भारत में जन इतिहास लेखन

इतिहास को लेकर, वतर्मान में हो रहे बदलाव इतिहासकारों के नजरिए को किस तरह बदल देते हैं यह जानना आवश्यक है। भारत के इतिहास के बारे में जब यह विचार पैदा हुआ कि भारत का जन इतिहास लिखा जाना चाहिए तब इरफ़ान हबीब जैसे जन इतिहासकार ने इस विषय पर सुचिंतित काम शुरू किया। उनका मानना था कि हम इसके जरिए एक नैरेटिव देना चाहते हैं। इसमें उन चीजों को भी रख रहे हैं जिनसे असहमति है। इसका आम तौर से ख्याल रखा है कि एक समग्र दृश्य उभरे। एक आम पाठक को यह जानना जरूरी है कि जन इतिहास और आम इतिहास में क्या फर्क होता है? क्रिस हरमेन का विश्व का जन इतिहास और हावर्ड जिन का अमेरिका का जन इतिहास काफी चर्चित रहे हैं।

सबॉल्टर्न इतिहासकारों को ‘त्रासदियों के प्रसन्न इतिहासकार’ (हैपी हिस्टोरियन) कहा जाता है। सबाल्टर्न अध्ययन औपनिवेशिक कालखण्ड में आभिजात्य, आधिकारिक स्रोत से इतर जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का इतिहास विनिर्मित करने की प्रविधि है। सबाल्टर्न अध्ययन समूह के रूप में बीसवीं सदी के आठवें दशक में दक्षिण एशियाई इतिहास और समाज का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों का एक समूह अकादमिक परिदृश्य पर उपस्थित हुआ, जिसने सबाल्टर्न अध्ययन ग्रंथमाला के अंतर्गत समूहबद्ध होकर इतिहास की एक समांतर वैकल्पिक धारा को विकसित करने का दावा किया। 1982 ई. से 1999 ई. तक दस खण्डों में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित सबाल्टर्न अध्ययन श्रृंखला में औपनिवेशिक भारत के इतिहास को जहाँ विनिर्मित करने का प्रयास किया गया वहीं भारत में राष्ट्र के भीतर एक बड़े समूह के रूप में मुख्यधारा से विवर्जित सबाल्टर्न अस्मिता ने जातीयता की अवधारणा को भी प्रश्नबद्ध किया।

असल में सबॉल्टर्न इतिहासकारों (हाशिए के समुदायों के इतिहासकारों) के अनुसार भारत के पारंपरिक इतिहास लेखन में वर्ग विभेद नहीं दिखता है। उनके यहां सिर्फ औपनिवेशिक अभिजात (एलीट) हैं, औपनिवेशिक शासक, भारतीय शासक वर्ग है और जिनके खिलाफ भारतीय अभिजात खड़े हैं। उत्पीड़ित किसान-मजदूर नहीं हैं।

जब हम इतिहास और समाज को इस तरह देखने लगते हैं तो जनता का पूरा उत्पीड़न गायब हो जाता है, उद्योगों की बरबादी और उनकी संभावनाओं को किस तरह तबाह किया गया वह गायब हो जाता है। बस बचते हैं तो अंग्रेज- जो अत्याचार कर रहे हैं और गरीब, किसान और छोटे जमींदार जो अंग्रेजों के जुल्म के मारे हुए हैं। लेकिन इसमें उस गरीब किसान और जमींदार के बीच के अंतविर्रोध को नहीं देखा जाता। बंगाल में इस इतिहास लेखन धारा की शुरुआत बंगाल के मार्क्सवादी बुद्धिजीवी रणजीत गुहा द्वारा की गयी थी। रणजीत गुहा एक समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। वे चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के क्रांतिकारी विचार से बहुत प्रभावित थे। किसान प्रश्न पर गुहा ने घोषित किया कि, किसान इतिहास की विषय वस्तु नहीं, स्वयं अपने इतिहास के कर्ता हैं। रणजीत गुहा तथा पार्थ चटर्जी जैसे उनके सहयोगियों ने किसानों के विद्रोहों को ‘विशुद्ध चेतना’ से अनुप्राणित माना। इसी ‘विशुद्ध चेतना’ के मुहावरे में उन्होंने किसानों को व्यापक राष्ट्रीय आंदोलनों की मुख्यधारा से अलगाया। स्त्री प्रश्न पर भी सबाल्टर्न इतिहासकार एक मत हैं कि राष्ट्र में स्त्रियों की अपनी एक स्वतंत्र सामुदायिक अस्मिता है। पार्थ चटर्जी ‘राष्ट्र और उसकी महिलाएँ’ में व्यक्त स्थापनाओं द्वारा घोषित करते हैं कि, राष्ट्र के इतिहास के अंतर्गत स्त्रियों का इतिहास लिखा जाना उनके साथ विश्वासघात है।

विपिन चंद्रा के अनुसार जन इतिहास में हम सभी पहलुओं को लेने की कोशिश करते हैं। सबाल्टर्न अध्ययन में लोकवृत्त के माध्यम से इतिहास के अनजाने, अनदेखे सत्य को जानने¬ समझने का प्रयास किया गया। माना गया कि लोकगाथा, लोकगीत और लोकस्मृतियाँ भी पारंपरिक इतिहास लेखन के समानांतर विवर्जित धारा को विकसित करने एवं निम्नजन के कर्म और चेतना तक पहुँचने का एक माध्यम हो सकतीं हैं। सबाल्टर्न दृष्टिकोण ने दक्षिण एशिया के इतिहास में दमित तत्वों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की दिशा में मूल्यवान अनुसंधान किये हैं। इसके एक प्रमुख प्रमाण के तौर पर 1922 के चौरी-चौरा के (कु)ख्यात दंगे के दीर्घकालिक परिणामों में शाहिद अमीन के सतर्क और विचारोत्तेजक शोध को लिया जा सकता है। इस घटना में 22 पुलिस वालों की मौत हुई थी। इसके बाद प्रथम असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर दिया गया था। इस घटना के लिए जिम्मेदार मानकर 19 बलवाइयों को फांसी दे दी गयी थी (सबाल्टर्न स्टडीज 5, 1987 और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1995)। ‘एक घटना जिसे सभी भारतीय, जब राष्ट्र का कीर्तिगान करते हैं, केवल भूलने के लिए याद करने पर विवश होते हैं-’ ये शोध इस घटना को एक उलझी हुई गुत्थी के रुप में सैद्धान्तिक प्रतिनिधित्व के लिए राष्ट्रीय रुपक और अस्तित्ववादी यथार्थ के द्वन्द्व में प्रस्तुत करता है। सबाल्टर्न उपलब्धि में इस शोध का महत्व बना रहेगा।

भारत में राज्य काफी महत्वपूर्ण हुआ करता था। यह सिर्फ शासक वर्ग का संरक्षक ही नहीं था बल्कि वह उसकी विचारधारा का भी संरक्षक था। जाति ऐसी ही विचारधारा है। जाति इसीलिए तो कायम है, चल रही है कि उत्पीड़ितों ने भी उत्पीड़कों की विचारधारा को अपना लिया- उनकी बातें मान लीं। इस तरह की विचारधारा भी वहां महत्वपूर्ण हो जाती है। हमारे यहां औरतों की जिंदगी के बारे में कम सूचना है। हालांकि उनके बारे में हम बहुत कम बातें जानते हैं, उन पर कम लिखा गया। हमारी पुरानी संस्कृति में बहुत सारी खराबियां भी थीं। जन इतिहास इन पर विशेष नजर डालने की कोशिश करता है। भारत का इतिहास लिखना आसान है। थोड़ी मेहनत करनी होती है- और वह तो कहीं भी करनी होती है। सबाल्टर्न इतिहासकारों ने यह धारणा प्रस्तुत की कि औपनिवेशिक दासता से ग्रस्त या उबर चुके राष्ट्र में राष्ट्रवादी इतिहास का लिखा जाना जातीय गौरव का प्रतीक बन जाता है।

राष्ट्रवादी इतिहासकारों द्वारा उपनिवेश विरोधी चेतना के निर्माण हेतु समृद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने का ही प्रयास किया जाता है। इस विचारधारा ने जातीयता और राष्ट्र की मूलभूत अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। इन्होंने समस्त राष्ट्रवादी इतिहास लेखन को अभिजनवादी कहकर अपर्याप्त घोषित कर दिया, साथ ही स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहासकारों के समक्ष चुनौती रखी कि वे औपनिवेशिक भारत और स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास को सबाल्टर्न इतिहास के रूप में अर्थात् उस साधारण जनता के दृष्टिकोण से प्रस्तुत करें जिनकी राष्ट्रीय चेतना और प्रतिरोध का नेतृत्व हमेशा अभिजात प्रभावशाली राष्ट्रीय नेताओं द्वारा किया गया। प्रसिद्ध सबाल्टर्न अध्येता रणजीत गुहा, पार्थ चटर्जी आदि ने भारत में राष्ट्र की अवधारणा को भ्रामक प्रत्यय माना। उनकी यह धारणा बेनेडिक्ट ऐंडरसन की कल्पित समुदाय की अवधारणा से प्रभावित है। पार्थ चटर्जी ने माना है कि भारत का एक अखण्ड इतिहास लिखने की जगह उसके खण्डों, टुकड़ों का इतिहास लिखा जाना चाहिए।

मध्यकालीन भारत के नए ऐतिहासिक स्रोत काफी मिलते हैं। प्राचीन भारत के शिलालेख मिलते हैं, जिनकी डेटिंग बेहतर होती है। इतिहास के मामले में भारत बहुत समृद्ध रहा है। लेकिन यहां बहुत-से शर्मिंदगी भरे रिवाज भी रहे हैं , जैसे दास प्रथा आदि। अब इन सब पर विस्तार से विचार किया जा रहा है। मध्यकाल की तकनीक की बात करें तो अकबर हालांकि नई खोजों में रुचि दिखाता था। उसने उन दिनों वाटर पूलिंग जैसी तकनीक अपनाई थी। शिप कैनाल तकनीक का विकास उसने किया। दरअसल, जहाज बनाने के बाद उसे नदी के जरिए समुद्र में ले जाने में दिक्कत आती थी। लाहौर में जहाज के लिए लकड़ी अच्छी मिलती थी। लेकिन वहां से उसे समुद्र में ले जाना मुश्किल था। तो अकबर ने कहा कि जहाज को जमीन पर मत बनाओ। उसने शिप कैनाल विधि का विकास किया। यह 1592 की बात है। यूरोप में भी इसका इस्तेमाल सौ साल बाद हुआ। पानी ठंडा करने की विधि भी भारत में ही थी, यूरोप में नहीं। पर जो तकनीकी विकास इसके साथ होना चाहिए था वह यूरोप में हुआ और उसका कोई मुकाबला नहीं है।

भारत का जन इतिहास क्या देश के बारे में (भारतीय लोक) नजरिए में कोई बदलाव होने जा रहा है? दरअसल इतिहास लेखन का मकसद नई खोज करना नहीं है। बहुत सारी चीजों पर अक्सर लोगों की नजर नहीं जाती। जैसे तकनीक का मामला है। मध्यकालीन समाज में हमारे देश में कैसी तकनीक थी। तब खेती कैसे होती थी, क्या उपकरण इस्तेमाल होते थे। इन पहलुओं पर ढंग से नहीं लिखा गया है। इसी तरह बौद्ध-जैन परंपराओं पर इतिहास में उतना ध्यान नहीं दिया गया। गुलाम कैसे रहते थे, इसके बारे में भी इतिहास में नहीं लिखा गया। जन इतिहास इन सबको समेट रहा है। इतिहास का अथर्शास्त्र, साहित्य, संस्कृति जैसे दूसरे अनुशासनों के साथ संवाद लगातार बढ़ रहा है। इससे इतिहास लेखन कितना समृद्ध हो रहा है?

अथर्शास्त्र पर कौटिल्य की एक किताब है। अब उस किताब को समझने के कई तरीके हो सकते हैं। हम उसे अपने तरीके से समझते हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा नजरिया ही सही है। गुंजाइश तो रही है हमेशा नए विचारों की। ऐसे नए पहलू हमेशा सामने आते रहेंगे जिन पर नजर नहीं डाली गई और जिन पर काम होना बाकी है। (विपिन चंद्रा)। भारत में पूंजीवादी विकास की बहस अब भी जारी है। मध्यकाल पर और पूंजीवाद में संक्रमण पर भी अध्ययन हो रहा है। गत (बीसवीं) शताब्दी तक देश में पूंजीवाद का विकास क्यों नहीं हो पाया? इसमें बाधक ताकतें कौन सी रहीं? इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। पूंजीवाद का विकास तो पश्चिम यूरोप के कुछ देशों में ही हुआ। चीन, रूस, अफ्रीका और यूरोप के भी बहुत सारे देशों में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया। हम यह नहीं कहते कि सिर्फ भारत में पूंजीवाद का विकास नहीं हो पाया। पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के विकास में अनेक बातों का योगदान था।

वहां तकनीक का विकास हुआ, विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति हुई। उपनिवेशवाद के कारण उन देशों को फायदा पहुंचा- इन सब बातों से वहां पूंजीवाद का विकास हो सका। अब हर मुल्क में तो वैज्ञानिक क्रांति नहीं होती। हर मुल्क में कॉपरनिकस पैदा नहीं होता। हां, लेकिन ऐसे तत्व भारत में तब मौजूद थे, जो देश को पूंजीवाद के विकास की तरफ ले जा सकते थे। बाद में यह हुआ। मध्यकाल के दौरान यहां व्यापार था, लेन-देन था, बैंकिंग व्यवस्था थी, जिसे हुंडी कहते थे, बीमा की व्यवस्था मौजूद थी। लेकिन इनसे व्यापारिक पूंजीवाद ही आ सकता है। इसमें अगर श्रम की बचत करने की व्यवस्था बनती तो पूंजीवाद विकसित हो सकता था। इसके लिए विज्ञान और विचारों में विकास की जरूरत थी- जो यहां नहीं हुई। तकनीक की तरफ भी ध्यान देना चाहिए था। लेकिन यह परिवर्तन हमें बीसवीं सदी के अंतिम दशक में देखने को मिला जब वैश्वीकरण की आंधी चली।

एक इतिहासकार का काम अतीत को देखना होता है। लेकिन क्या वह भविष्य को भी देख सकता है? इतिहासकार भविष्य को नहीं देख सकता। बल्कि कभी- कभी तो इसका उल्टा होता है। जैसे-जैसे इतिहास का तजरबा बढ़ता जाता है, इतिहासकार इसे दूसरी तरह से देखने लगता है। जैसे फ्रांस की क्रांति हुई। वहां किसानों ने 33 प्रतिशत जमींदारों की जमीनें छीन ली। इस पर 19वीं सदी में बहस चलती रही कि यह बहुत बड़ी कार्रवाई थी। हालांकि तब भी 66 प्रतिशत जमींदार बच रहे थे। लेकिन जब रूस में अक्तूबर क्रांति हुई तो वहां सभी जमींदारों की जमीनें छीन ली गईं। इसके आगे देखें तो फ्रांस की क्रांति में 33 प्रतिशत जमींदारों को खत्म करने की घटना कितनी छोटी थी। लेकिन इतिहासकार उसके आगे नहीं देख पाए। वे ये संभावना नहीं देख पाए कि सौ प्रतिशत जमींदारी खत्म की जा सकती है।

जैसे-जैसे मानव का विकास होता है, इतिहास का भी विकास होता है। जैसे अब इतिहास में महिलाओं के आंदोलन या उन पर हुए जुल्मों को देखना शुरू किया गया है। जाति के नजरिए से भी इतिहास को देखा जाने लगा है। पहले मुस्लिम दुनिया को पिछड़ा माना जाता था, लेकिन इतिहास के विकास के साथ यह सिद्ध होता जा रहा है कि मुस्लिम दुनिया भी पीछे नहीं थी। महिलाएं तब भी मेहनत करती थीं, लेकिन उनकी मेहनत का भुगतान नहीं होता था। उनकी आय मर्दों की आय में शामिल हो जाती थी। ये हालात कहीं आज भी दिखते हैं। पहले इन सबके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन अब है। जन इतिहास में इन सब पर विस्तार से लिखा जा रहा है। ये सारी बातें और तथ्य वतर्मान के आंदोलनों से उभर कर सामने आ रहे हैं। इस तरह हम यह देखते हैं कि इतिहास पर वतर्मान का बहुत असर होता है। बहरहाल, सबाल्टर्न अध्ययनों ने भारतीय इतिहास लेखन में विमर्श के स्तर का उन्नयन किया है, इसकी उपलब्धियों की आलोचना भले ही की जाये लेकिन इन्हें नकारा नहीं जा सकता। इसने इतिहास के अनुशासन के भीतर और बाहर तथा भारत में और इसकी सीमाओं के परे अनेक अध्येताओं के अभिमुखीकररण को प्रभावित किया है।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर रहते हैं।)

शैलेंद्र चौहान
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