उत्तर और दक्षिण के बीच पुराना है सांस्कृतिक रिश्ता

यह एक विडंबना है कि हिंदी पट्टी के लोग भारत की संस्कृति और भाषा का दायरा बस उतना ही मानते हैं जहां तक उन भाषाओं का बोलबाला है जिन्हें आर्यभाषा देश कहा जाता है। यानी पंजाब से बंगाल तक और महाराष्ट्र से ओडीसा तक। इस दायरे के बाहर जो भाषाएं और संस्कृति हैं उन्हें हम समान रूप से द्रविड़ भाषाएं कहकर पल्ला झटक लेते हैं। यही उनकी संस्कृति के बारे में हमारी अवधारणा है। हम अभी तक समस्त दक्षिण भारतीयों को मद्रासी बताकर आगे बढ़ जाया करते थे। पर अब जो जानकारी बढ़ी है और आवाजाही के साधन सुगम हो जाने के चलते जो हमारी पहुंच का दायरा बढ़ा है उससे हम यह मानने लगे हैं कि नहीं दक्षिण भारत में कई प्रांत हैं और कई भाषाएं तथा बोलियां हैं। इसी तरह पूर्वोत्तर में भी कई भाषाएं अपना महत्त्व रखती हैं तथा उनकी अपनी अस्मिता व समृद्ध संस्कृति भी है।

भूमंडलीकरण के दौर में एक लिंग्वाफ्रैंका (संपर्क भाषा)का होना अनिवार्य है पर अन्य भारतीय भाषाओं तथा वहां की संस्कृति का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है। हम दक्षिण की परंपरा की बात करते हुए अक्सर भूल जाते हैं कि वहां पर तमिल भाषा तो इतनी समृद्ध और भारतीय समाज की एकता की बात करती है कि उस भाषा परिवार में ईस्वी सन से पूर्व ही तमिल संगम आयोजित हुआ करते थे। जिसमें अन्य भाषाओं का साहित्य और संस्कृति का समावेशीकरण होता था। तमिल भाषा के ये संगम ही हमें भारतीय पुरातन को स्पष्ट करते हैं और जो हमारा अलिखित साहित्य है उसकी जानकारी भी। क्योंकि तमिल संगम सिर्फ तमिल भाषा या साहित्य का नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय भाषाओं का संगम होता था।

तमिल भाषा तो इतनी समृद्ध है कि इस भाषा में अगटिटयम अगस्त्यम नामक एक व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। जिसका रचना काल ईसा पूर्व का है। पाणिनि के अष्टाध्यायी की तरह इसकी उत्पत्ति भी शंकर के डमरू की ध्वनियों से निकली बताई जाती है। एक तरफ से पाणिनि का संस्कृत व्याकरण और दूसरी तरफ से तमिल का व्याकरण। इस मिथक से एक बात का पता तो चलता ही है कि इन दोनों ही भाषाओं का परस्पर संबंध संगम के दौरान हो गया होगा। शिवपूजा का सारा रहस्य दक्षिण के ग्रन्थों में विशद रूप से मिलता है। यानी शिव के बहाने उत्तर व दक्षिण परस्पर निकट आए होंगे। यह भी माना जाता है कि पाण्डय राजा इन तमिल संगम की अध्यक्षता करते थे। कहा जाता है कि प्रथम तमिल संगम मदुरै में हुआ था तो पाण्डय राजाओं की राजधानी थी और उस समय अगस्त्य, शिव, मुरुगवेल आदि विद्वानों ने इसमें हिस्सा लिया था।

इसके बाद जो द्वितीय संगम हुआ उसका केंद्र कपातपुरम में था। माना जाता है कि वह अब समुद्र में समा चुका है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय प्राच्य इतिहास के प्रोफेसर रह चुके डॉक्टर विशुद्धानंद पाठक ने इन तमिल संगम पर विशद अध्ययन किया है और उनके मुताबिक कपातपुरम का संगम ही इतिहास का सबसे बड़ा संगम था और उसमें उत्तर और दक्षिण के विद्वानों ने संगति की थी। पाठक जी लिखते हैं कि इन प्रथम दोनों संगम के बारे में विद्वानों में मतभेद जरूर हों पर उस समय का ग्रन्थ तोल्लकाप्पियम आज भी उपलब्ध है। इसके रचनाकार तोल्लिकाप्पियार थे और उन्होंने दूसरा व्याकरण ग्रन्थ लिखा था। वे ब्राह्मण जाति से थे और उन्हें जमदक्खिनी अर्थात जमदग्नि नामक ब्राह्मण का पुत्र कहा गया है। उन्होंने तमिल भाषा के व्यवहार और शुद्ध व्याकरण पर बहुत जोर दिया।

तमिल संगमों के जरिये भारतीय इतिहास,पुराण और संस्कृति में एकात्म लाने की परंपरा कोई दो संगमों से ही खत्म नहीं हुई बल्कि तीसरे और चौथे संगम की ऐतिहासिकता पर किसी को संदेह नहीं है जो ईसा की पहली और दूसरी शताब्दी में हुईं। इन संगम साहित्य के जरिये ही दक्षिण की समृद्ध साहित्यिक परंपरा का पता चलता है। अधिकतर साहित्यिक रचनाएं इसी काल में हुईं। और तमिल संस्कृति की संपूर्ण जानकारी भी इसी काल के माध्यम से मिलती है। तमिल परंपरा में हर साहित्य तमिल अस्मिता वाले क्षेत्र का अद्भुत वर्णन करता है। खासकर तमिल क्षेत्र का और तमिल संस्कृति का अनिर्वचनीय वर्णन।

तमिल क्षेत्र के पाण्डय राजाओं का इस संगम साहित्य में बहुत योगदान है और मूल रूप से सारा तमिल साहित्य इन्हीं पाण्डय राजाओं के संरक्षण में ही पनपा। पल्लव और पाण्डय राजाओं के बीच हुए परस्पर युद्धों ने तमिल भाषा को उत्तर की संस्कृत भाषा से दूर किया। दरअसल पल्लव राजा संस्कृत को बढ़ावा देते थे तथा वैदिक धर्म के संरक्षक थे जबकि पाण्डय राजाओं के काल में शैव और वैष्णव परंपरा पनपी व तमिल भाषा पर जोर दिया गया। इन दोनों ही राज परिवारों के बीच वैमनस्य भी इसी वजह से बढ़ा।

हालांकि पाण्डय राजा कोई संस्कृत के विरोधी नहीं थे पर वे तमिल का भी बराबर का प्रचार-प्रसार चाहते थे। मगर जैसे-जैसे दोनों राजाओं के बीच प्रतिद्वंदिता बढ़ी उनके अनुयायियों में संकीर्णता पैठने लगी और धीरे-धीरे तमिल भाषा संस्कृत से दूर होती गई। पर बाद के भक्ति काल में नायनार अथवा आल(ड़)वार संतों ने भक्ति परंपरा शुरू की और वे मंदिरों में घूम-घूमकर भक्ति गीत गाने लगे। नीलकांत शास्त्री ने इन नायनार और आलवार संतों का जिक्र अपने शोध में किया है और लिखा है कि ये संत हिंदू पुनर्जागरण के प्रतीक थे। ये पौराणिक परंपरा के संत अत्यंत लोकप्रिय हुए। जनता से इन्हें खूब मान मिला।

आज तमिलनाडु में मंदिर और श्रद्धालुओं की जो समृद्ध परंपरा मिलती है वह इन्हीं संतों के कारण है। ये संत अधिकतर कृष्ण भक्त थे। और इनमें से किसी ने ईश्वर कृष्ण को अपना पिता माना तो किसी ने अपना प्रियतम। और ये बस अपने ईश्वर की आराधना व अर्चना में लगे रहने लगे। सुंदरमूर्ति ऐसे संत थे जिन्होंने शिव को अपना सखा और मित्र माना तथा उनसे अपना बराबर का नाता बनाया। सुंदरमूर्ति के अनुसार जब भी आवश्यक होगा शिव प्रकट होंगे और उनकी रक्षा करेंगे।

भक्ति परंपरा के ये पहले संत थे और इनके बाद ये परंपरा उत्तर में आई जहां पर निर्गुण धारा और सगुण धारा पनपी। इसमें निर्गुनिये संत तो दक्षिण की अवैदिक श्रावक (जैन)परंपरा के चलते बने और सगुण परंपरा के संत इन्हीं दक्षिणात्य संतों की आधुनिक पीढ़ी कही जा सकती है। तिरुत्तक्कदेव नाम के एक जैन संत ने तमिल भाषा में बहुत ही उन्नत ग्रन्थों की रचना की थी। शीवक सिन्दामणि नामक महाकाव्य में उसने श्रृंगार और प्रेम रस में भी लिखा है।

माना जाता है कि वहां पर जैन परंपरा में तमाम रूमानी काव्य रचनाएं की गईं। इसी काल में कम्बन ने रामायण लिखी जो ऐतिहासिक साक्ष्यों का सहारा लेकर लिखी गई। हम बहुत सारी बातों पर उत्तर-दक्षिण करते रहते हैं पर हमारा पुराणेतिहास बताता है कि दक्षिण में उत्तर के देवी देवता कहीं ज्यादा प्रतिष्ठित हैं इसलिए इन दोनों धाराओं को अलग-अलग कर देखना एक तरह का मतिभ्रम है। आज जरूरत है इन दोनों ही परंपराओं को एक करने की और परस्पर तालमेल के जरिये उसी तरह के संगम साहित्य व संस्कृति को पनपाने की।
(शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

शंभूनाथ शुक्ल
Published by
शंभूनाथ शुक्ल