श्रीलंका प्रतिरोध आंदोलनों के उम्मीद का एक केंद्र बनेगा

दो करोड़ बीस लाख की आबादी वाला भारत का पड़ोसी देश, श्रीलंका, वित्तीय और राजनीतिक संकट से जूझ रहा है। प्रदर्शनकारी जनता सरकारी निकम्मेपन के विरोध में सड़कों पर हैं और सरकार के मंत्री सामूहिक इस्तीफ़े दे रहे हैं।

1948 में स्वतंत्रता मिलने के बाद से श्रीलंका, इस वक़्त, सबसे ख़राब आर्थिक स्थिति का सामना कर रहा है। देश में महंगाई के कारण बुनियादी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। खाने- पीने की सामग्री और  ईंधन बाज़ार से गायब है। महीनों तक गुस्सा उबलने के बाद आख़िरकार फट पड़ा, विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए और सरकार की नींव हिला दी। जनता ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आवास पर कब्ज़ा कर उन्हें इस्तीफ़ा देने के वादे के लिए मजबूर कर दिया। राष्ट्रपति ने 13 जुलाई को पद त्याग की घोषणा की है और प्रधामंत्री ने उस समय सत्ता त्याग करने का वादा कर किया है जब भी उनसे कार्यभार लेने की वैकल्पिक व्यवस्था तैयार हो जाए।

श्रीलंका के वर्त्तमान संकट की जड़ें काफी गहरी हैं। यूं तो श्रीलंका सरकार ने वैश्वीकरण के जरिए विकास के मंत्र को 1977 में ही आत्मसात कर लिया था लेकिन उस प्रगति के पथ पर, 1983 में तमिल राष्ट्रीयता के संघर्ष ने, तेज़ गति से चलने में बाधाएं खड़ी की। अंततः 2009 में चरमपंथी उग्र सिंघली – बौद्ध उन्माद को उकसा कर तमिल आन्दोलन का तानाशाहीपूर्ण तरीके से दमन करने के बाद सिंघल राष्ट्रवाद और  बौद्ध धार्मिक कट्टरता की बैसाखी के सहारे एक बार फिर श्रीलंका पुनः विदेशी क़र्ज़ आधारित वैश्वीकरण के द्वारा विकास की राह पर चल पड़ा। इससे श्रीलंका की राष्ट्रीय आय तो बढ़ी (आज श्रीलंका कि प्रति व्यक्ति आय 4000 डॉलर के करीब है जबकि भारत कि प्रति व्यक्ति आय केवल 2300 डॉलर है) लेकिन वैश्वीकरण के पैरोकारों के मंसूबों के अनुरूप श्रीलंका ने अपनी कृषि अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। जो कृषि क्षेत्र 1970/80 में राष्ट्रीय आय का 30 प्रतिशत देता था उसका हिस्सा अब केवल 8 प्रतिशत है। नतीजतन खाद्य पदार्थों का आयात बढ़ने लगा।

इस बीच श्रीलंका ने सेवा क्षेत्र में टूरिज्म आदि को बढ़ावा देने के साथ – साथ भारी मात्रा में विदेशी क़र्ज़ भी लिया, जिसके आधार पर उसने तथाकथित लम्बे समय में नतीजे देने वाले आधारभूत योजनाओं को लागू करना शुरू किया। इन सभी का असर हुआ कि 2018 आते स्थिति काफी ख़राब होने लगी। 2018 में राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने के बाद एक संवैधानिक संकट खड़ा हो गया 2020 के बाद से कोविड-19 महामारी ने प्रकोप दिखाया। अर्थव्यवस्था को संभालने के नाम पर राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने धनियों के करों में कटौती की। लेकिन सरकार के राजस्व में आई कमी से स्थिति में सुधार होने की बजाए और विकट हो गयी। कोविड महामारी के फलस्वरूप उसके टूरिज्म की आमदनी और विदेशों से जो पैसा आता था वह रुक गया। विदेशी बाज़ार में कर्जा मिलना बंद हुआ। विदेशी मुद्रा का संकट खड़ा हो गया। 2021 में सभी रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाने के राजपक्षे सरकार के तुगलकी फरमान ने देश के कृषि क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया और चावल की महत्वपूर्ण फसल में गिरावट आई। देश में खाद्यान्न का समुचित भण्डार का न होना और अन्तर्रष्ट्रीय बाज़ार में रूस यूक्रेन युद्ध के चलते खाद्यान्न कीमतों और इंधन की कीमतों में आई तेज़ी ने वर्तमान संकट को और गहरा कर दिया।

संक्षेप में कहा जाये तो राजपक्षे सरकार कुछ भी कहे वर्तमान संकट के लिए जिम्मेवार राजपक्षे सरकार है जिसने नवउदारवादी नीतियों के साथ वित्तीय कुप्रबंधन के चलते देश को एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा किया है जहाँ श्रीलंका वासियों को काफी कीमत चुकानी पड़ रही है। समस्या इतना विकराल रूप न लेती यदि सरकार ने समय रहते कदम उठाया होता।

कोलंबो में वर्त्तमान विशाल रैली की योजना देशभर धार्मिक नेताओं, राजनीतिक दलों, चिकित्सकों, शिक्षकों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, किसानों और मछुआरों द्वारा राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और प्रधान मंत्री रानिल विक्रमसिंघे के इस्तीफे की मांग और एक सभी पार्टी की सरकार बनाने की मांग को लेकर बनाई गई थी।

जनता की हुंकार सुन श्री लंका के ‘फ़क़ीर’ तो झोला उठा कर फरार हो गए हैं या फरार होने की जुगत में हैं। लेकिन भविष्य में इस जारी जन उभार का नतीजा क्या होगा अभी तय नहीं है। वर्तमान जन उभार मुख्य रूप से स्वतः स्फूर्त ही है। किसी वैकल्पिक राजनीतिक – आर्थिक समझदारी से संचालित किसी संगठन के नेतृत्व में यह आन्दोलन नहीं चल रहा। हो सकता है की सेना के गठजोड़ के साथ कोई विपक्षी पार्टी सरकार बना ले और समाज में खास परिवर्तनों को न अंजाम दिया जा सके।

लेकिन यह तय है कि कोई भी भविष्य में आने वाली सत्ता आमजन की बुनियादी जरूरतों, खास कर के खाद्य सामानों, उर्जा और  एवं इंधन की जरूरतों को नकार करके अपने और अपने प्रिय धनपतियों के लिए   साम्राज्यवादियों द्वारा नियंत्रित आज की  दुनिया में जगह बनाने के एक तरफ़ा  अभियान में नहीं जुट पायेगी। WTO और शोषक वर्गों के टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवियों द्वारा पिलाई जा रही बाजारू अर्थशास्त्र प्रेरित आयात आधारित खाद्य निर्भरता की नीति और विश्व बाजार से स्थानीय कृषि अर्थव्यवस्था को जोड़ देने का षड़यंत्र अब ज्यादा समय तक न चल पायेगा।

समग्रता में वर्त्तमान जन आन्दोलन  एक बेहतर समाज के निर्माण में सहायक होगा। एक विश्लेषक, आजमगढ़ निवासी श्री जय प्रकाश नारायण, ने सही ही कहा है कि श्रीलंका की जनता ने जो कर दिखाया है वह मनुष्यता के लिए सुबह के हवा के झोंके जैसा है.. बर्बर जुल्म और महंगाई- बेरोजगारी के बोझ तले कराह रही श्रीलंका  और अन्य देशों की जनता  कब तक धार्मिकता और राष्ट्रवाद का  झुनझुना बजाती रहेगी। लगता है श्रीलंका परिवर्तन के नए चौराहे पर खड़ा है।  जहां से उम्मीद है कि  श्रीलंका की  जनता के लिए सुनहरा भविष्य दस्तक दे रहा है।

आज जरूरत है कि विश्व की समस्त लोकतांत्रिक ताकतें श्रीलंका की जनता के साथ खड़ीं हों। ताकि श्रीलंका की जनता अपनी इस लड़ाई में विजयी होकर अपने देश के लोकतांत्रिक भविष्य की राह पर आगे बढ़ सके और  विश्व में न्याय आधारित जनवाद के के लिए लड़ रहे नागरिकों के लिए प्रेरणादायी रोशनी बन सके।

(रवींद्र गोयल दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं।)

रवींद्र गोयल
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