कार्पोरेटी मुनाफे की टकसाल के दरबारी बने हिंदुत्व को दिखानी होगी उसकी जगह

14 जुलाई को मध्यप्रदेश के गुना में हुयी पुलिस की निर्ममता ने उसका वीडियो देखने वालों को स्तब्ध कर दिया। कोई बीसेक पुलिस वाले बंटाई पर खेती करने वाले दलित किसान राजकुमार अहिरवार और उसकी पत्नी सावित्री को मीडिया कैमरों के सामने जिस क्रूरता के साथ लाठियों से धुन रहे थे, वह दीदा दिलेरी चौंकाने वाली थी। इस दंपति के 7 महीने के दुधमुंहे समेत छहों बच्चों को भी पुलिस ने नहीं बख्शा।

यह पिटाई कथित रूप से उस जमीन को खाली कराने के लिए हो रहे थी, जिसके बारे में खुद राजकुमार ने पुलिस को बताया कि उसने यह फलां से बँटाई पर ली है –  खाद, बीज, कीटनाशक के लिए साहूकारी ब्याज पर ढाई लाख रूपये कर्जा लिया है। उसने कहा कि दो महीने में अपनी फसल काट लेने के बाद उसका इस भूमि के साथ कोई रिश्ता नहीं बचेगा। पुलिस के न मानने पर, खुद पुलिस के अनुसार, पति-पत्नी दोनों ने कीटनाशक पी लिया था – इसके बाद भी पुलिस उन्हें रुई की तरह धुने जा रही थी। राजकुमार और सावित्री फिलहाल अस्पताल में भर्ती हैं।  

इससे दो दिन पहले उज्जैन के महीदपुर में एक गाँव की दलित आबादी को उनके घरों में घुसकर दबंगों ने इतना मारा कि 6 महिलाओं सहित दर्जन भर लोग घायल हो गए। दबंग मंदिर की पूजा के लिए चन्दा देने से दलितों के इंकार किये जाने और “जिस मंदिर में हमें घुसने ही नहीं देते, प्रसाद तक नहीं देते, उस पूजा का चन्दा हम क्यों दें” और यह भी कि “अपने खेतों और घरों में काम कराने का दाम तक नहीं देते। पैसा मांगने पर बलात्कार की धमकी अलग से देते हैं, क्या इसके लिए हम चंदा दें” का जवाब सुनकर आग बबूला थे।

इन खून में भीगे टूटी हड्डियों वाले दलितों की संबंधित थाने ने पहले तो रिपोर्ट ही नहीं लिखी, फिर लिखी भी तो ऐसी कि लिखी-न लिखी बराबर। गाँव के सारे दलित उज्जैन एसपी के दफ्तर पहुंचे। यहां जो आईपीएस बैठे हैं, वे पहले ही “जय भीम” बोलने को दण्डनीय अपराध बता कर अपनी सोच का मुजाहिरा कर चुके हैं, लिहाजा सुनवाई वहां भी नहीं हुयी।  

ना तो ये दो अलग-थलग घटनाएं हैं, ना ही यह सिर्फ एक प्रदेश का मामला है। यह देश में दलितों की हालत का उदाहरण है, जो पूरे भारत में लगभग एक समान है। कोरोना काल में दलित, आदिवासी और महिला उत्पीड़न की घटनाएं और ज्यादा बढ़ी हैं। इन मामलों में नया क्या है? नया वह स्पष्ट राजनीतिक सन्देश है, जो बिना किसी आवरण, बिना किसी लाज शरम के  केंद्र में बैठी मोदी और राज्यों में बैठीं शिव राजों की सरकारों के जरिये दिया जा रहा है और वह यह है कि अब राज मनु की लिखी किताब के आधार पर चलेगा।

कुछ दिन पहले सिंधिया के साथ भगोड़े होकर भाजपाई हुए एक पूर्व मंत्री को आरएसएस के एक नेता ने, मीडिया कैमरों के सामने, अपने घर खुद थाली में और उन्हें थर्मोकोल की पत्तल में खाना खिलाकर यही सन्देश दूसरी तरह से दिया था। गुना का वीडियो वायरल होने के बाद एक तीर से कई निशाने साधने के अंदाज में कमलनाथ सरकार के जमाने के कलेक्टर-एसपी को हटाने की गोटी चल दी गयी है – किन्तु मुकदमे पीड़ित किसान परिवार पर ही लगे हैं। जांच, राहत, मुआवजे, कार्यवाही की फौरी और जरूरी मांगे उठी हैं, लेकिन सवाल का फलक इनसे कहीं ज्यादा बड़ा है। जो इन साबित और प्रमाणित निर्ममताओं को लेकर आयी प्रतिक्रियाओं के अगर, मगर, किन्तु और परन्तु में भी सामने आया है और वह है इस तरह की क्रूरताओं के प्रति उस बेचैनी का लगभग अभाव – जो किसी भी सभ्य समाज की जरूरी पहचान है।  

अश्वेत युवा जॉर्ज फ्लॉयड की संयुक्त राज्य अमरीका में हुयी निर्मम हत्या के बाद अमरीका, यूरोप और अफ्रीका में जो उबाल आया है, वह सिर्फ “काली जिंदगियां भी मायने रखती हैं” के प्रतीकात्मक नारे तक सीमित नहीं है। कोलम्बस की ही मूर्ति नहीं गिराई गयी, एक सदी पहले के राष्ट्रपति जेफर्सन को भी ढहा दिया गया, बहस तो ये भी चल रही है कि पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन के साथ क्या किया जाये ; गिरा दिया जाये या छोड़ दिया जाये !! ब्रिटेन की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में लगी दक्षिण अफ्रीका के केप उपनिवेश के ब्रितानी प्रधानमंत्री रहे सिसिल रोड्स को भी गिरा दिया गया।

किसी जमाने में कांगो में अत्याचार के जिम्मेदार बेल्जियम के राजा द्वितीय की मूर्तियां सिर्फ कांगों में ही नहीं तोड़ी गयीं – बेल्जियम के आधा दर्जन शहरों में भी उसे गिरा दिया गया। ब्रिस्टल इंग्लैंड में दासों के व्यापारी एडवर्ड कोल्स्टन की मूर्ति वहां के नागरिकों ने उठाकर उसी समंदर में फेंक दी, जिससे वह हजारों गुलाम लाया करता था। न्यूज़ीलैंड के हैमिल्टन शहर ने, जिसके नाम पर उसका नाम रखा गया था, उस ब्रिटिश नौसेना कप्तान हैमिल्टन की ही मूर्ति टपका दी। मूर्तियां हटाना इतिहास मिटाना नहीं होता, यह इतिहास बनाना होता है। ऑक्सफ़ोर्ड के कुलपति लुईस रिचर्ड्सन ने ठीक ही कहा है कि “हमें अपने अतीत से मुठभेड़ करनी होगी। इतिहास को छुपा कर जागरूक और प्रबुद्ध नहीं बना जा सकता।”  

एक जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर दुनिया हिली हुयी है और इधर जम्बूद्वीपे भारतखण्डे में, जहां हर 15 मिनट में कम-से-कम एक दलित उत्पीड़न की घटना घटती है, जहां हर रोज 6 दलित स्त्रियों को बलात्कार का शिकार बनाया जाता है। (इनमें आदिवासी शामिल नहीं हैं।) ऐसी निर्ममताओं पर नए-नए बहाने बनाये जा रहे हैं, अतिक्रमणों के फ़साने गढ़े जा रहे हैं। यहां संविधान के लागू होने के 70 वर्ष बाद भी जयपुर के हाईकोर्ट के सामने सभ्यता और समानता की समझ को मुंह चिढ़ाती मनु की प्रतिमा सीना ताने खड़ी है। वामन अवतार और परशुराम समेत जाने कौन, कौन स्कूल-कालेज के कोर्स में पढ़ाये जा रहे हैं। हालत यहां तक आ गयी है कि मनु, जिसकी कारगुजारी ने देश की वैज्ञानिक, साहित्यिक और बाकी सारी शक्ति पर डेढ़ हजार साल तक पाला मारकर रखा, उसकी कही के आधार पर राज चलाने में विश्वास रखने और जताने वाला विचार गिरोह सत्ता में आकर बैठ गया है। 

सामाजिक चेतना का शुद्धिकरण, समानता की सोच की परवरिश अपने आप नहीं होते, करने होते हैं। इसे अतीत से मुठभेड़ और विगत के पापों का अहसास के बिना नहीं किया जा सकता। समाज को सभ्य बनाने की यह पहली और अनिवार्य शर्त है। मनु का धिक्कार और तिरस्कार किये बिना, उसे सार्वजनिक रूप से अस्वीकार किये बिना भारत में ऐसा नहीं हो सकता। जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद अमरीका की पुलिस ने घुटनों के बल बैठकर माफी माँगी थी। यहां समूचे देश को घुटनों पर बैठकर कहना होगा कि मनु – गौतम – नारद स्मृतियाँ हमारी सांस्कृतिक या धार्मिक विरासत नहीं हैं। शम्बूक और एकलव्य के साथ किये गए अपराधों को अपराध कहना होगा और दोनों से अलग-अलग क्षमा मांगनी होगी। गार्गी, मैत्रेयी, सीता, द्रौपदी, अहिल्या  और सावित्री फुले सहित सती बनाकर जबरिया जला दी गयी नारियों सहित आज भी घर और समाज में महिला होने की वजह से प्रताड़ना झेल रही उनकी बेटियों से खेद व्यक्त करते हुए कहना होगा कि हमें माफ़ कीजिये, बहुत बेइंसाफियां हुयी आपके साथ।   

इन दिनों जब मनु का अति-संक्रामक वायरस – हिंदुत्व – कारपोरेट की गोद में बैठकर अपने सींग और बघनखे पैने कर रहा है, तब सामाजिक चेतना को अद्यतन करने का यह काम बाद के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। कार्पोरेटी मुनाफे की टकसाल के दरबारी बने इस हिंदुत्व, जिसका हिन्दू दर्शन, समाज और जीवन शैली के साथ रत्ती भर का नाता नहीं है, से अलग-अलग नहीं, एक साथ लड़ना होगा। लड़ते लड़ते जीतना होगा, क्योंकि जीत का कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। सारे आंदोलनों, संघर्षों को सामाजिक चेतना और उसके आर्थिक कारणों के संघर्षों और अभियानों के साथ जोड़ना होगा। इसे खेती-किसानी, मजदूरी और पगार, रोजगार और अधिकार, शिक्षा और लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाइयों का अविभाज्य हिस्सा बनाकर ही जीता जा सकता है। 

(लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

बादल सरोज
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