आंकड़ों का भ्रमजाल खड़ा करने की ये मजबूरी !

आज यह आम समझ है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की रोजी-रोटी के मुद्दों पर कोई ठोस प्रगति किए भी राजनीतिक बहुमत जुटाने में सक्षम बनी हुई है। ऐसा करने में वह सियासी नैरेटिव पर पूरा कंट्रोल कर लेने की वजह से कामयाब हुई है। कई समीक्षक इसे इस रूप में भी कहते हैं कि मौजूदा दौर में भाजपा ने राजनीति और आर्थिकी को अलग कर दिया है। यानी उसकी राजनीतिक सेहत पर सामान्यतः इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों की माली हालत कैसी है। बड़ी संख्या में लोग, जो इस सरकार की आर्थिक प्राथमिकताओं का शिकार बने हैं, वे भी मतदान के दिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपना भरोसा जताते दिखते हैं।

यह मानना तार्किक नहीं होगा कि नैरेटिव पर यह कंट्रोल भाजपा सरकार ने सिर्फ मीडिया को डरा कर हासिल किया है। बल्कि उसकी इस सफलता का संबंध भीउसकी आर्थिक प्राथमिकताओं से ही है। नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों ने अर्थव्यवस्था पर गिने-चुने कारोबारी घरानों का एकाधिकार कायम करने का मार्ग प्रशस्त किया है। चूंकि मेनस्ट्रीम मीडिया पर ज्यादातर इन्हीं घरानों का स्वामित्व है, इसलिए स्वाभाविक है कि वे संस्थान दिन-रात मोदी सरकार का गुणगान करते हैं। वे और अन्य कारोबारी घराने भाजपा को बड़े पैमाने पर आर्थिक संसाधन भी मुहैया कराते हैं, जिससे उसने सोशल मीडिया पर भी अपना दबदबा बना रखा है।

बहरहाल, यह भी भाजपा के शक्तिशाली बने रहने की कहानी का सिर्फ एक पक्ष है। इसका दूसरा, और कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि भाजपा आज पिछले तीन दशकों में प्रचलित रहे लगभग सभी प्रमुख विमर्शों का प्रतिनिधित्व कर रही है। अपनी ‘’मंदिर’ की विशेष राजनीति के साथ उसने ‘मार्केट’ और ‘मंडल’ की परिघटनाओं को भी काफी हद तक खुद में समाहित कर लिया है। चूंकि पिछले तीन- साढ़े तीन दशकों में इन तीनों विमर्शों का देश के जन मानस पर इतना वर्चस्व बना रहा है कि आज जो भी राजनीतिक चर्चा में शामिल होता है, वह तीन में से ही किसी एक कोण से बोल रहा होता है। और आज वे तर्क अंततः भाजपा को मजबूत करते हैं।

लेकिन इन तीनों कोण मिल कर भी आम जन के सामने मौजूद वास्तविक प्रश्नों का उत्तर देने में अक्षम हैं।

बहरहाल, इस प्रकरण का एक दूसरा पक्ष भी है। वह यह कि भूख, बेरोजगारी और अभाव से जूझ रहे लोगों को ‘मार्केट’ की चमक, तथा धार्मिक और जातीय पहचान की बहसों से हमेशा के लिए संतुष्ट रख पाना असंभव है। इस बात को विपक्षी दल समझने की भले जरूरत ना महसूस करें, लेकिन वर्तमान सत्ता-तंत्र इसे अवश्य समझता है। यहां सत्ता-तंत्र से हमारा अभिप्राय सिर्फ भाजपा नेतृत्व से नहीं है। बल्कि मौजूदा राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) से लाभान्वित और इसे संचालित करने वाले पूरे वर्ग से है। यह तबका समझता है किआम जन के जीवन स्तर में सुधार के बिना आधुनिक युग में कोई सत्ता-तंत्र अपनी जन-वैधता (legitimacy) लंबे समय तक कायम नहीं रख सकता।

जबकि उनकी मुश्किल यह है कि मौजूदा पॉलिटिकल इकॉनमी का आम जन के हितों से सीधा अंतर्विरोध है। आर्थिकी की मौजूदा दिशा पर चलते हुए यह संभव नहीं है कि बहुसंख्यक जनता के जीवन स्तर में सुधार को भी सुनिश्चित किया जाए। ऐसा उन उपायों के जरिए भी नहीं किया जा सकता, जिनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी “रेवड़ी संस्कृति” कह कर आलोचना तो करते हैं। यह दीगर बात है कि चुनावी तकाजों के कारण खुद उनकी सरकार ने इस संस्कृति को बढ़ावा देने में सबसे बड़ा योगदान किया है।

सत्ता-तंत्र के सामने यह अंतर्विरोध एक गंभीर चुनौती है। इसीलिए दुनिया के अन्य कई हिस्सों की तरह भारतीय शासक वर्ग की भी गढ़े गए और गलत ढंग से पेश आंकड़ों पर निर्भरता बढ़ती चली गई है। उन्होंने इनके जरिए जमीनी हकीकत के ठीक उलटी तस्वीर गढ़ने की कोशिश की है। अब देखने की बात यह है कि इस तरीके से वे जनता की निगाह में अपनी वैधता को कितने समय तक बचा पाते हैं।

जनता की निगाह में वैध शासन होने की धारणा इतिहास में कई दौर से गुजरी है। राजतंत्रके दौर में राजा या सामंत अपनी वैधता दैवी सिद्धांत या शक्ति के सिद्धांत से प्राप्त करते थे। सिद्धांत यह था कि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, इसलिए उसको राज करने का अधिकार है। इस रूप में राजा जो कहता है, वही कानून है और वो जो निर्णय लेता है, वही न्याय है।

व्यवहार में शक्ति का सिद्धांत से इससे बहुत अलग नहीं था। दरअसल, सामंत या राजा वही होते थे, जो ताकत के बल पर दूसरों को अपने मातहत रखने में सक्षम होते थे। इसलिए शासक के शक्तिशाली होने की धारणा स्वतः समाज में बनी रहती थी। इसके ऊपर से दैवीय सिद्धांत के जरिए वे अपने शासन के लिए धार्मिक और नैतिक मान्यता हासिल करने की कोशिश करते थे।

लेकिन लोकतंत्र का उदय होने के साथ यह समझ बदली। सामाजिक समझौते का सिद्धांत सामने आया। सिद्धांत यह था कि लोगों से शासक का एक सामाजिक समझौता है, जिसके तहत लोगों ने अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी शासक को दी है। यह सिद्धांत विकसित होते हुए प्रातिनिधिक लोकतंत्र के रूप में पहुंचा। तब शासक की वैधता इस दावे से बनने लगी कि वह जनता प्रतिनिधि है। इसी से मतदान के जरिए प्रतिनिधि चुनने की प्रथा सामने आई।

राज्य और शासक का काम जनता की आर्थिक-सामाजिक बेहतरी भी है, इस मान्यता को समाजवादी चिंतकों ने प्रचलित किया। इस सोच का प्रभाव 1917 में सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति के बाद बना। बोल्शेविकों ने खुद को श्रमिक हितों का प्रतिनिधि घोषित किया। उन्होंने अपने शासन की वैधता का दावा आम जन को शोषण से मुक्ति दिलाने और उनके जीवन स्तर में लगातार सुधार के वादे से किया। यह सोवियत क्रांति की सफलता थी, जिससे दुनिया भर के शासकों को आम जन की भलाई को अपना मकसद बताना पड़ा। इस तरह कल्याणकारी राज्य की अवधारणा अस्तित्व में आई।

74 साल के प्रयोग के बाद भले सोवियत संघ बिखर गया, लेकिन उसके बाद भी यह मजबूरी बनी हुई है कि हर आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था अपनी वैधता जनता के जीवन स्तर में सुधार के दावे से प्राप्त करे। 1990 के दशक में जब कथित एक ध्रुवीय विश्व में नव-उदारवादी नीतियां दुनिया भर थोपी गईं, तब इन नीतियों की वैधता बनाने के लिए भी कुछ सिद्धांत गढ़े गए। कहा गया कि नई नीतियों से तीव्र गति से आर्थिक विकास होगा, जिससे सबका जीवन स्तर सुधरेगा।

ऐसा सचमुच होता दिखे, इसलिए विश्व बैंक ने गरीबी मापने की एक विवादास्पद परिभाषा गढ़ी और उसे दुनिया भर में मान्य बनवाया गया। इसी परिभाषा के आधार पर भारत में नव-उदारवादी दौर में करोड़ों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के दावे विभिन्न सरकारों ने किए हैँ। जबकि हकीकत यह है कि इस दौर में सारी सेवाओं का बाजारीकरण हुआ, जिस वजह से स्वास्थ, शिक्षा, परिवहन से लेकर तमाम जरूरतों को अपनी जेब से हासिल करने की मजबूरी बनी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आम जन के लिए अनाज की औसत उपलब्धता घटी, जबकि आजादी के बाद से 1980 तक इसमें संतोषजनक ढंग से वृद्धि हुई थी।

बहरहाल, कहने का तात्पर्य यह है कि यह सिर्फ मोदी सरकार नहीं है, जिसने अपनी जन-वैधता को बनाए रखने के प्रयास में नैरेटिव्स गढ़ने की कोशिश की है। लेकिन इस दौर की सच्चाई यह है कि अब ऐसा करने के लिए आंकड़ों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और यहां तक कि निराधार आंकड़ों को गढ़ने की प्रवृत्ति भी प्रचलन में आ गई है।इस सिलसिले में हाल की कोशिशों पर हम ध्यान दे सकते हैः

  • नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने हुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) को आधार बना कर यह दावा किया कि गुजरे दस काल (यानी नरेंद्र मोदी के शासनकाल) में भारत में गरीबी इतनी तेजी से घटी है कि अब देश की सिर्फ पांच प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है।
  • राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) ने 2022-23 में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर घरेलू उपभोक्ता खर्च सर्वे रिपोर्ट जारी की, जिसमें दावा किया गया कि शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में पिछले दस वर्षों में परिवारों का उपभोक्ता खर्च तेजी से बढ़ा है। यह वृद्धि ग्रामीण इलाकों में ज्यादा रही है। इस आधार पर इस समझ को झुठलाने की कोशिश की गई कि वर्तमान सरकार के शासनकाल में ग्रामीण एवं कृषि अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त होती चली गई है। साथ ही इसके जरिए आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ने की हकीकत को झूठलाने की कोशिश की गई है।
  • इसके साथ ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर के उत्तरोत्तर अधिक तेज होते जाने के लिए भी नए आंकड़े जारी किए गए।
  • प्रयास यह बताने का रहा है कि मोदी सरकार की अर्थनीति से सर्वांगीण विकास हो रहा है और इसके लाभ सभी तबकों को मिल रहे हैं। इस तरह इस धारणा को चुनौती दी गई है कि वर्तमान सरकार मोनोपोली कारोबारी घरानों के हित में काम कर रही है और उसकी नीतियों की वजह से आम जन की जेब से धन का बड़े कारोबारी घरानों को ट्रांसफर हो रहा है।

सरकार का आज मीडिया पर पूरा नियंत्रण है। इसलिए वह जो कहानी बताना चाहती है, वह उसी रूप में देश की बहुत बड़ी आबादी तक पहुंच जाती है। सरकारी कहानी में आम तौर पर इतने अधिक और इतनी बड़ी संख्या में छिद्र मौजूद रहते हैं कि विशेषज्ञ उन्हें तुरंत सामने ला देते हैं। यह दीगर बात है कि मीडिया चूंकि उनकी बातों को जगह नहीं देता, इसलिए सरकार का नैरेटिव जनता के एक बड़े हिस्से के बीच टिकाऊ बना रहता है। 

बहरहाल, हालिया सरकारी कहानियों के पोल भी घंटों के अंदर खुल कर सामने आ गए।

  • MPI गरीबी मापने के एक पूरक पैमाने के तौर पर तो उपयोगी कसौटी है, लेकिन यह गरीबी मापने का मूलभूत मानदंड नहीं हो सकता। वैसे भी नीति आयोग ने MPI के घटक तैयार करने में अपनी सुविधा के हिसाब से कुछ पैमाने जोड़ दिए हैं। (https://thewire.in/economy/poverty-data-india-niti-aayog)
  • घरेलू उपभोक्ता खर्च सर्वे को लेकर यह बात सामने आई कि इस बार एनएसओ ने इस सर्वेक्षण की विधि बदल दी, जिसके बाद 2011-12 में हुए सर्वे से ताजा निष्कर्षों की तुलना करना अतार्किक हो गया। (https://janchowk.com/beech-bahas/household-consumption-expenditure-survey-why-the-misconception-of-happiness/)
  • जीडीपी के हालिया आंकड़ों और उनसे ही सामने आए उपभोग के आंकड़ों में इतना फर्क मौजूद है कि उसे समझना देश के मशहूर सांख्यिकी विशेषज्ञों को भी मुश्किल मालूम पड़ा है। जाहिर है, इस विसंगति की तरफ ध्यान दिला कर उन्होंने ऊंचे तीव्र विकास दर के दावों पर संदेह जताया है। (https://www.financialexpress.com/policy/economy-huge-gap-between-gdp-amp-consumption-inexplicable-3411036/lite/)
  • आर्थिक आंकड़ो के जरिए गुमराह करने वाली कहानी कैसे बुनी जा रही है, जीडीपी के ताजा आंकड़ों की घोषणा उसकी एक बेहतरीन मिसाल बनी है। (https://janchowk.com/beech-bahas/the-story-of-the-charismatic-figures-of-gdp/#google_vignette)

स्पष्टतः सरकार अपने दावों से अपना राजनीतिक मकसद साधने में फिलहाल कामयाब हो सकती है, लेकिन उसका परिणाम देश की मूलभूत समस्याओं के और गंभीर रूप लेने के रूप में सामने आ रहा है। बहरहाल, इस पूरी कहानी का सकारात्मक पक्ष यह जाहिर होना है कि जज्बाती और नफरती तरकीबों से राजनीतिक सफलता को स्थायी बनाने का भ्रम ऐसा करने वाले सियासतदां और सियासी पार्टियों में भी नहीं होता। वे जानते हैं कि पेट और रोजी-रोटी के मुद्दे इतने प्रबल हैं कि वे कभी भी प्रमुख सवाल बन कर उभर सकते हैं। इसलिए वे भी इन सवालों पर फर्जी दावों के जरिए जनता की निगाह में वैधता पाने की कोशिश करते हैं। यही फिलहाल भारत में हो रहा है।

परंतु यह इस बात का ठोस संकेत भी है कि इन ठोस सवालों पर राजनीति को संगठित करने की संभावना लगातार प्रबल बनी हुई है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि फिलहाल ऐसी राजनीति को संगठित करने वाली ताकतें उभरकर सामने नहीं आ पा रही हैँ।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

सत्येंद्र रंजन
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