उनके तालिबान तालिबान हमारे वाले संत !

अपने 20 साल के नाजायज और सर्वनाशी कब्जे के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से लोकतान्त्रिक संगठनों, आंदोलनों और समझदार व्यक्तियों का पूरी तरह सफाया करने के बाद अमरीकी उसे तालिबानों के लिए हमवार बनाकर, उन्हें इस खुले जेलखाने की चाबी थमाकर चले गए हैं।  जाते जाते इन्हें सिर्फ अपना असला – बारूद, अरबों डॉलर और हवाई बेड़ा ही सौंप कर नहीं गए “अच्छा तालिबानी” होने का प्रमाणपत्र भी देकर गए हैं। इस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अपने लगुओं-भगुओं से भी अंगूठा लगवा कर गए हैं।  यह ठेठ अमरीकी अंदाज़ है ; “जंह-जंह पांव पड़े दुष्टन के तंह तंह बंटाढार।” इन “अच्छे तालिबानों” ने अपनी अच्छाई का प्रदर्शन करने के लिए भले जोरदार प्रचार अभियान छेड़ा हो, बाइडेन और उसके नाटो गिरोह के ब्रिटेन जैसे देश उनकी विज्ञप्तियों को छाप-दिखाकर अपनी आपराधिक लिप्तता छुपाने में लगे हों मगर असलियत बयानों में नहीं कारगुजारियों में नुमायां होती है – जो एक के बाद एक लगातार हो रही है।  

पिछले महीने भर में इन तालिबानियों ने अफ़ग़ानिस्तान की तीन बड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक शख्सियतों की क्रूर ह्त्या करके अपनी “अच्छाई” के दावे के खोखलेपन को उजागर कर दिया है।  सबसे पहले वे 28-29 जुलाई में खाशा जवान के नाम से लोकप्रिय व्यंगकार कॉमेडियन फज़ल मोहम्मद के लिए आये।  उन्हें उनके घर से उठाकर ले गए और मार डाला।  उसके बाद वे 4 अगस्त को कवि और इतिहासकार अब्दुल्ला अतेफी के लिए आये और उन्हें मार डाला।  महीना पूरा होने से पहले ही 29-30 अगस्त को उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के लोकप्रिय लोकगायक और संगीतकार फवाद अन्दराबी को उनके घर में घुस कर गोलियों से भून दिया। 

अभी कल न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में तालिबानी सरकार के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने अन्दराबी के कत्ल को जायज ठहराते हुए दावा किया है कि “इस्लाम में संगीत की मनाही है।”

“द काइट रनर” और “थाउजेंड स्प्लेंडिड संस” जैसे बेस्ट सेलर उपन्यासों के अफ़ग़ानी मूल के लेखक खालेद होसैनी ने इसे शुद्ध बर्बरता करार दिया है और अमरीका को इसका जिम्मेदार ठहराया है। सभ्यताओं के विनाश और सांस्कृतिक धरोहरों के सत्यानाश के अमरीकी रिकॉर्ड उनकी पैदाइश से उसके साथ हैं।  कोई 529 साल पहले जब लुटेरे कोलम्बस ने अमरीका “खोज निकाला” था तब पर्याप्त विकसित सभ्यताओं वाले अनेक कबीले इस महाद्वीप पर रहते थे।  उन सबका नरसंहार करके जो अमरीका बना तबसे लेकर 2003 में  बग़दाद में दुनिया की सबसे पुरानी लाइब्रेरी और म्यूजियम के साथ जो किया वह सबने देखा। यही उसने बीस बरस तक अफ़ग़ानिस्तान में किया  इसकी  सचमुच की खासियत यह है कि जो भी उसके साथ गया या जिसके भी वो पास गया वह कहीं का नहीं रहा। न तंत्र बचा न लोकतंत्र, न अमन बचा, न चमन। बचा तो सिर्फ और सिर्फ बिखराव, कोहराम और अराजकता; कट्टरता और बर्बरता।   

बहरहाल यहां प्रसंग तालिबानी प्रवक्ता का यह दावा है कि इस्लाम में संगीत निषिद्ध है ; हराम है।  क्या सचमुच ? 

इस्लाम और मौसिकी 

2007 में बनी एक पाकिस्तानी फिल्म “खुदा के लिये” में इस बेहूदी धारणा के सांड़ को बहुत ही दिलचस्प अंदाज में सीधे सींग से पकड़ा गया है।  फिल्म में  इस्लामिक स्कॉलर मौलाना वली बने नसीरुद्दीन शाह ने खुद इस्लाम के उदाहरणों के साथ इस धारणा को गैर इस्लामिक बताया है।  वे कहते हैं कि दुनिया भर में अब तक हुए कुल जमा 1 लाख 24 हजार पैगम्बरों से सिर्फ 4 पर किताबें नाज़िल हुयी।  इनमें से एक थे हजरत दाऊद जिन्हें अल्ला ने मौसिकी – संगीत – बख्शा।  वे पूछते हैं कि “मौसिकी अगर हराम है तो महज 4 ख़ास पैगम्बरों में से एक को ख़ास इसी काम के लिए क्यों भेजा गया ?” 

(10 मिनट की इस जिरह को उन्हें जरूर सुनना चाहिए जो तालिबानी बर्बरों को इस्लाम का अनुयायी या पैरोकार मानते हैं।  इसका लिंक है ; https://youtu.be/GYQLFWkA0vA )

इसी जिरह में मौलाना वली (नसीरुद्दीन शाह) दाढ़ी और पहनावे की कट्टरता पर कहते हैं कि “दीन में दाढ़ी है – दाढ़ी में दीन नहीं है ……  दाढ़ी तो अबू जहल के भी थी और लिबास भी वही था जो रसूलल्लाह जेबेतन फरमाते थे। ” 2007 की यह फिल्म एक सुन्नी शोयेब मंसूर ने पाकिस्तान में बैठकर बनाई है ; जो बाकी सबके साथ इस बात का भी उदाहरण है कि धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली कट्टरता के खिलाफ जद्दोजहद उसी धर्म को मानने वालों के बीच जारी है – सही तरीका है भी यही। 

कट्टरतायें चाहे जिस रंग रूप की हों, जो भी झण्डा उठाकर, नेजा या त्रिशूल लहराती आएं सार में एक सी होती हैं। कट्टरताओं की फिसलन हमेशा जहालत और बर्बरता की ओर ले जाती है। 

जब इन्हें याद करें तब उन्हें भी न भूलें 

अफ़ग़ानिस्तान के फज़ल मोहम्मद, अब्दुल्ला अतेफी और फवाद अंदराबी की मौत पर हम सब स्तब्ध और दुःखी हैं, सारी मनुष्यता को शोक मनाना चाहिए – मगर इसके साथ इन तीनों से कहीं पहले हिन्दुस्तान में 20 अगस्त 2013 को पुणे में गोलियों से भून दिए गए नरेंद्र दाभोलकर, 20 फरवरी 2015 को मुम्बई में मार डाले गए गोविन्द पानसारे और 30 अगस्त को धारवाड़ में क़त्ल कर दिए गए एम एम कुलबुर्गी की शहादतें और उनके हत्यारों का खुलेआम छुट्टा घूमना भी याद कर लेना चाहिए। पुणे और मुम्बई की लाइब्ररियों, अहमदाबाद की पेंटिंग्स के संग्रहालय का ध्वंस और फिल्मों-गीतों-संगीतों पर नित नए हमले भी संज्ञान में लेना चाहिए। तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन द्वारा जनवरी 2015 में अपने लेखक की मौत का एलान और उसकी वजह स्मरण में रखनी चाहिए।  

क्योंकि, “उनके तालिबान तालिबान हमारे तालिबान संत” का दोगलापन कहीं नहीं ले जाएगा।  भेड़िये सिर्फ भेड़िये होते हैं और लाखों वर्ष का विवरण और हजारों वर्ष की सभ्यता गवाह है कि भेड़ियों ने कभी गाँव नहीं बसाये।  और यह भी कि भेड़िये रौशनी और जगार से डरते हैं।  वे मशाल जलाना नहीं जानते। 

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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