नेपाल, बांग्लादेश और हमारे देश में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को खतरा

लेख- एल. एस. हरदेनिया

यह सुखद संयोग है कि इस समय हमारे दो पड़ोसी देश सेक्युलर हैं। ये देश हैं नेपाल और बांग्लादेश। एक समय ऐसा था जब हमारा एक भी पड़ोसी देश सेक्युलर नहीं था। उस समय नेपाल में हिन्दू राजशाही का शासन था और बांग्लादेश इस्लामिक आधिपत्य वाले पाकिस्तान का हिस्सा था। दोनों देशों ने अपना राजनीतिक चरित्र क्रांति के माध्यम से बदला।  नेपाल में कम्युनिस्ट क्रांति के माध्यम से राजशाही का तख्ता पलटा गया था और बांग्लादेश ने भी एक क्रांति के माध्यम से इस्लामिक देश पाकिस्तान से अपना नाता तोड़ा। शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में हुई इस क्रांति ने यह साबित किया कि धर्म से ज्यादा भाषा और संस्कृति लोगों को ज्यादा मजबूती से जोड़ती है।

बांग्लादेश की जनता ने एक स्वर में यह घोषित किया था कि उनकी भाषा बांग्ला है और वह इतनी शक्तिशाली भाषा है कि उससे वे अपने देश का शासन चला सकते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि बांग्ला एक बहुत समृद्ध भाषा है। बांग्ला हमारे देश की ऐसी भाषा है जिसने हमारे देश को नोबेल पुरस्कार दिलवाया है। यहां यह स्मरण दिलाना प्रासंगिक होगा कि रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा रचित गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार मिला था।

फिर बांग्ला भाषियों के क्रांतिकारी स्वभाव का भी गौरवशाली इतिहास है। अंग्रेजों ने बांग्ला भाषियों की क्रांतिकारी एकता को कमजोर करने के लिए बंगाल का विभाजन कर दिया था। उसे बंगभंग कहा जाता था। बंगभंग के विरूद्ध एक जबरदस्त आंदोलन हुआ। आंदोलन इतना जोरदार था कि अंग्रेज बहादुर को उसके सामने झुकना पड़ा और बंगाल को पुनः एक करना पड़ा।

पाकिस्तान के शासकों ने बंगाल के नागरिकों का मिजाज नहीं समझा। उन्होंने सोचा कि इस्लाम के सामने बंगाल के इतिहास को घुटने टेकने होंगे। पाकिस्तान के शासकों ने पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू को लादा। इसी दौरान पूर्वी पाकिस्तान (बंगाल) और पश्चिमी पाकिस्तान में एक साथ चुनाव हुए और मुजीबुर रहमान की अवामी लीग को पाकिस्तान के संसद में भारी बहुमत प्राप्त हुआ। इसके बावजूद पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं ने मुजीबुर रहमान की आवामी लीग को सत्ता नहीं सौंपी।

ऐसी स्थिति में मुजीबुर रहमान के सामने विद्रोह करने के अलावा और कोई रास्ता नही था। उन्होंने घोषणा की कि “चूँकि बहुमत मेरे साथ है इसलिये पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का अधिकार मुझे है”। परन्तु प्रधानमंत्री का पद देने के स्थान पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इस मामले में लगभग पूरा बांग्लादेश उनके साथ था।

इस दरम्यान पाकिस्तान की सेना ने बांग्लादेश के नागरिकों पर ज्यादतियां की। पाकिस्तान की फौज का सामना करने के लिए मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में मुक्तिवाहिनी का गठन किया गया। मुक्तिवाहिनी का तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूरा साथ दिया। विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए इंदिरा गांधी ने अनेक देशों की यात्राएं कीं। इस दरम्यान इंदिरा गांधी ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ मित्रता और सहयोग की 20 वर्ष की संधि की। इस संधि के अनुसार सभी क्षेत्रों में दोनों देशों के सहयोग का प्रावधान किया गया था। इस संधि के कारण अमरीका द्वारा बांग्लादेश युद्ध में दखल देने के लिए भेजे गए नौसेना के सातवें बेड़े को बिना कुछ किए वापिस लौटना पड़ा।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी बांग्लादेश की यात्रा के दौरान इंदिरा जी की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि उनकी भूमिका के बारे में सब जानते हैं। परन्तु मैं उनके इस कथन से सहमत नही हूं। सन् 1971 के बाद जिन लोगों ने जन्म हुआ है उन्हें विस्तार से बांग्लादेश के निर्माण में इंदिरा गांधी व भारत की भूमिका के बारे में बताया जाना चाहिये। इंदिरा जी और उनके सक्षम नेतृत्व के बिना बांग्लादेश का निर्माण संभव नही था।

जब पाकिस्तान फौजो ने हार मान ली तो इंदिरा जी ने साहित्यिक भाषा का उपयोग कर घोषणा की थी कि “शीघ्र ही ढाका एक नये देश की राजधानी होगी”। इस तरह इंदिरा गांधी ने अपने पड़ोस में एक धर्म निरपेक्ष लोकतांत्रिक देश को जन्म दिया था। हमारे देश के इस गौरवशाली पृष्ठ को देश के प्रत्येक नागरिक को बताया जाना चाहिये।

यह दुःख की बात है कि नये बांग्लादेश की भूर्ण हत्या का प्रयत्न किया गया था जब मुजीबुर रहमान के रक्षा कर्मियों ने उनकी और उनके परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी। यह घटना उस समय हुई जब इंदिरा गांधी हमारे स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से भाषण दे रहीं थीं।

बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना, जो मुजीबुर रहमान की बेटी हैं, इसलिए बच गयी क्योंकि वे उस समय जर्मनी में थीं। आज उनके प्रयासों से बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष आधारित लोकतंत्र समाज कायम है। परन्तु अभी भी उन्हें गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

बांग्लादेश के अतिरिक्त नेपाल में भी धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र कायम है। वहां भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेकने के प्रयास चल रहे है। नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हुई इस क्रांति के माध्यम से नेपाल की जनता ने अत्यधिक प्रतिक्रियावादी राजशाही को सत्ता से हटाया था।

दुःख की बात है कि नेपाल की इस राजशाही को विश्व हिन्दू परिषद का समर्थन प्राप्त था। विश्व हिन्दू परिषद के सर्वमान्य नेता अशोक सिंघल कहा करते थे “Democracy or no democracy Nepal should Continue to be a Hindu Rashtra”।

नेपाल में राजशाही के विरूद्ध इतना गहरा आक्रोश था कि अंततः उसका तख्ता पलट गया और कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हो गया। परन्तु दुःख की बात है कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई है। यदि पार्टी के भीतर शीघ्र एकता स्थापित नही हुई तो वहां राजशाही पुनः स्थापित हो सकती है।

इसी तरह बांग्लादेश में भी कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतें फिर से सिर उठा रही हैं। नरेन्द्र मोदी की यात्रा के दौरान वहां सरकार विरोधी और नरेन्द्र मोदी विरोधी हिंसा हुई। प्रदर्शनकारियों का सीधे पुलिस से टकराव हुआ जिसमें कई लोग मारे गये।

जहां तक हमारे देश का सवाल है, केन्द्र में ऐसी पार्टी का शासन है जिसने पानी पी-पी कर धर्मनिरपेक्षता को कोसा है,  अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का वातावरण बनाया है, सत्ता में आने के बाद लोकतान्त्रिक परंपराओं को कमजोर करने वाले अनेक कदम उठाए हैं, खरीद-फरोस्त करके चुनी हुई सरकारों को अपदस्थ किया है, संविधान में संशोधन कर राज्य शासन के चरित्र को बदला है, जम्मू-कश्मीर का दर्जा कम किया है, दिल्ली में चुनी हुई सरकार के अधिकारों में कमी की है और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को स्थापित करने की दिशा में अनेक कदम उठाये हैं।

हमारे देश की स्थिति पर चिंता प्रकट करते हुए अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों ने कहा है कि भारत में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। इन परिस्थितियों के चलते इस बात की आवश्यकता है कि तीनों देशों की जनता एक होकर अपने देशों की वर्तमान व्यवस्था की रक्षा करे।

लेख- एल. एस. हरदेनिया

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