गुरुदेव की एक ही ख्वाहिश थी- शिक्षा कभी निर्जीव न हो

शान्ति निकेतन में गुरुदेव की कही वाणी “निर्जीव जीवन से भयंकर भार और कुछ नहीं हो सकता। इसका पूरा ध्यान रहे कि तुम्हारी शान्ति निकेतन की शिक्षा कभी निर्जीव न बनने पाए।” हम जिन छात्र- छात्राओं को ऐसे अद्भुत गुरु की वरद छाया में शिक्षा पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे आज निःसशंय होकर कह सकते हैं कि शान्ति निकेतन की शिक्षा कभी हमारे लिए निर्जीव नहीं बनी। इसकी हमने थोड़ी बहुत चेष्टा की है। चाहे वो सत्यजीत राय, कनिका बनर्जी हों, सुचित्रा मित्र हों, अरविंद मुखर्जी हों या जया अप्पा स्वामी! हमारी गुरुपल्ली में ऐसे ही अन्य गुरुजनों का भी हमें निरंतर दिशानिर्देश प्राप्त होता रहा।

 गुरूदेव के सानिध्य में बिताए नौ वर्षों के संस्मरण संजोने बैठती हूं तो लगता है स्मृतियों के गहन अरण्य में स्वयं खो गई हूं स्मृतियां भी क्या एक आध हैं? कहां से आरम्भ करूं… जिस दिव्य दृष्टि से रविन्द्र नाथ ने मनुष्य को परखा है,उसको ठीक से पहचान पाना बहुत सहज नहीं है। उनका एकमात्र आयुध रहा है, मानवता में उनका दृढ़ विश्वास। उनका मन विश्वमन था। उन्होंने मनुष्य को उसके सम्पूर्ण सार्थक रूप में विकसित रखना चाहा।

उन्होंने भगवान को भी एक तटस्थ सिद्ध भक्त की तरह देखा था। न तो उन्होंने हिन्दू धर्मावलंबी शास्त्राकारों की भांति ईश्वर को इतने ऊंचे आसन पर बैठाया कि भयभीत हो निहार भर सकें, न अंध भक्ति की। ईश्वर से उनका सहज संबंध रहा।

उपनिषदों का उन्होंने गहन अध्ययन किया विशेष कर ऋग्वेद का, किन्तु अंधभक्त बन सब कुछ ग्रहण नहीं किया। उपनिषद उनके लिए अतीत के बहुमूल्य विरासत नहीं रहे, जो उन्हें खोखले गर्व से भर दें। वे उनके लिए अशेष कोष थे, जिससे उन्होंने सहिष्णुता के रत्न दोनों हाथों से उलीचे। शांति निकेतन का शायद ही कोई उत्सव हो ‘ माघोत्सव’ हो या ‘ पौषोत्सव; जिसमें उपनिषद के मन्त्रों से आश्रम की दिशाएं गुंजारित न हुई हों।

 ‘ यो देवोग्नो योप्सु, तो विश्वं भुवनं विदेश

या औषधीयु या वनस्पतीषु।”

यही रविन्द्रनाथ का ईश्वर था। यही हम आश्रमवासियों का। सर्व शक्तिमान, सर्वत्र विद्यमान, प्रकृति में, पेड़ों में, आकाश में, लता -गुल्मों में उन्होंने इसी ईश्वर की शक्ति को सदैव नमन किया है।… उन्होंने लिखा देख तेरा भगवान वहां है, जहां किसान हल चलाते हैं, मजदूर सड़क कूटते हैं, चाहे धूप हो बरखा हो, कपड़े मैले हों ,धूल धूसरित दिशाओं जैसे, तेरा ध्यान निर्माण में है, ध्वंस में नहीं।

हमारी गुरूपल्ली में ऐसे ही अन्य गुरुजनों से हमें दिशा निर्देश प्राप्त होता रहा। श्री गुरु दयाल मल्लिक भी हमारे ऐसे ही गुरु थे। थे तो अंग्रेजी के अध्यापक,पर प्रत्येक छात्र- छात्रा के लिए पीर-पैगम्बर ! बूटा सा कदम, सफेद दाढ़ी, आंखों पर चश्मा और होंठों पर निरन्तर छलकती वात्सल्यपूर्ण हंसी। बुधवार की उपासना में जिस दिन मल्लिक जी का उपासना संगीत होता, उस दिन धूप-बत्तियों की धूम्ररेखा स्वयं ही प्रगाढ़ हो उठती। हमारी न जाने कितनी ही समस्याएं उन्होंने सुलझाई थीं! घर से समय पर मनीआर्डर नहीं पहुंचा, तो भागते उसी उदार महाजन के पास। कोई अभागा प्रेम पत्रों की बौछार से जीना दूभर कर देता, तो मल्लिक जी के पास। मल्लिक जी की वो छोटी सी कोठरी हमारे उदार गुरु की दरगाह थी, जहां देहरी पर मत्था टेकते ही मांगने वाले की हर मुराद पुरी होती थी। मैंने उन्हें कभी क्रुद्ध होते नहीं देखा। मीठी सी हंसी का मरहम लगाते ही कलेजे की हर कोर में ठंडक ही ठंडक! अंग्रेजी पढ़ाने का उनका अपना ही ढंग था। बीच-बीच में कहानियों, चुटकुले -चुहल और देखते ही देखते पीरियड शेष।

हमारे अंग्रेजी के दूसरे अध्यापक थे श्री बलराज साहनी, जो बाद में फिल्म जगत के नक्षत्र बनकर चमके! गोरा रंग, सजीला व्यक्तिव, लाल खद्दर का कुर्ता और सवा लाख की चाल! लगता सेहरा बंधा कोई दुल्हा झूमता चला आ रहा है।वे हमारी अंग्रेजी कविता की क्लास लेते थे। उनकी शिक्षा प्रणाली नितांत मौलिक थी। किसी भी अंग्रेजी अखबार का संपादकीय देकर कहते, पहले इसे पढ़ो फिर इस विषय पर अपने ढंग से सम्पादकीय लिखो। आज थोड़ी बहुत जो ठसक कलम में आ पाई है, वह मेरे उसी गुरु की देन है।

अपनी अनुशासन प्रियता के लिए आश्रम के तीन अन्य गुरु भी चर्चित थे श्री नंदलाल बसु के समधी तनयेन्द नाथ घोष जो हमें अंग्रेजी पढ़ाते थे। प्रोफेसर अधिकारी जो इंडियन फिलासफी के प्रोफेसर थे एवं ‘मोशाय’ भूगोल के अध्यापक ।

अपनी नारंगी शाल लपेटे संतुलित कदम रखते तनय दा क्लास में आते तो हमारा मेरूदंड झनझना उठता, किन्तु आज अपने उसी कठोर गुरु का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता हूं, जिन्होंने अनायास ही हमें भविष्य में अपनी संतान को अनुशासन की परिधि में बांधने का गुरुमंत्र प्रदान किया था।

और डाक्टर बाबू अपनी खंजड़ साईकिल की घंटी खनखनाते आश्रम के ओर-छोर नापते,डाक्टर बाबू सिर पर जीर्ण शोला हैट। डाक्टर बाबू ही आश्रम के गायनोकोलाजिस्ट थे एवं आर्थोपिडिक सर्जन। इसके अतिरिक्त स्कूल में थे, तो हमारी हाइजीन की कक्षा भी लेते थे। अस्पताल में ही हमारी कक्षा लगती। किसे पड़ी थी जो असंख्य हड्डियों का लेखा-जोखा रखता । प्रायः सब एक स्वर में अपने संगीत प्रिय गुरु से गाने की फरमाइश कर बैठते “डाक्टर बाबू प्लीज़ धोरून ना व

शेई गान… और वो रजिस्टर पर ही अपनी लम्बी -लम्बी उंगलियों की ताल देते, तत्काल अपनी छात्र मंडली की फरमाइश पूरी कर देते।

उनकी सदाबहार हंसी देख कर कौन कह सकता था कि उनका परिवारिक जीवन कैसी विसंगतियों से भरा है। इकलौती पुत्री का मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। पत्नी पक्षाघात से पंगु पड़ीं थीं, फिर भी आश्रम का भार, यही नहीं भुवन डांगा,सन्थाल ग्राम,सिउड़ी तक उन्हीं का इलाका था।

अभी यहां है तो अभी वहां। बंगाल का जानलेवा मलेरिया, डेंग्गों, गर्दन तोड़ असंख्य व्याधियां,उस पर औषधियों का भंडार सीमित। वाहन के नाम पर खंजड़ साईकिल, सामान्य सा वेतन किन्तु मानव सेवा का अदम्य उत्साह। सच्चे अर्थों में वे समर्पित साधक थे। उस युग की मदर टेरेसा।

आश्रम में संगीत के गुरु शैलजा बाबू, शांति था, शास्त्रीय संगीत के अध्यापक वाज वत्कर, इंदिरा देवी, नृत्य गुरु केलू नायर कृष्णनन कुट्टी ऐसे सिद्ध गुरू जनों की शिक्षा तो लोहे को भी सोना बनाने में समर्थ थी।

आज की शिक्षा प्रणाली, शिक्षा संस्थानों की ओर प्रवेश प्राप्ति के लिए भागता छात्र-छात्राओं का भेड़िया धसान, डोनेशन की निर्लज्ज मांग देखकर लगता है वह दिन दूर नहीं, जब छात्रों को प्रवेश के लिए 100 में से 150 नंबर लाने होंगे, पर यह शर्त सबके लिए लागू नहीं होती। आप समृद्ध है, ऊंचे ओहदे पर आपका कोई गाडफादर है तो चुपचाप पिछवाड़े के दरवाजे से बेखटके घुस आइए वित्तहीन, सामर्थ्य हीन माता -पिताओं में आज कितने ऐसे हैं जो अपने बच्चों के लिए महंगी कोचिंग या ट्यूटोरियल की व्यवस्था कर सकते हैं?

गुरुदेव का ही कथन तिक्त सत्य बनकर सामने आ रहा है पहले गुरु, गुरु होता था आज वह शिक्षक बन गया है।

पहले हम शिक्षा ग्रहण करते थे, पूर्ण साधना से, निष्ठा से गुरु को गुरु मानकर, किन्तु अब हम शिक्षा खरीद सकते हैं, जैसा दाम दो वैसा माल लो। रविन्द्र नाथ ने कहा था “ध्यान रहे तुम्हारी शिक्षा कभी निष्प्राण न हो।”

(लेखिका शिवानी की स्मृतियों में शांति निकेतन उनकी किताब आमेदेर शान्ति निकेतन के चुनिंदा अंश। प्रस्तुति भास्कर नियोगी।)

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