शरजील उस्मानी: एक और मुस्लिम छात्र नेता जो फासीवादी ताकतों का शिकार बना

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) का छात्र नेता शरजील उस्मानी अपनी मुस्लिम पहचान के कारण हिंदुत्ववादी फासिस्ट राजनीति का शिकार बना है। वह एक उभरता हुआ युवा नेता है। पढ़ने-लिखने में बड़ा ज़हीन है। सही अर्थों में देश और समाज की धरोहर है। मगर पुलिस उसके उज्जवल भविष्य को जेल की काल कोठरी में क़ैद कर देना चाहती है। 

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश की पुलिस ने शरजील को उसके घर आजमगढ़ से गिरफ्तार किया है। अब कोर्ट ने उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। पुलिस का यह पक्ष है कि शरजील 15 दिसंबर के रोज़ एएमयू कैम्पस में हुई हिंसा में लिप्त था। 

लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि कैंपस के भीतर जो हिंसा हुई उसके लिए छात्र नहीं बल्कि पुलिस ज़िम्मेदार है। उन दिनों एएमयू में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा था जो पूरी तरह से शांतिपूर्ण था। हालत तो तब ख़राब हुए जब पुलिस ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ बल का प्रयोग किया। ऐसी ही कुछ पुलिसिया ज्यादती जामिया मिलिया इस्लामिया में भी देखी गई।

दरअसल शरजील और अन्य मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी के पीछे सांप्रदायिक सोच काम कर रही है, जो यह नहीं चाहती कि मुस्लिम समुदाय के बीच से ऐसा नौजवान आगे जाये जो देश का नेतृत्व कर सके। सांप्रदायिक शक्तियां बार-बार राज्य की मदद से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करती हैं। हिंदुत्व का ‘डिजाइन’ यह है कि देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक को डरा कर रखा जाये। उनको लगता है कि अगर मुसलमान डरे नहीं रहेंगे, तो वो अपने अधिकार के लिए आवाज़ बुलंद करने लगेंगे।

इसके अलावा सांप्रदायिक शासक वर्ग कभी भी मुसलमानों को बराबर का नागरिक मानने को तैयार नहीं रहा है। न ही वह इस बात के लिए तैयार रहा है कि देश के विकास में मुसलमान बराबर के भागीदार बनें। उनके लिए मुसलमान सिर्फ सस्ता श्रम प्रदान करने वाला दोयम दर्जे का नागरिक है। 

जब से हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता के करीब आई हैं, तब से मुसलमानों को हाशिये पर धकेलने की रफ़्तार तेज हो गई है। उनकी चले तो वे मुसलमानों को देश का दूसरे दर्जे का नागरिक बना दें।

आखिर मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादी ताकतों में इतनी नफरत कहाँ से आती है? इस का एक कारण यह है कि हिंदुत्ववादी ताकतों के दिमाग में “श्रेष्ठता” की भावना है। वे समानता और बराबरी के साथ सहज महसूस नहीं करतीं। उनके दिलों में मुसलमानों के प्रति तरह तरह का पूर्वाग्रह भरा हुआ है। उनको लगता है कि मुसलमान इस देश का “वफादार” नहीं है। 

इसी साम्प्रदायिक मानसिकता से ग्रसित हो कर सत्ता वर्ग मुसलमान को नागरिकता कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन का “सरगना” मानता है। इसी मानसिकता की वजह से शांतिपूर्ण प्रदर्शन को हिंसा फ़ैलाने का दोषी करार दिया जाता है। 

मगर सच्चाई यह है कि हिंसा फ़ैलाने वाले वे लोग हैं जो आज़ाद टहल रहे हैं। उन्हें राज्य से सुरक्षा प्राप्त है। पुलिस उनके खिलाफ कोई चार्जशीट दाखिल करने का हिम्मत नहीं कर सकती है। हालाँकि फेसबुक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्क जुकरबर्ग जो कि भारत से हजारों मील दूर बैठे हैं, ने भी खुल कर इशारा किया कि फ़रवरी दिल्ली दंगों के लिए शरजील नहीं बल्कि कोई और ज़िम्मेदार है, जिसे बहुसंख्यक समुदाय का “हीरो” बनाकर पेश किया जा रहा है। 

बीसवीं सदी के लोकप्रिय उर्दू कवि अमीर क़ज़ल बाश ने इस ज़ुल्म के राज को  क्या खूब बयान किया है।

उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़

हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा

शरजील उस्मानी की गिरफ़्तारी का मामला भी वही है जो उर्दू शायर उपर्युक्त पंक्तियों में बयान किया है। चंगेज़ खान, सफूरा ज़रगर (जमानत पर रिहा), गुलफिशां, खालिद सैफ़ी, मीरान हैदर, शिफ़ा-उर-रहमान, डॉ कफ़ील खान; आसिफ इकबाल और शरजील इमाम भी एक खास समुदाय में पैदा होने की वजह से शिकार बने और जेल में बंद हैं।

जो सरकार की ‘हां-में-हां’ नहीं मिलाते और अपनी एक अलग राय रखते हैं उनको भी टारगेट किया गया है। गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे, सुधा भारद्वाज, अखिल गोगोई, नताशा नरवाल, देवांगना कलिता, सोनी सोरी (अब जमानत पर रिहा) और अन्य भी राज्य की ज्यादाती का शिकार बने हैं। 

बढ़ती मुश्किल को देखते हुए लोकतान्त्रिक शक्तियों को साथ आना होगा। चाहे कोई मुसलमान हो या गैर-मुस्लिम, आस्तिक हो या नास्तिक, अगर साझी विरासत, बराबरी और लोकतंत्र में यकीन है, तो ऐसे लोगों को साथ आना ही पड़ेगा। जनता की एकजुटता ही हिंदुत्ववादी ताकतों के नापाक मंसूबे को नाकाम कर सकती है।

आन्दोलन इस बात के लिए होना चाहिए कि यह देश एक विशेष धर्म, जाति या पार्टी की “जागीर” नहीं बन सकता है। भारत सभी का है। कोई भी भारतीय, चाहे वह कोई भी धर्म, जाति, क्षेत्र और लिंग से संबंध रखता हो, कानून के समक्ष बराबर है। 

नफरत और विभाजन की विचारधारा कभी भी देश के महान नेताओं का आदर्श नहीं रही है। सर सैयद की कल्पना में भारत देश “एक नवविवाहित दुल्हन की तरह है जिसकी दो सुंदर आँखें हिंदू और मुसलामान हैं”। 27 अक्टूबर, 1920 को दादर में एक महिला सम्मलेन के दौरान बोलते हुए महात्मा गांधी ने इसी भावना का इज़हार कुछ यूँ किया, “हिंदू और मुसलमान देश की दो आंखों की तरह हैं, उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं होनी चाहिए।”

1940 में आयोजित कांग्रेस की 53वीं सभा में अपना अध्यक्षीय व्याख्यान देते हुए, मौलाना आज़ाद ने भी इसी जज़्बात का इज़हार किया और कहा कि देश में जो कुछ भी है उस पर साझी विरासत की मुहर है। हमारी भाषाएं अलग थीं, लेकिन हम एक आम भाषा का उपयोग करने के लिए बढ़े। इस्लाम का दावा भारत पर उतना ही है जितना हिन्दू धर्म का।

लोकतंत्र के बड़े पैरोकर और वंचित समाज के अधिकारों के लिए पूरी ज़िन्दगी लड़ने वाले बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नजरिये पर ही जोर दिया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है।

साझी विरासत और समानता का हिंदुत्ववादी ताकतें कट्टर विरोधी रही हैं। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भी धोखा दिया। और अब स्वतंत्रता के बाद जनता को जो अधिकार मिले थे, उसे हड़पने के लिए ये ताकतें एक के बाद एक साजिश कर रही हैं। चाहे आज़ादी के पहले की बात हो या आज़ादी के बाद की, हिंदुत्ववादी ताकतों ने हमेशा भारत को धार्मिक संघर्ष की तरफ धकेला है।

अब जब हिंदुत्ववादी ताकतें राज्य पर कब्जा करने में सफल हुई हैं,  तब उनका मुकाबला बड़े जनतांत्रिक आन्दोलन से ही हो सकता है। उनकी मुस्लिम-विरोधी राजनीति, जो देश की हर समस्या के लिए मुसलमानों को ही दोषी मानती है, का इलाज भी संघर्ष है। मुस्लिम युवाओं पर हो रहे हमलों को रोकने के लिए सेक्युलर ताकतों को एक साथ आना होगा।

मुश्किल के इस वक़्त में हमें शरजील उस्मानी और अन्य सभी राजनीतिक कैदियों के साथ अपनी ‘सॉलिडेरिटी’ का इज़हार करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ शरजील की रिहाई की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह देश की साझा संस्कृति, सांप्रदायिक सद्भाव, समानता और लोकतंत्र को बचाने की भी लड़ाई है।

(अभय कुमार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इससे पहले वह ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ काम कर चुके हैं। हाल के दिनों में उन्होंने जेएनयू से पीएचडी (आधुनिक इतिहास) पूरी की है। अपनी राय इन्हें आप debatingissues@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।) 

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