जीडीपी के करिश्माई आंकड़ों की कथा

अर्थव्यवस्था संबंधी ताजा आंकड़ों ने मीडिया कवरेज में एक तरह का चमत्कारिक प्रभाव पैदा किया है। कई रिपोर्टों में इसका उल्लेख किया गया है कि जहां दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं मंदी टालने के लिए संघर्षरत हैं, वहीं भारत में इस वित्त वर्ष में चौंकाने वाली वृद्धि दर्ज होने जा रही है। इसलिए यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि आखिर ऐसा कैसे हुआ है!

कहानी दरअसल यह है कि भारत सरकार के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने आर्थिक वृद्धि संबंधी आंकड़ों में कई संशोधन किए। (India’s GDP grows at 8.4% in October-December quarter; 2023-24 growth scaled up to 7.6% from 7.3% – The Hindu) नतीजा हुआ कि भारत के 2023-24 के आर्थिक आंकड़ों में चमत्कारिक चमक आ गई।

  • पिछले महीने एनएसओ ने इस वर्ष जीडीपी में वृद्धि दर 7.3 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था।
  • अब इसे बढ़ाकर 7.6 प्रतिशत कर दिया गया है।
  • बताया गया है कि वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में यह दर 8.4 प्रतिशत तक पहुंच गई।
  • चालू वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था में अनुमानित सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) को 6.9 प्रतिशत पर रखा गया है।

जाहिर है, सारी कहानी आंकड़ों में किए गएसंशोधनों पर आ कर टिक जाती है। इसलिए यह देखना अहम है कि क्या संशोधन हुए हैः

 एनएसओ ने 2022-23 में दर्ज हुई जीडीपी वृद्धि दर को घटाकर अब 7.2 से 7 प्रतिशत कर दिया है।

 तो 2023-24 की जीडीपी वृद्धि दर मापने का आधार नीचे हो गया। लाजिमी है कि उससे इस वर्ष की वृद्धि दर ऊंची दिखने लगी।

 वैसे संशोधन 2021-22के आंकड़ों में भी किया गया है। यहां ये बात याद रखनी चाहिए कि यह कोरोना लॉकडाउन के बाद का पहला वित्त वर्ष था। 2020-21 में लॉकडाउन का बहुत खराब असर भारत की आर्थिक वृद्धि पर पड़ा था। उससे नीचे हुए आधार के कारण 2021-22 में हुई धीमी आर्थिक वृद्धि की खासा ऊंची मालूम पड़ी। तब बताया गया था कि पूरे वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर 9.1 प्रतिशत रही। अब उसे बढ़ाकर 9.7 प्रतिशत कर दिया गया है। तो चूंकि वह आधार ऊंचा हुआ, तो अगले वर्ष की वृद्धि दर गिर गई।

 उधर पिछले वित्त वर्ष के बारे में बताया गया था कि जीवीए वृद्धि 7 प्रतिशत रही। लेकिन अब इसे घटा कर 6.7 प्रतिशत कर दिया गया है। तो यहां भी आधार नीचे हुआ। उससे चालू वित्त वर्ष का अनुमान ऊंचा हो गया।

(जीवीए किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादित हुई कुल वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को कहा जाता है। किसी क्षेत्र, उद्योग या उद्यम ने अर्थव्यवस्था में कितना योगदान किया, उसका मूल्य को जीवीए कहा जा सकता है। कुल उत्पादन के (बिक्री) मूल्य में से लागत के मूल्य को घटाने के बाद जो हासिल बच जाता है, उसे जीवीए कहते हैं।)

लेकिन इस कहानी के चमत्कारिक पहलू यहीं खत्म नहीं हो जाते। निम्नलिखित आंकड़े भी महत्त्वपूर्ण हैः

 एनएसओ ने चालू वित्त वर्ष में निजी उपभोग में अब सिर्फ तीन प्रतिशत की वृद्धि होने का अनुमान लगाया है, जबकि जनवरी में जारी आंकड़ों में इसके 4.4 प्रतिशत रहने का अंदाजा लगाया गया था।

 तीसरी तिमाही में कृषि क्षेत्र के जीवीए में तो गिरावट आने- यानी माइनस ग्रोथ की बात कही गई है। यह गिरावट 0.8 फीसदी की गिरावट रहने का अनुमान लगाया गया है। पूरे वित्त वर्ष में महज 0.7 प्रतिशत वृद्धि होने की बात कही गई है।

यह जाना-पहचाना तथ्य है कि आज भी भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। इस क्षेत्र में वृद्धि दर लगभग गतिरुद्ध अवस्था में है। इसके बावजूद अगर ऊंची जीडीपी वृद्धि दर्ज हुई है, तो यह स्वाभाविक प्रश्न उठेगा कि जीडीपी की इस खुशहाली में कौन शामिल है और कौन इससे बाहर है। मगर इस मुद्दे पर आने के पहले अभी आए आंकड़ों पर कुछ और गौर करना उचित होगा।

एनएसओ ने बताया हैः

  • व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार और प्रसारण जैसे क्षेत्रों में 2023-24 में जीवीए ग्रोथ 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है। 2022-23 में ये वृद्धि 12 प्रतिशत रही थी। यानी इस वर्ष इसमें 40 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आएगी। ये वो क्षेत्र हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है।
  • तो ये सवाल लोगों के उठेगा कि तो फिर वृद्धि कहां दर्ज हुई है। एनएसओ के आंकड़ों से ही यह साफ है कि जिस क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था को अपने कंधों पर उठा रखा है, वह सरकार का पूंजीगत निवेश है। यहां याद करना उचित होगा कि चालू वित्त साल के बजट में सरकार ने दस लाख करोड़ रुपए इस मद में रखे थे।
  • मगर इस मद में ज्यादा पैसा खर्च करने का परिणाम हुआ है कि सरकारी उपभोग में गिरावट आई है। तीसरी तिमाही में इसमें 3.2 प्रतिशत की गिरावट आई।

तो कुल सूरत यह उभरती है कि कृषि सहित अर्थव्यवस्था के वे क्षेत्र, जहां ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है, वहां खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक रुझान गिरावट का है। ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं है कि निजी उपभोग में बढ़ोतरी का स्तर निम्न बना हुआ है।

यह बात खुद इकरा जैसी रेटिंग एजेंसियों के अधिकारियों ने भी कहा है कि जीडीपी वृद्धि तभी स्वस्थ मानी जाएगी, जब निजी निवेश और उपभोग में वृद्धि होगी। इन दोनों में गहरा आपसी संबंध है। लोगों की क्रय शक्ति बढ़ती है, तो वे अधिक उपभोग करते हैं। तब निजी क्षेत्र वास्तविक अर्थव्यवस्था में अधिक निवेश के लिए प्रेरित होता है।

इकरा की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर ने कहा है- हालांकि तीसरी तिमाही में निजी उपभोग में मामूली वृद्धि हुई, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में मांग का स्तर मद्धम ही रहा। इंडिया रेटिंग के प्रमुख अर्थशास्त्री सुनील कुमार ने कहा है- वृद्धि दर में रफ्तार जारी रहने से संकेत मिलता है कि अंतरराष्ट्रीय चनौतियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की अंतर्शक्ति बनी हुई है।

लेकिन इसमें जोखिम भी मौजूद हैं। कुल मांग मोटे तौर पर सरकारी पूंजीगत निवेश से प्रेरित है। अभी जो उपभोग संबंधी मांग है, उसमें उन वस्तुओं और सेवाओं की भरमार है, जिसका उपभोग ऊपरी 50 प्रतिशत आय वर्ग वाले लोग करते हैं। यानी मांग का आधार व्यापक नहीं है। यह बात मैनुफैक्चरिंग ग्रोथ में भी झलकती है। मैनुफैक्चरिंग विकास का आधार भी व्यापक नहीं है।

तो बात साफ हो जाती है। सरकारी आंकड़े भले गुलाबी तस्वीर पेश करते हों, लेकिन उनके जरिए देश की खुशहाली के किए जाने वाले दावे बेबुनियाद हैँ। असल सूरत यह है कि खुशहाली कुछ तबकों के पास सिमटती जा रही है। उसी अनुपात में बहुसंख्यक आबादी की मुश्किलें बढ़ रही हैं।

इसी हफ्ते ब्रिटिश कॉमर्शियल संस्था नाइट फ्रैंक संस्था अपनी अपनी एक ताजा रिपोर्ट में बताया कि भारत में अति धनी व्यक्तियों की संख्या तेजी से बढ़ीहै। इसमें अनुमान लगाया गया है कि अगले चार साल में ये तादाद और भी ज्यादा बढ़ेगी। दरअसल, भारत दुनिया में अति धनवान व्यक्तियों की संख्या में सबसे तेज वृद्धि दर दर्ज करने वाला देश बन गया है।

नाइट फ्रैंक ने कहा है कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश बना हुआ है और उसी का परिणाम है कि यहां सबसे तेज गति से अति धनी लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। यानी इन दोनों ही परिघटनाओं में गहरा संबंध है। रिपोर्ट में अति धनवान उन लोगों को माना गया है, जिनके पास तीन करोड़ डॉलर- यानी लगभग सवा दो सौ करोड़ रुपये- से अधिक की संपत्ति है।

नाइट फ्रैंक संस्था की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत के अति धनवान लोगों के शगल क्या हैं। बताया गया है कि पिछले वर्ष लग्जरी घड़ियों, कलाकृतियों और जेवरात पर इन लोगों के खर्च में क्रमशः 138, 105 और 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यानी संकेत यह है कि किसी उत्पादक कार्य में धन लगाने के बजाय ये लोग विलासिता पर अधिक खर्च कर रहे हैं। मुमकिन है कि रियल एस्टेट में भी वे अपना धन लगा रहे हों।

बहरहाल, अर्थव्यवस्था की कुल सूरत और रुझान के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अति धनवान लोगों की आमदनी का प्रमुख स्रोत शेयर-बॉन्ड-ऋण बाजार-वायदा कारोबार आदि यानी वित्तीय संपत्तियों में निवेश है। यह एक चक्र है। इनके निवेश से वित्तीय बाजार चमकते हैं और फिर उससे इन लोगों को होने वाले लाभ में बढ़ोतरी होती है। ये सारी बढ़ोतरी देश के जीडीपी में भी गिनी जाती है।

मतलब यह कि आम अर्थव्यवस्था- यानी निवेश, उत्पादन, वितरण, मांग, उपभोग और रोजगार सृजन वाली मुख्य अर्थव्यवस्था के समानांतर एक वित्तीय अर्थव्यवस्था ठोस रूप ले चुकी है। देश के धनी-मानी लोग उसका आधार हैं और वे ही उससे लाभान्वित होने वाले तबके भी हैं। देश की बहुंसख्यक आबादी इस सारी चमक से बाहर बनी हुई है। यही आज की भारतीय अर्थव्यवस्था की हकीकत है। और इसकी एक और पुष्टि एनएसओ के संशोधित आंकड़ों से हुई है।

वैसे यह प्रश्न भी अप्रासांगिक नहीं है एनएसओ ने आंकड़ों में संशोधन किया है, या आम चुनाव के मद्देनजर सत्ताधारी दल के राजनीतिक तकाजों के मुताबिक उनमें हेरफेर किया है? बहरहाल, यह एक अलग चर्चा का विषय है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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