हिंदी पट्टी राम-निषाद संबंधों की संवेदना-चेतना से बाहर नहीं निकल पाई है

मध्य प्रदेश के एक आदिवासी व्यक्ति पर प्रवेश शुक्ला के मूतने की शर्मनाक घटना और उसके बाद प्रतिक्रियाएं इस तथ्य का प्रातिनिधिक उदाहरण हैं कि हिंदी की संवेदना और चेतना स्वरूप क्या है? पहले शुक्ला एक आदिवासी पर मूतता है, उसके बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री उस व्यक्ति का पांव धुलते हैं, उसका सम्मान करते हैं। फिर सोशल मीडिया पर कुछ प्रभावी आवाजें मुख्यमंत्री के पांव धुलने को महान कार्य के रूप में प्रस्तुत करती हैं। इसे गौरवपूर्ण घटना के रूप में चित्रित करती हैं। फिर मध्यप्रदेश सरकार शुक्ला के घर पर बुलडोजर चलाने का नाटक करती है। फिर शुक्ला के परिवार (विशेषकर मां) की रोती-बिलखती तस्वीरें मीडिया दिखायी जाती हैं। फिर कांग्रेसी उसके (आदिवासी) ऊपर गंगा जल छिड़कर उसके पवित्र करते हैं और फिर उसका सम्मान करते हैं। उसके बाद वह व्यक्ति (आदिवासी) कहता है कि पंडित जी (प्रवेश शुक्ला) हमारे गांव के हैं, उन्हें बिना कोई सजा दिए छोड़ देना चाहिए। फिर ब्राह्मण महासभा शुक्ला को 51 हजार रूपए की सहायता देती है और उन्हें आर्थिक सहायता मुहैया कराने की अपील करती है।

जिस घटना पर पूरे भारतीय समाज को शर्मिंदा होना चाहिए था। किस तरह का भारतीय समाज है और यह कैसे व्यक्तियों और संस्थाओं को जन्म देता है, इस पर गहन चिंतन-मनन करना चाहिए था। इन हालातों के गहन छान-बीन में जाना चाहिए था। यह सब करने की जगह पूरी घटना को तमाशा बना दिया जाता है। 

सबसे पहले मूतने की घटना को लेते हैं। मूतने की इस घटना को भारत के सचेत और प्रबुद्ध नागरिक समाज ने एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर मूतने के व्यक्तिगत अपराध के रूप में लेने की जगह, एक वर्चस्वशाली सामाजिक समूह (ब्राह्मण-द्विज) के एक व्यक्ति द्वारा दूसरे कमजोर सामाजिक समूह (आदिवासी) को निकृष्टतम तरीके से अपमानित करने और उसकी गरिमा को कुचलने की घटना के रूप में लिया। शुक्ला वर्चस्वशाली ब्राह्मण-द्विजों के प्रतिनिधि के रूप में देखा गया है, जबकि आदिवासी व्यक्ति को हाशिए पर ढकेल दिए गए या ढकेले जा रहे समाज के प्रतिनिधि के रूप में देखा गया।

आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों ने इसे पूरे गैर-द्विज समाज (बहुजनों) को एक द्विज समाज के प्रतिनिधि द्वारा अपमानित करके और उसके गरिमा को रौंदने की कुकृत्य के रूप में देखा। कई सारे द्विज-ब्राह्मणों का भी उन्हें मसर्थन मिला। यह प्रतिक्रिया जायज और उपयुक्त थी। अपराधी शुक्ला को दंडित करने और भुक्तभोगी को न्याय दिलाने की मांग उठी। यह जरूरी मांग भी थी। इसके बाद तमाशा शुरू हुआ और भारतीय समाज का पाखंड़ी चरित्र सामने आया। इस तमाशे की शुरूआत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया।

मुख्यमंत्री के रूप में उनकी जिम्मेदारी अपराधी को दंड़ दिलाने और भुक्तभोगी को न्याय दिलाने की थी। इस संदर्भ में उनके कदम जायज थे। लेकिन उन्होंने बहुजन समाज को क्षुब्ध और आहत कर देने वाले अपमान को अपनी राजनीति का फायदा उठाने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया और इसके माध्यम से भाजपा के भीतर के अपने विरोधियों और बाहर की मुख्य चुनौती कांग्रेस के खिलाफ एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया।

आदिवासी व्यक्ति को कठपुतली बना दिया गया। शिवराज सिंह चौहान ने नरेंद्र मोदी के सफाई कर्मियों का पांव धुलने के नाटक और पाखंड़ की फूहड़ नकल की। इस पूरी प्रक्रिया में लोगों (विशेषकर बहुजनों) के दिमाग से इस बात को छिपाने और किनारे लगाने की कोशिश की गई यह वही शिवराज सिंह चौहान हैं, जिन्होंने आरएसएस-भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में मध्यप्रदेश में सवर्णों की उस सत्ता को मजबूत बना रहे हैं, जो शुक्ला जैसे लोगों को आदिवासियों पर मूतने की हिम्मत देती है।

शिवराज सिंह चौहान हिंदू राष्ट्र निर्माण की आरएसएस की उस परियोजना के सिपाही हैं, जिसका केंद्रीय लक्ष्य हिंदू सवर्ण मर्दों के वर्चस्व को भारतीय समाज पर कायम रखना है। एक मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान मोदी की तरह सवर्ण मर्दों (शुक्ला-तिवारी) के विचारों और अहंकार को ताकत दे रहे हैं,जो उन्हें बहुजनों-महिलाओं पर मूतने का दुस्साहस प्रदान करती है, दूसरी तरफ इस दुस्साहस के शिकार व्यक्ति का पांव धुलकर उसके ऊपर और सारे बहुजन समाज पर अहसान करने का पाखंड रच रहे हैं। 

शिवराज सिंह के साथ पाखंड़ की इस होड़ में कांग्रेसी भी शामिल हो जाते हैं। वे भी उस आदिवासी व्यक्ति पर गंगा जल छिड़कते हैं और उसका तथाकथित सम्मान करते हैं। आरएसएस-भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में शिवराज सिंह चौहान और सवर्ण वर्चस्व वाली कांग्रेस (विशेषकर मध्यप्रदेश में) का यह पाखंड तो समझ में आता है, लेकिन आश्चर्य तब होता है, जब खुद को बहुजन समाज की आवाज कहने वाले कुछ सोशल मीडिया इंफ्लुयेंसर इसके लिए शिवराज की वाहवाही करते हैं और उनकी तारीफों को पुल बांधते हैं। ऐसा लगता है कि पांव धुलकर शिवराज ने कोई ऐतिहासिक कार्य किया है।

वे यह भूल जाते हैं कि दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों को हर पर स्तर समता चाहिए चाहिए। गरिमामय जीवन का अधिकार चाहिए, न कि उन्हें देवता की तरह पूजा कराने और पांव धुलाने का या देवता-ऋृषि या ब्राह्मण बनने की कोई चाह है। अगर किसी में ऐसी चाह हो तो वह पूरी तरह ब्राह्मणवादी मूल्य,  विचार और आदर्श है। इसका फुले, आंबेडकर और पेरियार के बहुजन वैचारिकी और मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं। बहुजन वैचारिकी न किसी का पांव धूलने की बात करती है और नहीं किसी से पांव धुलवाना चाहती है। पांव धुलना-धुलवाना ब्राह्मणवादी संस्कृति है। बहुजन संस्कृति से इसका कोई दूर-दूर तक नाता नहीं है।

अब आते हैं कि ब्राह्मण महासभा के कुकृत्यों पर। मध्यप्रदेश की ब्राह्मण महासभा शुक्ला के परिवार को 51 हजार की सहायता प्रदान करती है और अन्य लोगों से अपील करती है कि वे शुक्ला के परिवार को आर्थिक मदद दे। यह आर्थिक मदद भी कोई निजी तौर या छिपे रूप में नहीं दी जाती है। बाकायदा पैड पर लिखकर उसे सार्वजनिक किया जाता है। इसका संदेश साफ है, कोई ब्राह्मण कितना भी बड़ा कुकृत्य करे, क्यों न वह दूसरे पर मूते तब भी ब्राह्मण महासभा उसके साथ है। एक आदिवासी पर मूतने के बाद शुक्ला को ब्राह्मण महासभा की यह आर्थिक मदद खुले तौर उसे पुरस्कृत करने का काम है। यह अन्य ब्राह्मणों के लिए संदेश है कि तुम कोई भी कुकृत्य करो हम तुम्हारे साथ हैं। हालांकि यह ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी संस्कृति की ऐतिहासिक परंपरा भी है। इस परंपरा के तहत मातृहंता परशुराम और क्षत्रियों के हत्यारे परशुराम को अपना आर्दश मानते हैं। ऐसे बहुत सारे अन्य उदाहरण भी हैं।

अब उस आदिवासी व्यक्ति पर आते हैं, जिनके ऊपर मूता गया है। हालांकि उनकी व्यक्तिगत-सामाजिक और आर्थिक स्थिति जाने बिना कोई भी टिप्पणी करना बहुत उपयुक्त नहीं है, लेकिन एक बात तो कही ही जा सकती है कि उनकी व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक स्थिति ऐसी तो है ही कि एक व्यक्ति उनके ऊपर मूतता है, दूसरा उन्हें मनमाने तरीके से अपने घर बुलाकर पांव धुलता है, तीसरा उनके ऊपर गंगा जल छिड़कता है। इस पूरी प्रक्रिया में वह व्यक्ति गरिमापूर्ण तरीके से प्रतिवाद और प्रतिरोध करने की स्थिति में नहींं। अंतिम तौर पर वह  मीडिया से यह कहता है कि पंडी जी हमारे गांव के हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए।

यह सारा घटना क्रम यह बताता है कि भारतीय सवर्णों और बहुजनों दोनों की सामूहिक चेतना रामचरित मानस के निषाद और राम की चेतना से आगे नहीं बढ़ी है। पूरा हिंदी समाज रामचरित मानस के राम और निषाद के संबंध को एक प्रेम से भरे आदर्श संबंध के रूप में देखता है। कमोबेश इसी तरह राम और शबरी के संबंध को भी देखा जाता है। तुलसी के राम द्विजों (जनेऊधारियों) के क्षत्रिय वर्ण में पैदा हुए हैं। वे खुद को रघुकुल का कहते हैं। न तुलसी ने, न राम ने अपनी वर्ण-जाति छिपाई है। निषाद शूद्र वर्ण (केवट जाति) में पैदा हुए हैं। यहां भी न तो तुलसी और न ही, निषाद ने अपनी वर्ण-जाति छिपाई है। तुलसी ने निषाद को बार-बार नीच कहा है- 

देखिए तुलसी ने कैसे निषाद राज को  साफ-साफ शब्दों में ‘नीच’ कहा-

(एहि सम (निषाद) निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥)

लोक वेद सब भांतिहि नीचा। जासु छांह छुई लेइय सींचा।।

( केवट लोक और वेद दोनों आधारों पर नीच है।)

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥ 

राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥

(भावार्थ:-फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥) 

रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥

एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥

(भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके समान (केवट) सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥)

राम, वशिष्ठ, भरत और निषाद के संबंधों के पूरे प्रसंग को देखें तो साफ तौर पर दो तथ्य सामने आते हैं। पहला इस देश के सवर्ण यह सोचते हैं कि यदि वे किसी आदिवासी, दलित और पिछड़े से थोड़ा भी प्रेमपूर्ण तरीके से बात करते हैं, उन्हें थोड़ा भी सम्मान देते हैं, उन्हें भाई कहकर पुकारते हैं। तो वे कोई बहुत ही महान कार्य करते हैं। यह उनकी बहुत भारी उदारता है और महानता है। हर स्तर पर समानता की चाह उनकी गैर-जरूरी चाह है। यही आज की तारीख में अभी भी बहुलांश सवर्णों का मनोविज्ञान और सोच है।

दूसरी तरफ बहुजनों के बीच चले तमाम समता के आंदोलनों और फुले, पेरियार और आंबेडकर की वैचारिकी की उपस्थिति के बाद भी बहुजनों के बड़े हिस्से की अभी भी यही सामूहिक संवेदना और चेतना है कि यदि कोई सवर्ण उनसे प्रेम से बात कर ले। उनके यहां आकर खाना खाने या सहभोज का नाटक करे। उन्हें अपना भाई-बंधु कह दे। वह उसे उदार और महान मान लेता है और अक्सर समता और पूर्ण मानवीय गरिमा की चाह को भूल जाता है या छोड़ देता है। सच यह है कि उदार से उदार दिखने वाला सवर्ण वर्ण-जाति की अपनी श्रेष्ठता बोध को छोड़ नहीं पाता है। और श्रेष्ठता बोध को छोड़े बिना बहुजनों से भाई-चारे की बात करता है।

इसी तरह अक्सर बहुजन (दलित, आदिवासी और पिछड़े) सवर्णों के थोड़े से उदार व्यवहार और भाईचारे की बात को ऐसे लेता है, जैसे उसने उसके ऊपर कोई अहसान कर दिया है। इस प्रक्रिया में वह अपनी गरिमा को भूलकर सवर्ण वर्चस्व को स्वीकार कर लेता है और फुले, पेरियार और आंबेडकर की हर स्तर पर समता की बात को भूल जाते हैं। आंबेडकर ने साफ शब्दों में कहा था कि समता और स्वतंत्रता के बिना बंधुता (भाईचारा) कायम ही नहीं हो सकता है।

दरअसल दलितों-आदिवासियों का पांव धुलना (शिवराज सिंह और नरेंद्र मोदी), उनके साथ सहभोज करना, उनके घर खाना-खाने का प्रदर्शन करना या उन्हें बगल बैठाकर फोटो खींचवाना यह उन्हें ‘नीच’ समझने या कमतर समझने की भावना की ही अभिव्यक्ति है। जाने-अनजाने तरीके से उनकी गरिमा और गौरव को रौंदना ही है।

सच यह है कि तुलसी और तुलसी के राम की तरह इस देश के तथाकथित उदार सवर्ण खुद को उच्च समझते हुए बहुजनों से भाईचारा कायम करना चाहते हैं। उनकी संवेदना और चेतना इससे ज्यादा विकसित नहीं हुई है। लेकिन इससे दुखद बात यह है कि इस देश के बहुजनों का भी एक बड़ा हिस्सा खुद को दोयम दर्जे का या सवर्णों से छोटा मानकर उनकी थोड़ी से उदारता और विनम्रता पर रीझ जाता है।

दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी की जरूरत है, न कि सवर्णों के श्रेष्ठता बोध से भरे उदार व्यवहार की। जब तक इस देश सवर्ण को खुद को तुलसी के राम के वारिस के रूप में रखते हुए बहुजनों (निषादों) से व्यवहार करेंगे, तब तक वे सवर्ण श्रेष्ठता बोध से मुक्त नहीं हो सकते। इसी तरह बहुजन खुद को तुलसी का निषाद या शबरी का वारिस मानते हुए खुद को सवर्णों छोटा या कमतर मानते रहेंगे,गरिमामय जीवन की चाह नहीं पूरी कर पाएंगें।

फिलहाल का सच यही है कि हिंदी पट्टी की सामूहिक औसत चेतना सवर्णों और बहुजनों के रिश्ते के मामले में राम-निषाद के रिश्ते के आदर्श से बाहर नहीं निकल पाई है। मध्यप्रदेश के मूत-प्रसंग में विभिन्न सामाजिक तबकों और उनके प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया भी इसकी पुष्टि करती है।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के संपादक हैं।)

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