ताज़ियादारी में विवाद और मुस्लिम समाज के ख़तरे

अभी हाल में मुहर्रम बीत गया, कुछ घटनाओं को छोड़कर पूरे मुल्क से मुहर्रम ठीक ठाक मनाए जाने की ख़बरें रहीं हैं। लेकिन इन खबरों के बीच कुछ खबरें परेशानी पैदा करने वाली आई हैं, कुछ जगह मुहर्रम मनाए जाने को ग़लत बताने वाले मुसलमानों के मत के लोगों ने जबरदस्ती मुहर्रम में ताजिएदारी और उसके जुलूस को या तो रोका या नहीं निकलने दिया है। मुहर्रम के जुलूस में शामिल होने वाली महिलाओं को जबरदस्ती वापस करने और इसे गैर मजहबी बताए जाने के वीडियो सोशल मीडिया में चल रहे हैं। एक वीडियो मुहर्रम में बजने वाले ढोल को तोड़ने का भी चला है। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है। मुहर्रम में डीजे बजाने का विवाद और पुलिस द्वारा इसे नई परम्परा बताकर रोकने और इसमें‌ विवाद होने की भी ख़बरें हैं।

लेकिन सबसे ज़्यादा अखरने वाली बात सुन्नी मुसलमानों के एक धड़े के मौलवी टाइप लोगों द्वारा मुहर्रम के जुलूस को जबरदस्ती रोकने वाली बात सामने आई है, मुहर्रम में ताजिएदारी को रोकने की कोशिश कुछ मुट्ठीभर शुद्धतावादी मुसलमानों द्वारा पहले से भी की जाती रही है जिनका बहुत ज़्यादा असर कभी नहीं रहा लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में इन शुद्धतावादी मुसलमानों का रुख अब खुलकर सामने आने लगा है।

मुल्क में सुन्नी और शिया दोनों तरह के मुसलमान मुहर्रम में ताजिएदारी करते हैं,  हालांकि दोनों की ताजिएदारी और मुहर्रम मनाने में फर्क है। दक्षिण एशिया या तो कहें भारतीय मुसलमानों में ताजिएदारी की शुरुआत तैमूरलंग के भारत पर आक्रमण के समय मानी जाती है, जिस पर रंग मुगलकाल में जहांगीर काल में चढ़ा जब बादशाह ने शिया मत मानने वाली नूरजहां से शादी की थी, और जिसने मुगलकालीन शासन की परम्परा में शिया रंग दिया। लेकिन यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि सुन्नी मुसलमानों में मुहर्रम और ताजिएदारी सूफियों की देन है।

यह माना जाता है कि मुल्क में सुन्नी मुसलमानों में सूफीज्म को मानने वाला बड़ा वर्ग है। क्योंकि मुल्क में इस्लाम का प्रसार सूफियों के द्वारा हुआ है मुल्क में जगह जगह सूफियों के मज़ार और ख़ानकाहें इसका सबूत हैं। अधिकतर सूफियों ने मुहर्रम को अलग अलग ढंग से मनाया है। सूफियों को मानने वाले सुन्नी मुसलमानों में लंगर और महफ़िल से लेकर ताजिएदारी तक होती है। पिछली सदी तक ताजिएदारी में सबसे बड़ी भागीदारी सूफियों के मदारी सिलसिले को मानने वालों में होती थी।

फिरकेबाज़ी से पहले मुसलमानों में सूफियों के मदारी सिलसिले की गहरी पैठ थी, ऐसा माना जाता है कि मदारी सिलसिले के बानी हजरत बदीउद्दीन जिंदा शाह मदार ने  मुहर्रम में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में ताजिएदारी शुरुआत की। जो पूरे दक्षिण एशिया में फैल गई।

हज़रत बदीउद्दीन शाह मदार ने अपनी पूरी लम्बी जिंदगी में दुनिया भर में इस्लाम का प्रचार किया था, पूरे मुल्क में उनकी याद में बड़ी संख्या में बने चिल्ले (तपस्या स्थल) और मदार गेट इसका प्रमाण हैं। इनका मज़ार मकनपुर कानपुर में हैं, और इन्हीं के सिलसिले के एक सूफी मलंग हज़रत मजनू शाह ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संन्यासी/फ़कीर विद्रोह का नेतृत्व किया था।

ताजिएदारी के अलावा इमाम हुसैन की याद में फ़कीर बनना और कर्बला में प्यासे इमाम हुसैन के परिवार के मंजर पर भिश्ती बनना और लोगों को पानी /शर्बत पिलाना और बांटना, खिचड़ा और धनिया बनाना, और ताजियों का एहतराम करना उनमें इमाम हुसैन की याद में फातेहा करना, दुआ पढ़ना भी मदारी सिलसिले की बदौलत पूरे मुल्क में मक़बूल हुआ।

इन सब को कर्बला के शहीदों के ईसाले सवाब (पुण्य भेजना या करना) के लिए किया जाता है ना कि ताजियों से कुछ मांगने के लिए, लेकिन समझा यही जाता रहा है कि लोग ताजिए से मांगते हैं। यही विवाद की जड़ है जिस पर मुसलमानों के और फ़िरके/मत इसको गलत मानकर रोकने की कोशिश करते हैं।

सूफी किसी विवाद में पड़ना पसंद नहीं करते, हर तरह के मज़हबी विवाद से किनाराकशी कर लेते हैं। लेकिन बार बार उनको विवाद में घसीटने की कोशिश की जाती है, उनके तरीके पर चोट की जाती है। 

19वीं सदी में जब देवबंद और बरेली में सुन्नी मत के अलग-अलग मरकज़ (मत के संस्थान/स्कूल) नहीं बने थे, तब तक मुसलमानों में दो ही धाराएं, सुन्नी और शिया होती थीं। चूंकि बहुसंख्यक मुसलमान सुन्नी होते थे तो करीब करीब सभी सुन्नी सूफियों की धारा को मानने वाले होते थे।

अंग्रेजी राज में इन मरकज़ों के बनने के बाद मुसलमानों में फिरकेबाज़ी शुरू हो गई। बरेलवी और देवबंदी फिरकों के बाद ऐहले हदीस और तब्लीग़ी जमात की मुहिम शुरू हुई और भी ना जाने क्या क्या फिरके/मत चलने लगे। इधर सूफियों में भी कई फाड़ हो गए, कव्वाली गायन को लेकर पहले सिर्फ खामोश नापसंदगी थी, वो मौलवियों की फत्वेबाज़ी से खुलेआम मुख़ालिफत की श़क्ल में दिखने लगी। 

यही रविश अब ताजिएदारी को लेकर तेज हो रही है, ताजिएदारी को गैर इस्लामिक शिर्क और बिदअत (अल्लाह के साथ किसी को साझा करने का गुनाह और मज़हब में नई बात जोड़ना) कहकर उसे जबरदस्ती रोकने की खबरें इस बार सोशल मीडिया में दिखीं।

ताजिएदारी को जबरदस्ती रोकने वाले यह नहीं जानते या नहीं जानना चाहते कि मौलानाओं ने सौ सवा सौ साल पहले मुहर्रम में ताजिएदारी के ख़िलाफ़ फ़त्वा दिया था, (जबरदस्ती नहीं की थी) फिर भी मुसलमानों का बड़ा वर्ग ताजियादारी कर रहा है। क्योंकि ताजियादारी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ कर्बला में हुए ज़ालिमाना हादसे की यादों के साथ प्रतीक के रूप में बहुत गहराई से जुड़ा है और सूफियों की फिलासफी और उनके सिलसिले पैगम्बर मुहम्मद साहब के परिवार यानि कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ और उनकी रवायतों के साथ जुड़े हैं। इसलिए आम मुसलमानों में ताजिएदारी बहुत गहरी बैठी रहेगी। जो लोग ताजिएदारी को जबरदस्ती बंद कराने की कोशिश करते हैं वो कहीं ना कहीं अपनी सर्वोच्चता बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि गैर ज़रूरी विवाद बढ़ा रहे हैं ऐसे में जब मौजूदा हालात मुसलमानों के ख़िलाफ़ हैं तो यह विवाद उन्हें और नुक़सान पहुंचा सकता है। मुस्लिम समाज के समझदारों और दानिश्वरों को यह बात समझ लेनी चाहिए।

यहां यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि मुहर्रम में ताजिएदारी के विवाद को अलग कर भी दिया जाए तो कर्बला की घटना के लिए जिम्मेदार तत्कालीन शासक यज़ीद और उसको सत्ता सौंपने वाले उसके पिता को सम्मानित मानने/ना मानने को लेकर भी बहुत गहरे विवाद और मतवैभिन्नता है। ताजिएदारी हो रही है तो वो सब छिपा है, और इसके लिए भी सूफियों की पर्दादारी काम कर रही है, आम मुसलमान अगर सब कुछ जानेंगे और पूछेंगे तो शुद्धतावादी फ़त्वेबाजों को जवाब देने मुश्किल हो जाएंगे। फिर यह भी सवाल है कि सुन्नी मुसलमानों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को याद रखने का और क्या तरीके मौजूद हैं, पिछले 100 सालों में सुन्नियों की रात रात भर चलने वाली महफ़िलों जमातों (और ‘कांफ्रेंस’ में) में स्टीरियो टाइप तकरीरों, धड़ेबाजी और फ़िरकेबाज़ी के अलावा कुछ नहीं हुआ है।

अगले महीने चेहल्लुम है, मुहर्रम के चालीस दिन बाद चेहल्लुम मनाने की परम्परा है उसमें भी ताजिए निकालने की परम्परा है तो फिर ऐसे वाकए ना दुहराए जाएं यह सोचना पड़ेगा, यदि यह आस्था का विषय बना दिया गया (जो अभी तक एक सांस्कृतिक परम्परा की तरह मनाया जाता है) तो फ़त्वा पसंद शुद्धतावादी मुसलमानों के लिए ख़तरनाक परेशानी का सबब बन सकता है। 

(इस्लाम हुसैन लेखक और एक्टिविस्ट हैं और आजकल काठगोदाम में रहते हैं।)

इस्लाम हुसैन
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इस्लाम हुसैन