नंदिनी सुंदर का लेख: अकादमिक दुनिया की बड़ी क्षति है उमर खालिद की कैद

भारत में मुसलमानों को, कुछ हद तक आदिवासियों की तरह, हमेशा ‘इंटीग्रेट’ (समाहित) होने और ‘मुख्यधारा’ में शामिल होने के लिए कहा जाता है। मुसलमानों और आदिवासियों के बीच अंतर यह है कि ऐसा माना जाता है कि मुसलमान ‘मुख्यधारा’ में आने के इच्छुक नहीं हैं और आदिवासी इसके लिए सक्षम नहीं हैं। ‘मुख्यधारा’ को लेकर हमेशा यही धारणा रही है कि यह एक उच्च जाति वाली हिंदू नदी है, जिसमें अल्पसंख्यक उपधाराओं का किसी भी तरह का योगदान नहीं है।

वहीं ठीक इसी समय, जब मुसलमान, दलित और आदिवासी बेहिसाब तरीक़े से और बड़े आनुपातिक अंतर के साथ जेलों में भरे जाते हैं और उन्हें ठीक उन अपराधों में जमानत देने से इनकार कर दिया जाता है जिनमें इनके अलावा अपराधियों को आसानी से जमानत मिल जाती है, तो इस बात पर कोई बात नहीं हो पाती कि असल में मुख्यधारा ने उन्हें कैसे बाहर रखा हुआ है।

जब उमर ख़ालिद जैसा मुसलमान सीमाएं लांघता, तो उससे तो और ज़्यादा पेशानी पर बल पड़ता है। एक मुखर युवा मुसलमान व्यक्ति जो टोपी नहीं पहनता, जो नास्तिक है, जिसने सिंहभूम में आदिवासियों पर, इतिहास विषय में जेएनयू से पीएचडी की है। ऐसा व्यक्ति आरएसएस की उस परिकल्पना में एक विसंगति बन जाता है जिसमें दुनिया निश्चित खांचों में बंटी हुई नज़र आए।

ऐसे में उसे उसकी पहचान के केवल एक पहलू तक सीमित करने की कोशिश की जाती है- ताकि वह जो कुछ भी करे या कहे या लिखे, अंत में उसे केवल एक मुसलमान के तौर पर देखा जाए, और उसके मुसलमान होने का विस्तृत मलतब यही हो, एक हिंसक और राष्ट्र विरोधी ऐसा व्यक्ति जो कि ‘भारतीय मुख्यधारा’ के लिए एक ख़तरा है। इतना बड़ा ख़तरा कि वह तीन साल से बिना जमानत के जेल में क़ैद है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के लिए गिरफ्तार किए गए बहुत सारे युवा भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों के मुस्लिम छात्र थे।

कई लोगों ने इस बारे में लिखा है कि उमर के ख़िलाफ़ बनाया गया मामला क़ानूनी लिहाज से कितना कमज़ोर है। दूसरी बेतुकी बातों के अलावा, उन पर एक व्हाट्सएप ग्रुप पर होने और इंकलाबी सलाम जैसे वाक्यांशों का उपयोग करने का आरोप लगाया गया है। उमर के एक ऐसे भाषण को ‘obnoxious’/’नफ़रती’ बताना जिसमें वह नफ़रत के ख़िलाफ़ प्यार को खड़ा करने की बात कर रहा हो, यह विशुद्ध न्यायिक कट्टरता है, जबकि नफ़रती कपिल शर्मा और अनुराग ठाकुर, जिनके नफ़रती भाषणों ने दिल्ली में 2020 में हुए मुसलमानों पर हमले के लिए चिंगारी का काम किया था, आज़ादी साथ घूम रहे हैं और जिन्हें आधिकारिक पदों से भी नवाज़ा गया है।

लेकिन मैं यहां इस सबके बजाय एक इतिहासकार के बतौर उमर पर ध्यान केंद्रित करना चाहती हूं, और उस अकादमिक जगत को हो रहे उस नुक़सान पर जो कि इस मेधावी मस्तिष्क को सलाखों के पीछे रखने से हो रहा है। जब मैंने उमर की थिसिस को पढ़ा तो आदिवासी इतिहास पर गहराई के साथ काम करने वाले एक व्यक्ति के तौर पर मैं वास्तव में महसूस किया कि मैं कुछ नया सीख रही हूं।

लेकिन जब आप इस बात पर ध्यान देते हैं कि यह थिसिस इस छात्र ने किन हालातों में लिखी है, जब कि वह देशद्रोह के आरोप में क़ानूनी लड़ाई लड़ रहा है, कई समय से जेल की सलाखों में क़ैद है, उस पर गोली दागी गई जिसमें उसकी जान बाल-बाल बची है, और उसे मास-मीडिया ने बदनाम कर दिया है और उसके ख़िलाफ़ ऐसा हिस्टीरिया फ़ैला है कि वह आज़ादी के साथ कहीं घूम तक नहीं सकता, ऐसे में यह ना सिर्फ़ एक मेधावी बल्कि एक हीरो की तरह लगने लगता है।

यह तथ्य बताने की अलग से ज़रूरत नहीं है कि थिसिस लिखने के आख़िरी सेमेस्टर में, जब किसी छात्र को यूनिवर्सिटी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, उमर को यूनिवर्सिटी से निष्काषित कर दिया गया था, और थिसिस जमा करने की अनुमति पाने के लिए उसे अदालत में जाना पड़ा। यह विडम्बना है कि जिस न्यायाधीश ने उसे और दूसरे छात्रों को अपनी थिसिस जे.एन.यू. में जमा करने की इजाज़त दी, उसी न्यायाधीश ने बाद में उन्हें जमानत देने से इनक़ार कर दिया। निश्चित रूप से, वह जानता था कि इस युवक ने किन बाधाओं का सामना किया है, ऐसी बाधाएं जो किसी इंसान को धराशायी कर देतीं।

उमर, चुप्पी के साथ सिर झुकाए रखने का एक दूसरा रास्ता भी चुन सकता था, और हाल के दौर में पीएचडी किए दूसरे लोगों की तरह, ख़ुद को पोस्ट डॉक्स या नौकरियों के लिए आवेदन करने में मशगूल कर सकता था। या फिर उनकी तरह कुछ कर सकता था जो लोग मौजूदा सिस्टम में आगे बढ़ने के लिए करते हैं, वह प्रिडेटरी जर्नल्स में छप सकता था। लेकिन उसने ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (एनआरसी) और ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ (सीएए) के ख़िलाफ़, सार्वभौमिक नागरिकता के लिए संघर्ष में अपना दिल और आत्मा लगाकर एक कठिन रास्ता चुना।

सामान्य धारणा के उलट, सीएए ने न केवल मुसलमानों को, बल्कि महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, गरीबों को- उन सभी लोगों को जिनके पास रिकॉर्ड या लिखित वंशावली नहीं है- मताधिकार से वंचित कर दिया होता। लेकिन भारतीय लोकतंत्र को बचाए रखने की कोशिश में इस असाधारण निस्वार्थता के लिए उमर का एकमात्र पुरस्कार जेल की सज़ा है, जो पहले ही तीन अंतहीन वर्षों तक खिंच चुकी है।

इतिहासकार उमर

‘Contesting Claims and Contingencies of Rule: Singhbhum 1800-2000’ शीर्षक वाली उमर की थीसिस आदिवासियों और राज्य के बीच संबंधों की गहरे शोध के साथ एक पड़ताल है और गहरी अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराती है। आदिवासियों की ऐसी दुनिया जिसे भारत के सबसे अलग-थलग, पिछड़े इलाक़ों के तौर पर देखा जाता है, जबकि यहां बेतहाशा खनन होता है।

उमर उस उपलब्ध समझ के विपरीत तर्क रखते हैं जो कि समूचे सजातीय आदिवासी समाज को राज्य के ख़िलाफ़ खड़ा कर देती है, उनका तर्क है कि राज्य ने आदिवासी समाज के भीतर मौजूद दरारों के ज़रिए हस्तक्षेप किया है। अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने की औपनिवेशिक नीति के ज़रिए ‘हो’ समुदाय के भीतर एक विशेष वर्ग को मजबूत करने में मदद की गई। मौजूदा हायरार्की/पदानुक्रमों को मज़बूत किया गया और नई हायरार्की/पदानुक्रम बनाए गए।

उमर की थीसिस, सिंहभूम के एक इलाक़े के तौर पर निर्माण पर विस्तार से नज़र डालती है और उस तरीक़े पर भी कि कैसे मानकी- मुंडा (स्थानीय मुखिया) प्रणाली को औपनिवेशिक प्रशासन की प्रणालियों में शामिल कर लिया गया। वह विश्लेषण करते हैं कि इस प्रणाली ने कृषि योग्य भूमि का विस्तार करने, किराया बढ़ाने और जंगलों के प्रबंधन में कैसे मदद की। इसके बाद वह इस लंबे इतिहास में जयपाल सिंह की आदिवासी महासभा को रखते हैं, यह दिखाते हुए कि कैसे इसने भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए अपवादवाद के औपनिवेशिक विचारों और आदिवासी मतभेदों को एक स्वायत्तता की स्थित के लिए नेगोशिएट करने के लिए अपनाया।

थीसिस में ऐसा कुछ भी नहीं है जो दर्शाता हो कि यह एक ऐसे व्यक्ति की थीसिस है जो खूनी क्रांति में शामिल होने की इच्छा रखता हो। इस थीसिस में जो है वह सब कुछ किसी ऐसे व्यक्ति को दर्शाता है जो कि लोकतंत्र और इसे व्यवहार में लाने की प्रक्रिया से गहराई से जुड़ा हुआ है।

उमर ने अपने जेल अवधि के दौरान ढेर सारी चीज़ें पढ़कर इस सज़ा का सार्थक उपयोग किया है। इस बीच उन्होंने रणजीत गुहा पर एक आबिचुएरी/स्मृति लेख भी लिखा। अगर मैं विशुद्ध रूप से एक अकादमिक के तौर पर बोलूं तो इस युवा को जल्द से जल्द जेल से बाहर आने, सामान्य जीवन जीने और अंततः अपनी थीसिस को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने के लिए समय दिए जाने की ज़रूरत है। उमर की थीसिस का अंतिम पैराग्राफ एक मार्मिक टिप्पणी पर समाप्त होता है:

“मैं ख़ास तौर पर यह देखना चाहता था कि यहां तक कि आदिवासी समुदायों के भी हाशिए पर रहने वाले लोग, अपने समुदायों की विभिन्न प्रमुख संरचनाओं से कैसे जुड़े और उनके साथ नेगोशिएट किया, जबकि वे नई संरचनाओं के निर्माण की प्रक्रिया में थे। लेकिन जैसा कि भाग्य ने चाहा, मेरे क़ाबू से बाहर की वजहों और घटनाओं के कारण, मेरे लिए 2016 के बाद झारखंड वापस यात्रा करना असंभव हो गया। उम्मीद है, भविष्य में किसी उचित समय पर, मैं आमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन की संभावनाओं और सीमाओं की पड़ताल के लिए इस कहानी पर वापस लौटूंगा, जिसका यह विद्रोह वादा करता है।”

हम महज़ यह उम्मीद ही कर सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट इस समय का अगुवा बनेगा, उमर और उन सभी युवाओं को रिहा करेगा, जिन्हें अन्यायपूर्ण तरीके से क़ैद किया गया है, वह भी इसलिए कि वे अपने परिसरों और घरों से बाहर आए और सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए। अदालतें अकादमिक स्वतंत्रता की लड़ाई में बेहद महत्पूर्ण साबित होंगी।

(नंदिनी सुंदर समाजशास्त्री हैं और दिल्ली में रहती हैं। लेख ‘द वायर’ की अंग्रेजी वेबसाइट से साभार लेकर उसका अनुवाद किया गया है।)

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