरने के पीछे कम्युनिज्म विरोध एक स्पष्ट कारण बन गया। मुसलमानों के प्रति नफरत ने तो केवल इनके आपसी संबंधों को मजबूत किया।

ये भी विलक्षणात्मक है कि, 16 दिसंबर, 2001 को संसद में हुए हमले से ठीक एक दिन पहले इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख छपा था।

वाजपेयी के धड़े के एक पूर्व हिंदुत्व समर्थक और पत्रकार-राजनेता मुस्लिम चरमपंथियों और भारतीय मार्क्सवादियों, जिन्हें वे आतंकवादी घोषित करते थे, के बीच की मिलीभगत, से निबटने की सलाहें देते थे। (बीबीसी एक प्रोटोकॉल को फॉलो करता है जो यह बताता है कि क्यों मीडिया को हमास और अन्य उल्लंघनकर्ताओं को जिनमें यहूदी, मुस्लिम, ईसाई, हिन्दू या नक्सली शामिल हैं, आतंकवादी के तौर पर नहीं पेश करना चाहिए।)

यही पत्रकार-नेता ईंट का जवाब पत्थर से देने की बात करते थे, जिसमें वे बाइबिल की उक्ति का ही पालन कर रहे थे, जो अन्यथा उनका दृष्टिकोण त्याग देता था। उनके आलोचकों के लिए यह राहत की बात है कि वे बाद में प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति के विरोधी के तौर पर उभरे।

धार्मिक रूप से प्रेरित हमास के खिलाफ बदला लेने के लिए इजरायल की रक्तपिपासु कोशिश- अगर इससे 9/11 के बाद अफगानिस्तान में अमेरिका को कभी मदद मिली- पश्चिम की आंख के बदले आंख की उक्ति से अलग नहीं है। इसका उपयोग पश्चिम द्वारा सदियों से यहूदियों का उपहास करने और उनकी हत्या करने के अपने अपराध बोध को दूर करने के लिए बनाई गई इकाई की वेदी पर धर्मनिरपेक्ष राज्यों को नष्ट करने के लिए किया गया था।

जैसा कि नोम चॉम्स्की और अन्य हमें लगातार याद दिलाते हैं, हिटलर की हार के बाद अमेरिका या यूरोप में किसी ने भी यहूदियों के पलायन का स्वागत नहीं किया। उन्हें यह काम करने के लिए कहीं और, किसी और की ज़रूरत थी। नॉर्मन फिंकेलस्टीन जैसे सम्मानित यहूदी विद्वान आपको बताएंगे कि होलोकॉस्ट 1967 तक ऐतिहासिक आकाश में अंकित  नहीं हुआ था।

पिछले हफ्ते तक मेरे ज़हन में 1982 की एक घटना का स्पष्ट दृश्य था, जो हमास के उदय और इजराइल के उसमें गुप्त निवेश को जोड़ती थी। तब सऊदी क्राउन प्रिंस फहद, मोरक्को के फ़ेज़ में अरब लीग के लिए अपनी शांति योजना का प्रचार कर रहे थे, जिसके तहत फ़लिस्तीनियों को एक राज्य मिलता।

जिसकी कीमत थी इजराइल की स्वीकृति और उसकी सुरक्षा की गारंटी, जिसे इराक़, सीरिया, लीबिया, दक्षिण यमन ने ठुकरा दिया। और यही वे धर्मनिरपेक्ष और सोवियत यूनियन समर्थक राज्य थे जिनसे शीत युद्ध के बाद एक-एक कर निबटा गया। इज़राइल की वेदी पर और ब्रिटेन द्वारा स्थापित सामंती-जनजातीय क्षत्रप शासकों को उपहार के तौर पर इन्हें व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया गया।

वे कहते हैं कि हमास के हमले ने एक संभावित इज़राइली-सऊदी संधि में बाधा डाल दी। लेकिन सवाल ये है कि ये संधि कब अस्तित्व में नहीं थी?

(जावेद नकवी का लेख, डॉन (Dawn) से साभार।)

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