इस राउण्ड के विजेता राहुल गांधी हैं

नरेंद्र मोदी के घोर आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि जहां तक राजनीति का खेल खेलने का मामला है, तो वे उसके मास्टर हैं। वह हमेशा अपने ऊपर होने वाले सभी हमलों को बुमेरांग (ऐसा हथियार जो चलाने वाले के पास ही वापस आ जाता है) में बदलने में कामयाब रहे हैं, जिनको सही समय आने पर इस्तेमाल करने के लिए वे सहेज कर रख लेते हैं।

पिछले हफ्ते ‘यूट्यूब’ पर आया बीजेपी का एक कार्टून इसका सबूत है। इसमें हम देखते हैं कि मोदी एक साधारण आदमी के कपड़े पहने हुए हैं, उनके कंधे पर एक कपड़े का थैला लटका हुआ है, वे सोनिया और राहुल गांधी को किनारे पर हांफते हुए छोड़कर खड़ी सीढ़ियों की अंतहीन ऊंचाइयां शांतिपूर्वक चढ़ते जा रहे हैं।

कार्टून में लिखी गयी बातें उनके खिलाफ बहुत पहले की गई ‘चायवाला’, ‘मौत के सौदागर’ और ‘नीच’ प्रजाति जैसी टिप्पणियों की याद दिलाती हैं। इस कार्टून का नायक मोदी एक के बाद दूसरी ऊंचाई चढ़ता जा रहा है। यह कार्टून थोड़ा अटपटा है, लेकिन प्रभावी है।

यही कारण है कि हाल ही में इंग्लैंड में राहुल गांधी की टिप्पणियों पर मोदी ने जो व्यक्तिगत रूप से इतनी उत्तेजना फैलायी, वह बहुत हैरान करने वाली है। इससे संकेत मिलता है कि शायद वह राजनीति के खेल में उतने माहिर नहीं हैं जितना आमतौर पर माना जाता है।

मैं राहुल गांधी की प्रशंसक नहीं हूं, लेकिन यह स्वीकार करती हूं कि अपने विदेश दौरे पर उन्होंने जो कहा और नहीं कहा, उसके बारे में अनावश्यक हो-हल्ले में प्रधानमंत्री या उनके द्वारा चुनी हुई उनके वरिष्ठ मंत्रियों की हमलावर टीम की तुलना में राहुल गांधी ने अधिक गरिमा और परिपक्वता का व्यवहार दिखाया है।

संसद का बजट सत्र पूरे सप्ताह बाधित रहा, क्योंकि मोदी के मंत्रीगण और सांसद उत्तेजना में बिफरे हुए इस बात पर अड़े हुए हैं कि राहुल ने ‘विदेशी धरती’ पर भारतीय लोकतंत्र के बारे में जो कुछ कहा, उसके लिए वे माफी मांगें।

राहुल ने यह कहते हुए सही उत्तर दिया कि उन्होंने वह नहीं कहा जो वे लोग बता रहे हैं और इसलिए क्षमा मांगने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह एक उचित टिप्पणी है, क्योंकि किसी को भी किसी ऐसी बात के लिए माफी मांगने का आदेश नहीं दिया जा सकता है जो उसने कहीं ही न हो।

यह सच है कि राहुल ने जब यह कहा कि भारत में लोकतंत्र मर चुका है और लोकतांत्रिक देशों को इस पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि “भारतीय लोकतंत्र एक सार्वजनिक अच्छाई है” तो उन्होंने अपने शब्दों का चुनाव असावधानी से किया। लेकिन उन्होंने पश्चिमी लोकतांत्रिक नेताओं से भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए नहीं कहा, और न ही उन्होंने ऐसा कुछ भी कहा जिसे भारत का अपमान माना जा सके।

जो कोई भी संसद के लिए निर्वाचित होता है उसे इस बात को ठीक से जान लेना चाहिए कि भारत और भारत सरकार के बीच अंतर है। मोदी सरकार में वरिष्ठतम मंत्रियों तक की असंतुलित और उन्माद भरी टिप्पणियों से आपको यह नहीं लगेगा कि उन्हें इस बात का बोध है। राहुल गांधी, सरकार की और उन नीतियों की आलोचना कर रहे थे, जिनके बारे में उनका मानना ​​है कि उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर किया है।

राहुल को यह कहने का अधिकार है, और यह उन्हें देशद्रोही या भारत-विरोधी नहीं बनाता है, जैसा कि उनके खिलाफ चीख-चिल्ला रहे मंत्री सिद्ध करना चाहते हैं। अगर वे उनकी टिप्पणी से इतने ही परेशान हैं, तो निश्चित रूप से सबसे अच्छा तरीका यह होता कि दोनों सदनों को बर्बाद करने के बजाय संसद में इस मामले पर बहस की जाती। लेकिन बहस किस टिप्पणी पर होती?

राहुल इससे पहले भी कई बार ऐसी ही बातें कह चुके हैं। प्रधानमंत्री पर अपने हमलों में वे उन्हें भ्रष्ट और चोर तक कह चुके हैं, लेकिन हमारे ‘राष्ट्रवादी’ मंत्री इस बात से सबसे ज्यादा आहत दिखाई दे रहे हैं कि इस बार उनके द्वारा भारतीय लोकतंत्र की आलोचना ‘विदेशी धरती’ पर की गयी है।

क्या भाजपा डिजिटल रूप से इतनी अनपढ़ है कि उसे अभी तक पता नहीं चला है कि इंटरनेट ने भौगोलिक सीमाओं को इस हद तक धुंधला कर दिया है कि आप जो एक देश में कहते हैं वह ठीक उसी समय दूसरे देशों में भी देखा और सुना जा सकता है? पूरा मामला बेतुका और बचकाना है। सच्चाई यह है कि जिस आदमी को भाजपा ने आठ साल से पप्पू या एक नासमझ के रूप में खारिज कर दिया है, इस पूरे मामले में एकमात्र वही एक परिपक्व व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है।

एक पूर्व-मोदी भक्त के रूप में मुझे जो पहेली सबसे ज्यादा हैरान करती है, वह यह है कि जिस आदमी की लोकप्रियता रेटिंग विश्व के नेताओं में सबसे ज्यादा हो, वह भीतर से इतना असुरक्षित क्यों दिख रहा है। कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ताओं ने खुलकर कहा है कि इस बार संसद को ठप करने के लिए सरकार ही जिम्मेदार है क्योंकि प्रधानमंत्री डरे हुए हैं कि कहीं उनके करीबी दोस्त गौतम अडानी के आर्थिक लेन-देन के मामले उजागर हो जाएंगे तो उस कीचड़ से खुद उनकी छवि भी मलिन होगी।

यदि वास्तव में यही वह बात है जिसने उनके आत्मविश्वास और उनके राजनीतिक समीकरणों को हिला कर रख दिया है, तो प्रधानमंत्री को एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को जांच का आदेश देने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। जेपीसी का अब तक का इतिहास हमें बताता है कि यह ऐसा संसदीय उपकरण है जिसमें ज्वलंत मुद्दे भी धीरे-धीरे मर जाते हैं या कम से कम बहुत लंबे समय तक दबे रहते हैं।

चाहे जैसे भी हो, यह संसद को चलने देने का समय है। जैसा कि प्रधानमंत्री गर्व से कहते हैं, अगर हम वास्तव में ‘लोकतंत्र की जननी’ हैं, तो संसदीय लोकतंत्र में सदन की बैठकों को बर्बाद करना गलत है। चूंकि लोकसभा चुनाव अभी एक वर्ष से अधिक दूर हैं, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि मतदाताओं को यह भरोसा दिलाया जाए कि जिन लोगों को वे संसद में भेजते हैं, वे वहां उनकी समस्याओं पर बातचीत करते हैं।

हाल के दिनों में ऐसे कई संसदीय सत्र हुए हैं जिनमें लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदन चीखने-चिल्लाने, वेल में आकर हंगामा करने या गुस्से में वाकआउट करने का अखाड़ा बन कर रह गये हैं। ऐसे बहुत से सत्र रहे हैं जो छोटे-छोटे मुद्दों पर चीखने-चिल्लाने और हंगामे में बर्बाद हो गए हैं। संसद चलाना सरकार का काम है इसलिए कृपया अपना काम करें।

(वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह का लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार, अनुवाद- शैलेश)

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