संविधान व लोकतंत्र की लड़ाई किसी दल की नहीं जनता की आवाज है-आपातकाल पर भाजपा कांग्रेस को घेर नहीं सकती

Estimated read time 2 min read

18वीं लोकसभा के गठन की प्रक्रिया के दौरान चंद दिनों में ही टकराव की जगह परस्पर सामंजस्य का liberal illusion ध्वस्त हो चुका है और साबित हो गया है कि मोदी और उनकी टीम के लिए यह महज एक जुमला है कि ” सरकार बहुमत से चलती है और देश सर्वानुमति से”। कुछ लोग संघ प्रमुख भागवत द्वारा मोदी को पिलाई गई डांट और सामंजस्य की मीठी-मीठी बातों से भी उत्साहित थे। लेकिन जिस तरह की कार्य प्रणाली, भाषा शैली पर पहले दिन से ही मोदी जी अमल कर रहे हैं उससे साफ है कि नई परिस्थिति में संघ भाजपा से बदलाव की जो उम्मीद की जा रही थी उस पर उन्नीसवीं सदी में फ्रांसीसी लेखक द्वारा कही यह बात शिद्दत से लागू होती है कि The  more things change, the more they remain the same.

दरअसल आने वाले दिनों में देश संसद से सड़क तक तीखे टकराव का साक्षी बनने जा रहा है, यह जिस तरह का जनादेश आया है उसमें अंतर्निहित है। जिस तरह मंत्रिमंडल का गठन हुआ है, और स्पीकर, डिप्टी स्पीकर प्रकरण पर जो कुछ हुआ है, उससे यह साफ है कि मोदी न सिर्फ पुराने रास्ते और नीतियों पर चलना चाहते हैं बल्कि पुराने रास्ते की निरंतरता का स्पष्ट संदेश भी देना चाहते हैं। जाहिर है न नीतियां बदलेंगी, न कार्यशैली, सिवाय चुनावों के पूर्व कुछ टैक्टिकल एडजस्टमेंट के।

अफसोसनाक है कि लोकसभा अध्यक्ष ने सदन में अपने कार्यकाल के पहले ही दिन आने वाले दिनों का पूरा ट्रेलर दिखा दिया। 26 जून के अवसर का इस्तेमाल करते हुए स्पीकर ने आपातकाल की निंदा करते हुए प्रस्ताव पेश किया। यह वही बिड़़ला जी हैं जो नरेन्द्र मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें लोकतंत्र का मसीहा और महान लोकतांत्रिक व्यक्तित्व साबित करने की कोशिश करते रहे हैं। प्रस्ताव में स्पीकर महोदय ने कहा,”इसके साथ ही हम उन सभी लोगों की संकल्प शक्ति की सराहना करते हैं जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया और भारत के लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व निभाया।”

अफसोस वे उन्हें भूल गए जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री से माफी मांगी थी और पिछले दस साल से उससे भी बर्बर फासीवादी निजाम देश पर थोपे हुए हैं। सच तो यह है कि आपातकाल की कोई चर्चा उस समय संघ द्वारा सरकार से माफी मांगने की दास्तान और आपातकाल से भी बदतर पिछले 10 साल से देश में जारी अघोषित बहुसंख्यकवादी फासिस्ट राज की मजम्मत के बिना अधूरी है।

दरअसल, पहले स्पीकर के प्रस्ताव, फिर राष्ट्रपति के अभिभाषण में और फिर मोदी के नेतृत्व में भाजपा नेताओं की पूरी फौज द्वारा सोशल मीडिया में आपातकाल को मुद्दा बनाने का उद्देश्य तो स्पष्टतः संविधान के नैरेटिव को काउंटर करना और अपने फासिस्ट राज के कुकर्मों को ढकना है। लेकिन यह कोशिश कामयाब होने वाली नहीं। क्योंकि आपातकाल की बात करके आप भले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दें, जिसके लिए पहले ही वह आत्मालोचना कर चुकी है और चर्चा चलने पर इसके लिए उसे खुलकर देश से माफी मांगनी चाहिए, लेकिन इससे संविधान की बहस दबने वाली नहीं है क्योंकि वह कांग्रेस की नहीं इस देश की जनता की आवाज है, शोषित उत्पीड़ित जनता के जीवन की सुरक्षा, मान सम्मान, नौकरी और आरक्षण पर मोदी राज में ही रहे हमले के संदर्भ में आज वह राजनीतिक युद्धघोष बनी है। विपक्षी दल तो केवल उसके संवाहक हैं। इसीलिए हालात बदले बिना यह एजेंडा बदलने वाला नहीं है। सच तो यह है कि आपातकाल की चर्चा से संविधान की रक्षा की बहस को और वैधता मिली है और वह और अधिक प्रासंगिक हो गई है।

जहां तक सत्तारूढ़ गठबंधन के दोनों प्रमुख सहयोगियों नायडू और नीतीश की बात है उन्होंने मंत्रिमंडल गठन और स्पीकर के चुनाव में हस्तक्षेप न कर देश को राजनीतिक संदेश  दे दिया कि फिलहाल उनसे सरकार पर किसी अंकुश की उम्मीद बेमानी है।

इन दलों का फिलहाल तो ध्यान पूरी तरह अपने राज्य पर केंद्रित लगता है। एक को अपनी 10 साल बाद बनी नई-नई सरकार को स्टेबलाइज करना है। राजधानी अमरावती के ड्रीम प्रोजेक्ट और अपनी तमाम चुनावी घोषणाओं की डिलीवरी के लिए केंद्र से पैसा चाहिए। तो नीतीश कुमार को अगले विधानसभा चुनाव की चिंता है। ये दोनों ही नेता तभी मोदी सरकार से पॉलिटिकल कॉन्फ्लिक्ट में जा सकते हैं जब इनके राज्य में अपने राजनीतिक हित पर आंच आने की परिस्थिति पैदा हो। दरअसल यही बात किसी हद तक चुनावी राज्य महाराष्ट्र तथा बिहार के इनके अन्य सहयोगियों के बारे में भी कही जा सकती है।

उक्त परिस्थिति को छोड़कर भाजपा के सहयोगी दल शायद ही मोदी सरकार के लिए कोई संकट/समस्या पैदा करें।

नीतीश कुमार और नायडू बेशक पलटी मार सकते हैं लेकिन जब उनके अपने आकलन में ठोस राजनीतिक फायदे की उम्मीद अथवा नुकसान का डर  हो। मेरा अनुमान है कि लोकसभा के नतीजों ने फिर नीतीश कुमार, जिन्हें चुका हुआ माना जा रहा था, की उम्मीदों में पर लग गए हैं। इस स्थिति में वे एक ही स्थिति में पलटी मार सकते हैं जब प्रधानमंत्री बनने का ठोस गणित उनके पास हो। 2025 में तेजस्वी की मुख्यमंत्री बनने की दावेदारी के चलते नीतीश कुमार के लिए मुख्यमंत्री बने रहने के लिए केंद्र में उनके ऊपर निर्भर भाजपा प्रदेश में बेहतर दांव है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार निर्द्वंद चलने वाली है। चुनौती महंगाई, बेरोजगारी, संविधान, जाति-जनगणना, विशेष राज्य का दर्जा जैसे सवालों को लेकर जनता और विपक्ष की ओर से आने वाली है। जब इन चुनौतियों की आंच सहयोगी दलों तक पहुंचेगी, तब उन्हें भी rethink करना  होगा और मोदी सरकार के साथ अपने रिश्तों को redefine करना पड़ेगा वरना उनकी अपनी राजनीति खतरे में पड़ जायेगी। जनता तो बेशक अपने जीवन से जुड़े ज्वलंत सवालों पर लड़ेगी, जिनमें से किसी का समाधान मोदी सरकार के पास नहीं है। सच तो यह है कि पूत के पांव पालने में ही दिख गए हैं। नई सरकार बनने के बाद से लगातार तमाम जीवनोपयोगी चीजों के दाम जो पहले से ही आसमान छू रहे थे, और बढ़ते जा रहे हैं। युवा बेरोजगारी का गहरा संकट तो लगातार हो रहे पेपर लीक के बाद अब सातवें आसमान पर है।

यह साफ है कि मोदी के तीसरे कार्यकाल में लड़ाई भीषण और कठिन होने जा रही है। एक ओर कारपोरेट घराने अपने अधूरे एजेंडा को पूरा करने के लिए desperate होंगे। कथित सुधारों की रफ्तार तेज होगी।दूसरी ओर इनसे होने वाली तबाही से आम जनता और युवाओं के सब्र का प्याला पहले ही भर गया है। लोग सड़कों पर उतरेंगे। उधर आरएसएस के अधूरे कार्यभार पूरा करने की भी बेचैनी और दबाव होगा। फलस्वरूप लोकतांत्रिक ताकतों, अल्पसंख्यकों, उत्पीड़ित तबकों तथा संवैधानिक मूल्यों पर हमले बढ़ेंगे।

वैसे तो हमारे समाज में majoritarian सोच को लंबे समय से हवा दी जाती रही है। लेकिन पिछले सालों में यह जहर कैसे तेजी से फैलाया गया है, इसी का नतीजा है की CSDS  के पोस्ट पोल सर्वे के अनुसार माइनॉरिटी को majority के रीति रिवाज (custom) adopt करने चाहिए था इसे 2019के 16 प्रतिशत से बढ़कर अब 23 प्रतिशत लोग मानते है, वहीं इससे असहमत लोगों की संख्या 35 प्रतिशत से घटकर 21 प्रतिशत रह गई है।

बहुमत न पसंद करे तब भी सरकार को अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करनी चाहिए , इस सवाल के जवाब में जहां 2019 में 34 प्रतिशत लोग पूरी तरह सहमत थे, वहीं अब उससे घटकर 27 प्रतिशत लोग ही पूरी तरह सहमत हैं।

अपने वोट की ताकत में भरोसा अब 83 % की बजाय 67 % लोगों को ही बचा है। चुनाव आयोग और ईवीएम दोनों में विश्वास घटा है। चुनाव आयोग में भरोसा 57 % की जगह 47% लोगों को ही बचा है, वहीं ईवीएम पर भरोसा 57% की जगह 34% लोगों को ही बचा है।

जाहिर है बहुसंख्यकवादी फासीवाद की चुनौतियां बेहद गंभीर हैं। इस जहर से समाज को मुक्त करने के लिए मोदी- भाजपा को सत्ता से तो बेदखल करना जरूरी है ही, इस प्रश्न को बिना किसी चुनावी अवसरवाद के राजनीतिक दलों को, एड्रेस करना होगा, उन्हें याद रखना होगा विधानसभा में प्रचंड बहुमत और गिरफ्तार केजरीवाल के प्रति जनता में सहानुभूति के बावजूद दिल्ली में लोकसभा चुनाव में केजरीवाल का जो हस्र हुआ है, उसने फिर इस सच को रेखांकित किया है कि नरम हिंदुत्व से बहुसंख्यकवादी फासीवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

शॉर्ट टर्म में भले लाभ देता दिखाई दे लेकिन दूरगामी तौर पर जैसे भाजपा को समय-समय पर विपक्ष द्वारा साथ लेना भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के लिए बहुत भारी पड़ा, वैसे ही भाजपा की पिच पर जाकर प्रतिस्पर्धा करना, भाजपा के विभाजनकारी मुद्दों पर अवसरवादी चुप्पी या appeasement भारतीय राष्ट्र-राज्य की एकता, समृद्धि और संवैधानिक लोकतंत्र के भविष्य के लिए विनाशकारी साबित होगा। राजनीतिक सवालों तथा जनमुद्दों पर सभी समुदायों की जनता की लड़ाकू एकता के साथ-साथ लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष चेतना के विकास के लिए बड़ा सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलन आज समय की मांग है

संविधान और लोकतंत्र की अधूरी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने के लिए विपक्ष, नागरिक समाज तथा मेहनतकश तबकों एवं हाशिए के समुदायों को एक साथ मिलकर लड़ना होगा।

(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments