बच्चों के अरमानों पर ओले और शोले बरसा रही है धर्म और जाति से खुराक पाती व्यवस्था

कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं, मगर जब उनका वर्तमान ही हर पल खतरे में हो और काम और करियर का दबाव उन पर लगातार बढ़ता रहता हो, तो क्या बच्चों और देश का भविष्य सुरक्षित हो सकता है? हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक स्कूल में एक ‘हिन्दू’ शिक्षिका ने एक ‘मुस्लिम’ बच्चे को किसी दूसरे छात्र से पिटवाया। दूसरी घटना एक और बच्चे की है जो स्कूल में हाथ में कड़े पहनकर गया और उसकी भी पिटाई की गई। तीसरी घटना कश्मीर की है जहां एक बच्चे द्वारा ब्लैक बोर्ड पर ‘ईश्वर और खुदा एक है’ लिखने पर उसे शिक्षक द्वारा पीटा गया। पिछले ही साल मध्य प्रदेश के सागर में एक जैन मंदिर में रखे गए बादाम में से पांच टुकड़े उठा लेने पर एक बच्चे को पेड़ से लटका कर मारा गया।

अक्सर छात्राओं के प्रति शिक्षकों की कामुकता और यौन उत्पीड़न की घटनाएं भी हमें सुनने को मिलती हैं। हम सब उस घटना को कभी नहीं भूल सकते जो राजस्थान की थी जब एक दलित बच्चे को सवर्ण शिक्षक के मटके से पानी पीने के कारण बुरी तरह पीटा गया था और पीटे जाने के कुछ दिन बाद ही दलित छात्र की मौत हो गई थी। हमारे देश की सामाजिक संरचना जो धर्म, जाति और जेंडर पर आधारित है और उन्हीं आधारों पर बच्चों के साथ हो रहा भेदभाव और उनका उत्पीड़न एक आम–सी घटना बन कर रह गई है।

बीते रविवार को राजस्थान के कोटा में दो छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इस साल के 8 महीनों में कोटा में 23 छात्रों ने आत्महत्या की। इनमें 19 लड़के और 4 लड़कियां हैं। इनमें आधे से ज्यादा नाबालिग थे। 12 छात्र ऐसे थे, जिन्होंने कोटा में पहुंचने के छह महीने के भीतर ही आत्महत्या कर ली थी। 9वीं- 10वीं क्लास के बच्चे भी कोटा में रहकर 12वीं क्लास के बाद होने वाली प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं।

कोटा को इंजीनियरिंग और मेडिकल की कोचिंग का गढ़ माना जाता है। यहां हर साल डेढ़ लाख से लेकर दो लाख बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की कोचिंग के लिए आते हैं। वहां कोचिंग करने वाले बच्चों में करीब 50 प्रतिशत बिहार और उत्तर प्रदेश के हैं। इनमें ज्यादातर बच्चे निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के हैं। माता–पिता की इच्छाओं का दबाव भी उन पर होता है क्योंकि माता-पिता घर के खर्चों में कटौती कर, जमीन बेचकर, कर्ज लेकर अपने बच्चों को यहां भेजते हैं।

कोटा में चलने वाला कोचिंग का कारोबार सालाना करीब छह हजार करोड़ का है। कोचिंग केन्द्रों के मालिकों के नापाक रिश्ते सत्तारूढ़ दलों के बड़े-बड़े नेताओं के साथ हैं। यहां पढ़ने और प्रवेश परीक्षा पास करने वाले छात्रों की तस्वीरें विज्ञापनों में नजर आती हैं। मगर जो छात्र सफल नहीं हो पाते हैं या उम्मीदों का दबाव किन्हीं कारणों से सह नहीं पाते हैं, उनकी चुनौतियां ज्यादा चिंताजनक नतीजों की ओर ले जाती हैं।

सवाल यह भी है कि जो बच्चे मोटी-मोटी रकम देकर ऑनलाइन तैयारी करते हैं, क्या उन पर दबाव नहीं है? आर्थिक तौर पर नीचे गिरने का डर मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग का सबसे बड़ा डर है और इस आधार पर पलायन भी आम है जो हमें गांव से शहर, शहर से महानगर और महानगर से विदेश तक ले जाता है।

मनोविश्लेषकों का कहना है कि बच्चों की आत्महत्या का मुख्य कारण मात-पिता का दबाव, घर से अलग होकर रहने से उनका अकेलापन, अवसाद, तनाव और बच्चों का प्रेम संबंध भी है। बच्चे बिल्डिंग से कूद कर अपनी जान नहीं दें, इसलिए संस्थाओं ने बिल्डिंग में चारों तरफ से जाल बनाने का फैसला किया है और पंखों में स्प्रिंग लगाने की बात हो रही है। क्या इन तरीकों को प्रयोग में लाने से बच्चे आत्महत्या नहीं करेंगे? क्या वे आत्महत्या का कोई और रास्ता नहीं खोज निकलेंगे?

क्या धर्म और जाति से खुराक पातीं हमारी व्यवस्थाएं बच्चों के अरमानों पर ओले और शोले नहीं बरसा रहीं हैं?

(लेखिका मंजुला शिक्षा और मनोविज्ञान के क्षेत्र से जुड़ी हैं।)

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