सड़क की लड़ाइयों में उतारनी होगी चुनावी सभाओं में दिखने वाली भीड़!

मुंबई में रहने वाली मित्र Alpana Upadhyay बिहार के चुनाव परिणामों और वहां पर उठे सवालों पर मेरी पोस्ट के जवाब में कहती हैं, “देश की जनता भूखी नहीं मूर्ख है, और बिहार चुनाव से यह साबित भी हो गया है। कितने लोग आपकी पोस्ट पर ध्यान देते हैं, ये नोटिस किया आपने कभी? लोगों को हिंदू-मुस्लिम, लव जिहाद ही पसंद है।”

इस बारे में मेरा कहना है कि पिछले पांच वर्षों के दौरान भारतीय चुनावों और सड़कों पर चलने वाले संघर्षों की पड़ताल की मेरी रुचि बनी रही है। देश में 2014 के बाद एक ऐसी सरकार पूर्ण बहुमत से आई थी, जिसने मौजूदा पूंजीवादी ढांचे के साथ-साथ शासन, राजनीति, सामाजिक चिंतन को पूरी तरफ से बदलने का अपना एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया था। देश में धुर दक्षिणपंथ और वाम की तरफ झुकने की बाट जोह रहे लोगों ने देखा कि 89 से ही दक्षिणपंथ ने अपनी पैठ को अच्छी तरह से देश के विभिन्न कोनों में पसार लिया था।

खैर मुद्दा बिहार विधानसभा चुनाव से निकला था, इसलिए वर्तमान पर लौटते हैं। इस चुनाव में अंतिम परिणाम बीजेपी+ गठबंधन के पक्ष में गए हैं, और उसने एक बार फिर से हारे हुए (जिसे उन्होंने ही हराया है) नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के तौर पर आसन थमाया है। हार-जीत का यह अंतर बेहद कम पर छूटा है। हालांकि इसी के आस-पास के चुनाव गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी देखने को मिले थे।

सोशल मीडिया पर चुनाव का विश्लेषण करते हुए हम लगातार उन्हीं बातों को दुहराते हैं, जो हमारे मन मुताबिक नहीं होतीं। मसलन, यह बात आम तौर पर हर पोस्ट में दिख जाती है कि ‘भारतीय मतदाता कभी नहीं सुधर सकता।’ ‘गरीब और प्रवासी देशभर से लात खाकर बिहार इसलिए गया था कि लात मारने वालों को ही वोट करे।’ ‘इस देश में हिंदू-मुसलमान या पाकिस्तान की बात बीजेपी उछाल दे, देखिए सभी भक्त बनकर अपने सभी दुखों-कष्टों को भूल जाने के लिए तैयार रहते हैं।’ इत्यादि…।

वहीँ वे बाकी के सभी तथ्यों को बिसरा देते हैं… मसलन… विधानसभा चुनावों से छह महीने पहले से ही आरजेडी के बड़े बड़े महारथी, खिसक कर पार्टी छोड़ रहे थे। लालू यादव की रिहाई का कोई लक्षण नजर नहीं आ रहा था, और उनके अनुभव के बिना सिर्फ यादव-मुस्लिम वोट बैंक के सहारे विपक्ष की नैय्या कैसे पार लगेगी, इसको लेकर शायद ही किसी ने विपक्ष को कोई भाव दिया था। जातीय समीकरणों के लिहाज से भी कागज पर बीजेपी-जेडीयू के पास पहले से ही बहुमत मौजूद था।

अंतिम समय पर जाकर किसी तरह आरजेडी ने वाम और कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, जिसमें कुशवाहा और सहनी खिसक चुके थे। कुल मिलाकर यह किसी तरह एक गठबंधन कहने लायक हो पाया था। मध्य बिहार में माले और कुछ पॉकेट में परंपरागत आधार के सिवाय सब कुछ आरजेडी के कंधे पर था। ऐसे में मुकाबला बराबर का कतई नहीं था।

फिर भी आरजेडी गठबंधन ने ऐन चुनाव के वक्त जिस प्रकार का करतब दिखाया, वह अविश्वसनीय था। कई लोगों का कहना है कि तेजस्वी की सभाओं में लोग हेलिकॉप्टर देखने आते थे, लेकिन हेलिकॉप्टरों की फ़ौज तो दूसरी तरफ थी। पप्पू यादव तक इस्तेमाल कर रहे थे, लेकिन हार गए। भीड़ बीजेपी की सभाओं में सिर्फ कुर्सियों की थी।

असल में यह चुनाव गरीब लोगों ने ही लड़ा, बस उनकी जुबान सिर्फ चुनावों में ही देखने को नजर आती है। उसके बाद वे दो जून की रोटी के लिए खेतों, पोखरों और जंगल, बड़े शहरों में नजर आएंगे। पान और चाय के ठेले पर हम जैसे लोग ही चर्चा करते नजर आएंगे।

दर्जनों बीजेपी गठबंधन के नेताओं, विधायकों और मंत्रियों को सड़कों पर रोकने, गांव में न घुसने देने का काम यदि किसी ने किया था तो बिहार की आम अवाम ने किया था। आज चुनावों में धांधली का आरोप लगा रहे बिहार के विपक्ष को देख लीजिए। जो अपने लिए नहीं लड़ सकते, भला वे सरकार के कारिंदों को कैसे चुनाव के दौरान रोक सकने की हिम्मत रखते? हम खयाली पुलाव कब तक पकाएंगे?

हां, यह अवश्य है कि मतदान के समय अंतिम क्षणों में सवर्णों में से अधिकतर ने मतदान बीजेपी के पक्ष में तो अति पिछड़ों ने ज्यादातर वोट नीतीश कुमार को ही दिया। महिलाओं के भी बड़े हिस्से ने नीतीश की छवि के आधार पर ही वोट दिया। यही कारण है कि नीतीश को 40+ सीटें हासिल हो सकीं। वरना चिराग ने तो हनुमान खुद को सिद्ध कर ही रखा था, और रावण इस बार नीतीश को बनाया गया था। आज सब एक ही कमरे में ढुके हुए हैं, और जरा सा भी धक्का फिर से जुटाए गए कुनबे को नष्ट करने के लिए काफी है।

गरीब आदमी इससे अधिक आखिर क्या कर सकता है? अब सवाल उठता है कि क्या सारे सवर्ण या अति पिछड़े या महिलाएं बीजेपी समर्थक हैं, हिंदू-मुस्लिम करते हैं? शर्तिया नहीं, लेकिन यह भी सच है कि यह विमर्श देश की हिंदी पट्टी में सब तबकों के बीच में है, लेकिन यह भी सच है कि उसकी बात को सबसे मुखरता से यदि इन चुनावों में किसी ने रखने का काम किया था तो वह 31 साल का तेजस्वी यादव ही था। यही वजह है कि उसकी जनसभाओं में धूल के गुबार के साथ जिस प्रकार का जन सैलाब उमड़ता था, वह पिछले कई दशकों से कम से कम मेरी नजर में कभी नहीं गुजरा।

पूरे बिहार भर में सिर्फ चुनावी सभा करने और एक व्यक्ति के सहारे चुनाव जीत पाने की सोच रखना हम-आप जैसे पर्यवेक्षक कर सकते हैं, लेकिन चुनावी जंग लड़ रहे दलों से यह अपेक्षित नहीं है। सवर्णों, अति पिछड़ों, मुस्लिमों, दलित और महिला समाज को समायोजित करने वाले ढांचे के साथ ही चुनाव में बूथ लेवल पर संगठन निर्माण भी उसी अनुपात में होता तो मेरा पूरा विश्वास है कि बिहार में आरजेडी 150+ सीट जीत सकती थी।

आज भी भले ही तेजस्वी ने राजपाट न संभाला हो, लेकिन वह निर्विवाद रूप से बिहार में सभी नेताओं से मीलों आगे पहुंच चुके हैं। सवाल है कि इसके बाद क्या? बेरोजगारी के लिए बीजेपी को 19 लाख रोजगार के लिए कब घेरना होगा? मनरेगा में काम के लिए गांव-गांव में रोजगार मुहैय्या कराने के लिए जिला, ब्लॉक और पटना दिल्ली कब कूच करना होगा? नौ महीने से स्कूलों में मिलने वाले मध्यान्ह भोजन को घर-घर पहुंचाना है। गांव-गांव में दलित महिलाओं के साथ आए दिन अत्याचार के खिलाफ ग्रामीण स्तर पर क्या इंतजाम हैं? ऐसे सैकड़ों सवाल हैं, जो हर राज्य में हार या जीत के बाद भी बने रहते हैं।

जीतने को तो कांग्रेस ने गुजरात चुनाव भी जीत लिया था, जब 14 सीटों वाले सूरत में बीजेपी को चुनाव से चार दिन पहले तक सूरत के अंदरूनी मोहल्लों में लोग घुसने नहीं दे रहे थे, लेकिन आखिरी वक्त तक हाथ-पैर जोड़कर किस तरह सूरत की सभी सीटें उसके हाथ लग गईं, यह वह कहानी है जिस पर अक्सर हारी हुई बाजी को कैसे जीतना है, यह कला सिर्फ बीजेपी के पास है। जिसे अक्सर हम ध्यान से नहीं देख पाते, और हर बार बिसूरते हुए प्रकट रूप में गरीबों को कोसते हैं और मन ही मन देश को।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

रविंद्र पटवाल
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