मेरिट की सामंती अवधारणा के खिलाफ है नीट पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

आज के दौर में मेरिट के नाम पर आरक्षण पर चौतरफा हमला हो रहा है और मेरिट की सामंती व्याख्या की जाती है जिसमें छात्रों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि को जानबूझ कर नज़रअंदाज किया जाता है। ब्राह्मणवादी लोग बड़ी कुशलता से उत्तर आधुनिकतावाद के हथकंडे अपनाते हुए मेरिट को केवल किसी एक पोस्ट और उसके लिए आवेदकों तक सीमित करते हैं। बखूबी इस विशिष्ट पोस्ट और उसके लिए इच्छुक अभ्यर्थियों का समाज में स्थान और समाज के विभिन्न हिस्सों से उसके रिश्ते को अलग कर देते हैं। दरअसल एक साजिश के तहत सामाजिक और आर्थिक रूप से गैरबराबरी से भरे इस समाज को पूर्ण रूप से पेश न करके प्रतियोगिता, प्रतियोगी और मेरिट को अलग-अलग टुकड़ों में पेश किया जाता है। मेरिट को व्यक्ति विशेष तक सीमित कर ऐसा दिखाया जाता है कि जैसे आरक्षण मेरिट का विरोधी है।

हालांकि जातिवाद समाज में सरमायेदार ताकतें और उनके आका आरक्षण का खुला विरोध करते ही रहते हैं जिसके उदाहरण हमें सार्वजानिक मंचों से आरक्षण और दलितों के विरोध में भाषण और आरक्षण के विरोध में आंदोलन की चेतावनी के रूप में नियमित दिखते हैं। ऐसा करने वाले कोई छोटे हशिये पर खड़े लोग नहीं हैं बल्कि समाज और राजनीति की बड़ी हस्तियां यहां तक कि वर्तमान सरकार में मुख्य भूमिका में रहने वाले नेता भी हैं। अब यह तो सबको पता ही है कि मोहन भागवत और उनका आरएसएस समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा करने की मांग के जरिये अपने असली रंग दिखाते रहते हैं। न्याय प्रणाली के एक हिस्से में भी ब्राह्मणवादी सोच के कुछ लोग हैं। फिर भी ब्राह्मणवादी सोच का एक बड़ा वर्ग विशेष तौर पढ़ा लिखा समुदाय अपने आप ही सभ्य दिखाने के चक्कर में जातिगत भेदभाव में प्रत्यक्ष रूप से लिप्त नहीं दिखना चाहता है। इसका यह मतलब नहीं है वह जातिवादी नहीं लेकिन जातीय भेदभाव करने के उसके तरीके बड़े ही परिष्कृत हो गए हैं। मसलन आज अध्यापक कक्षा में छात्रों से सीधे उनकी जाति नहीं पूछता परन्तु उनसे उनका पूरा नाम पूछता है और उनके उपनाम से उनकी जाति का निर्णय करता है। फिर यही शिक्षक जाति के पूर्वाग्रहों से निर्देशित होकर नाना प्रकार से उसके साथ भेदभाव करता है।

ऐसे ही लोगों का मुख्य तर्क मेरिट होता है। इसी तर्ज पर देश में तथाकथित समानता के लिए आंदोलन होते हैं जो जानबूझ कर यांत्रिक समानता (जिसमें केवल अवसरों की समानता की दलील दी जाती) और समाज में उन हिस्सों जिनके साथ सदियों तक अन्याय हुआ है,  के लिए समता में कोई फर्क नहीं करता है।  ऐसे माहौल में मेडिकल प्रवेश परीक्षा ‘राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (National Eligibility cum Entrance Test)’ में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण को चुनौती देने के लिए की गई याचिका पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला एक आशा की किरण पैदा करता है और मेरिट की बुर्जवा परिभाषा को बेनकाव करता है। हालाँकि जनवरी के पहले हफ्ते में ही सर्वोच्च न्यायालय ने नीट में ऑल इंडिया कोटे के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27% आरक्षण को सही ठहराया था। लेकिन 20 जनवरी को सुनवाई करते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और ए एस बोपन्ना की बेंच ने मेरिट की अवधारणा की विस्तार से व्याख्या की जिससे सर्वोच्च न्यायालय में वंचित समुदाय का विश्वास तो बढ़ा ही है पर साथ ही यह देश के संविधान की समानता की अवधारणा को भी बारीकी से स्पष्ट किया है। 

अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘आरक्षण मेरिट के खिलाफ नहीं जाता है’ और मेरिट को संकीर्णता में परिभाषित करने खिलाफ चेताते हुए कहा कि, “मेरिट की परिभाषा संकीर्ण नहीं हो सकती है। मेरिट का मतलब केवल यह नहीं हो सकता कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में किसी ने कैसा प्रदर्शन किया है। प्रतियोगी परीक्षाएं महज औपचारिक तौर पर अवसर की समानता प्रदान करने का काम करती हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं का काम बुनियादी क्षमता को मापना होता है ताकि मौजूद शैक्षणिक संसाधनों का बंटवारा किया जा सके। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रदर्शन से किसी व्यक्ति की उत्कृष्टता, क्षमता और संभावना (एक्सीलेंस, कैपेबिलिटीज और पोटेंशियल) का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। किसी व्यक्ति की उत्कृष्टता, क्षमता और संभावना व्यक्ति के जीवन में मिलने वाले अनुभव, ट्रेनिंग और उसके व्यक्तिगत चरित्र से बनती है। इन सब का आकलन एक प्रतियोगी परीक्षा से संभव नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि खुली प्रतियोगी परीक्षाओं में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक फायदों की माप नहीं हो पाती है, जो किसी खास वर्ग की इन प्रतियोगी परीक्षाओं में मिलने वाली सफलता में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।”

अदालत ने परीक्षा के मेरिट को सामाजिक सन्दर्भ में परिभाषित करते हुए, आरक्षण को मेरिट विरोधी नहीं अपितु समाज में बराबरी कायम करने के साधन के तौर पर चिन्हित किया है। उपरोक्त बात फैसले में इन शब्दों में लिखी गई है, “परीक्षा में किसी भी अभ्यर्थी को मिलने वाले ज्यादा से ज्यादा अंक मेरिट की जगह नहीं ले सकते हैं। मेरिट को सामाजिक संदर्भों में परिभाषित किया जाना चाहिए। मेरिट की अवधारणा को इस तरह से विकसित किया जाना चाहिए जो समानता जैसी सामाजिक मूल्य को बढ़ावा देता हो। समानता जैसा मूल्य जिसे हम एक सामाजिक खूबी के तौर पर महत्व देते हैं। ऐसे में आरक्षण मेरिट के खिलाफ नहीं जाता है, बल्कि समाज में समानता यानी बराबरी को स्थापित करने के औजार के तौर पर काम करता हुआ दिखेगा”।

हमारे देश में आरक्षण को लेकर एक भ्रम को बार बार फैलाया जाता है कि आरक्षण भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(1) में निहित समानता के अधिकार के विपरीत है। देश की शीर्ष अदालत के इस फैसले ने इसे फिर से स्पष्ट किया है कि, ” (भारत के संविधान के) अनुच्छेद 15(4) और 15 (5) अनुच्छेद 15 (1) के अपवाद नहीं हैं, जो स्वयं मौलिक समानता (मौजूदा असमानताओं की मान्यता सहित) के सिद्धांत को निर्धारित करता है। इस प्रकार, अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) वास्तविक समानता के नियम के एक विशेष पहलू का पुनर्कथन बन जाता है जिसे अनुच्छेद 15 (1) में निर्धारित किया गया है। ” इसके मायने यह है कि  अनुच्छेद 15(1) राज्य को केवल धर्म, वर्ग, जाति, लिंग, जन्म, स्थान या इनमें से किसी के आधार पर अपने नागरिकों के साथ भेदभाव करने से रोकता है। लेकिन अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) के जरिए कानून बनाकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को राज्य के जरिए दिया जाने वाला आरक्षण समुदायों के बीच मौजूद भेदभाव को दूर कर समानता स्थापित करने का तरीका है।

इसी विवाद के एक और पहलू को यह फैसला स्पष्ट करता है। जैसा ऊपर कहा गया है कि जातिवादी लोग बड़ी ही सुविधा से कुछ लोगों का उदहारण देकर स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि किसी निश्चित सीट पर आरक्षण का लाभ लेने वाला उम्मीदवार ने जातिगत भेदभाव नहीं देखा और वह पिछड़ा नहीं है। दूसरी तरह यह तर्क भी दिया जाता है कि उच्च जातियों में कुछ व्यक्ति पिछड़े हैं परन्तु उनको आरक्षण रोकता है। इसके आधार पर आरक्षण की पूरी व्यवस्था पर ही सवाल उठाये जाते है। इस पहलू पर टिप्पणी करते हुए फैसले में कहा गया है कि “अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) समूह की पहचान को एक ऐसे तरीके के रूप में नियोजित करते हैं जिसके माध्यम से वास्तविक समानता प्राप्त की जा सकती है। यह एक असंगति का कारण बन सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि जिन समुदायों को आरक्षण दिया जा रहा है, उसके कुछ सदस्य पिछड़े ना हो। इसका उल्टा यह भी मुमकिन है कि जिन समुदायों को आरक्षण नहीं दिया जा रहा है, उसके कुछ सदस्य पिछड़े हो।” अदालत ने स्पष्ट किया है कि लेकिन कुछ सदस्यों के आधार पर समुदायों के भीतर मौजूद संरचनात्मक नाइंसाफी के सुधार के लिए दी जाने वाली आरक्षण की व्यवस्था को खारिज नहीं किया जा सकता है।  

इस पूरी चर्चा को समेटते हुए इस फैसले में शीर्ष अदालत ने व्यक्ति (जिस समुदाय से वह आता है), को सामाजिक पदानुक्रम में उनके स्थान के चलते उसे मिलने वाले लाभ और आभाव से जोड़ा है कि कैसे यह प्रतियोगी परीक्षाओं में उसके परिणामो को प्रभावित करते है। फैसले में कहा गया है कि “उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि जब इस न्यायालय ने मौलिक समानता के सिद्धांत को अनुच्छेद 14 के अधिदेश के रूप में और अनुच्छेद 15(1) और 16(1) के एक पहलू के रूप में मान्यता दे दी है, तो योग्यता और आरक्षण का द्विआधारी अब अनावश्यक हो गया है। एक खुली प्रतियोगी परीक्षा औपचारिक समानता सुनिश्चित कर सकती है जहाँ सभी को भाग लेने का समान अवसर मिले। हालांकि, शैक्षिक सुविधाओं की उपलब्धता और पहुंच में व्यापक असमानताओं के परिणामस्वरूप कुछ वर्ग के लोग वंचित हो जाएंगे जो इस तरह की प्रणाली में प्रभावी रूप से प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ होंगे। विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) ऐसे वंचित वर्गों को अगड़े वर्गों के साथ प्रभावी रूप से प्रतिस्पर्धा करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने में सक्षम बनाते हैं और इस प्रकार वास्तविक समानता सुनिश्चित करते हैं।

अगड़ी जातियों को मिलने वाले विशेषाधिकार केवल गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा तक पहुंच और एक प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए ट्यूटोरियल और कोचिंग केंद्रों तक पहुंच तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उन्हें अपने परिवार से विरासत में मिलने वाली सामाजिक नेटवर्क और सांस्कृतिक पूंजी (संचार कौशल, उच्चारण, किताबें या शैक्षणिक उपलब्धियां) भी इसमें शामिल हैं। सांस्कृतिक पूंजी यह सुनिश्चित करती है कि एक बच्चे को पारिवारिक वातावरण द्वारा अनजाने में उच्च शिक्षा या अपने परिवार की स्थिति के अनुरूप उच्च पद लेने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यही बात उन व्यक्तियों के लिए नुकसानदायक बन जाता है जो पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं और उन समुदायों से आते हैं जिनके पारंपरिक व्यवसाय खुली परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए आवश्यक कौशल का संचार नहीं होता है। उन्हें अगड़े समुदायों के अपने साथियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। दूसरी ओर, सामाजिक नेटवर्क (सामुदायिक संबंधों के आधार पर) परीक्षा की तैयारी और अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शन और सलाह लेने के लिए उपयोगी हो जाते हैं, भले ही उनके परिवार के पास आवश्यक अनुभव न हो। इस प्रकार, पारिवारिक आवास, सामुदायिक जुड़ाव और विरासत में मिली कौशल का कुल जमा परिणाम कुछ वर्गों से संबंधित व्यक्तियों के फायदे के लिए काम करता है, जिसे बाद में “योग्य पुनरुत्पादन और सामाजिक पदानुक्रमों की पुष्टि” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

इस समय जब देश में जातीय हिंसा बढ़ रही है, दलितों/आदिवासियों के संसाधनों में अपनी हिस्सेदारी और अपने सम्मान के लिए किये गए प्रयासों को क्रूर हिंसा से निपटाया जा रहा है। भाजपा नीत केंद्र और राज्य सरकार खुले तौर पर जातिगत हिंसा में लिप्त अपराधियों को सरक्षण दे रही है। देश में मनु और मनुवाद का महिमामंडल करते हुए संविधान में समाज में समानता लाने के सभी प्रावधानों पर खुले हमले बढ़ रहे हैं जिसमें मेरिट की संकीर्ण समझ को बखूबी प्रयोग किया जाता है, उच्चतम न्यायालय का यह फैसला पूरी सख्ती से इस बेसिर पैर की बहस पर विराम ही नहीं लगाता है बल्कि मेरिट के रूप में मनुवादी पाखंड की भी पोल खोलता है। 

(डॉ. विक्रम सिंह आल इंडिया एग्रिकल्चर वर्कर्स यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)   

विक्रम सिंह
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