नवउदारवादी अर्थनीति, बहुसंख्यकवाद और राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर विपक्ष की चुप्पी आत्मघाती

देश तीखे राजनीतिक संघर्ष के दौर में प्रवेश कर गया है, जिसमें सबकी निगाह अगले महीने शुरू होने जा रहे चुनावों की श्रृंखला पर है जिनकी चरम परिणति भारतीय लोकतन्त्र के लिए निर्णायक 2024 के आम चुनाव में होगी। 

राष्ट्रीय स्तर पर महंगाई, बेरोजगारी तो अब प्रमुख सवाल बन ही गए हैं, इनके साथ ही अलग-अलग तबके अपने-अपने सवालों को लेकर assert कर रहे हैं- छात्र BHU, इलाहाबाद से लेकर पटना विश्वविद्यालय तक बढ़ती फीस के खिलाफ आंदोलित हैं, युवा रोजगार के सवाल पर लड़ रहे, किसान MSP गारंटी कानून तो मजदूर वर्ग लेबर कोड के खिलाफ, आदिवासी जल-जंगल-जमीन पर हमले के ख़िलाफ़ तो नागरिक समाज राजनीतिक कैदियों की रिहाई जैसे सवालों के लिए संघर्षरत हैं। बिहार में नए राजनीतिक ध्रुवीकरण और कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से भी माहौल बदला है। कुल मिलाकर एक सेक्युलर डेमोक्रेटिक एजेंडा राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आता जा रहा है। 

लेकिन इस सबसे बिना विचलित हुए नवउदारवादी कार्पोरेटपरस्त नीतियों के राजमार्ग पर मोदी सरकार की सरपट दौड़ जारी है। एक ओर खरबपति कारपोरेट अकूत मुनाफा लूट रहे हैं, दूसरी ओर विराट आबादी का दरिद्रीकरण बढ़ता जा रहा है।

इस सब से पैदा होने वाली राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिए संघ-भाजपा अपनी time-tested रणनीति पर कायम हैं-जनता के लिए दिखावेबाजी के populist कार्यक्रम, साम्प्रदायिक विभाजन के नित नए उपाय और लोकतांत्रिक ताकतों का दमन।

22 अक्टूबर को रोजगार पर इवेंट organise किया गया, प्रधानमंत्री ने 75 हजार लोगों को नियुक्ति पत्र देने की शिगूफेबाजी की जबकि स्वयं उनके मन्त्री के अनुसार 8 लाख पद 2020 से ही खाली पड़े थे। 

जनमुद्दों पर तेज होते विमर्श को divert करने और विभाजनकारी दिशा में मोड़ने के लिए वे युद्धस्तर पर  कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए ऊपर से संघ-भाजपा के शीर्ष नेता जनसँख्या असंतुलन जैसे एकदम फ़र्ज़ी  सवाल उठाकर समाज में साम्प्रदायिक विभाजन को तीखा कर रहे हैं, तो उनके निचले स्तर के नेता और कार्यकर्ता जहर-बुझी hate speech तथा कई जगहों पर छोटे-मोटे विवाद को साम्प्रदायिक रंग देकर माहौल को बिगाड़ने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इसी के साथ भ्रम और विभाजन पैदा करने के लिए पिछले दिनों भागवत ने कुछ नामचीन मुस्लिम शख्सियतों से मुलाकात की और मस्जिद भ्रमण किया, उधर उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों पर डोरे डाले जा रहे हैं।

मोदी-शाह जोड़ी आने वाले महीनों में होने जा रहे चुनावों को जीतने के लिए किस हद तक जाएगी, इसका बैरोमीटर है बिलकिस बानो मामले में हत्यारे बलात्कारियों की केंद्रीय गृह मंत्रालय के इशारे पर समय से पूर्व हुई रिहाई और उनका फूल माला के साथ अभिनन्दन। पहले इस पूरे मामले में केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर पब्लिक डोमेन में स्पष्टता नहीं थी, पर अब यह साफ हो चुका है कि केंद्र सरकार की सहमति से ही यह हुआ है, CBI कोर्ट में चल रहे मामले में केंद्र के involvement के बिना दरअसल यह सम्भव ही नहीं था।

लोकतान्त्रिक आंदोलनों और असुविधाजनक बौद्धिक शख्सियतों को कुचलने और दमन के मामले में सरकार ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी हैं। काले कानूनों का धड़ल्ले से दुरुपयोग करते हुए गढ़े हुए फ़र्ज़ी आरोपों में सालों साल से लोगों को बिना मुकदमा चलाये जेलों में सड़ाया जा रहा  है। यहां तक कि उन्हें बेल तक नहीं मिलने दी जा रही है।

हमारे राष्ट्र और लोकतन्त्र के भविष्य के लिए निर्णायक महत्व के इन तीनों मूलभूत प्रश्नों-बहुसंख्यकवाद, लोकतान्त्रिक अधिकारों पर हमले और नग्न करपोरेटपरस्ती- पर अधिकांश विपक्षी दलों का response निराशाजनक है। चुनावों में जीत -हार के पार इन सवालों का उसूली और बुनियादी महत्व तो है ही, सच तो यह है कि इन प्रश्नों पर सिद्धान्तनिष्ट स्टैंड लिए बिना 2024 के चुनावी समर में भी संघ-भाजपा को विपक्ष पटखनी नहीं दे सकता।

सत्ता के खेल की सबसे नई खिलाड़ी आप पार्टी की रणनीति इसका क्लासिक उदाहरण है। 

वह political स्पेक्ट्रम में एक्सट्रीम राइट  स्पेस के लिए BJP से प्रतिस्पर्धा कर रही है। हाल ही में बिलकिस बानो प्रकरण में आप नेताओं ने अपनी चुप्पी द्वारा बलात्कारी हत्यारों की रिहाई का विरोध करने से इनकार करके, गुजरात की रैलियों में केजरीवाल ने जय श्रीराम का उद्घोष करके और बौद्ध दीक्षा कार्यक्रम में जाने पर अपने दिल्ली सरकार के समाज-कल्याण मंत्री राजेन्द्रपाल गौतम का इस्तीफा लेकर अब इसमें रत्ती भर भी कोई शक-सुबहा की गुंजाइश नहीं छोड़ी है।

उसके नेताओं का यह तर्क है कि भाजपा ध्रुवीकरण के जाल में विपक्ष को फंसाना चाहती है, उससे बचकर ही हम उसे हरा सकते हैं। पर यह घातक तर्क विशुद्ध अवसरवाद है। क्योंकि इस तरह आप जीत भी जाते हैं तो सरकार भी तो इसी तर्क से चलाएंगे। आप पार्टी न दिल्ली में चुनाव पूर्व शाहीन बाग आंदोलन के दौरान जुल्म के शिकार मुसलमानों के साथ खड़ी हुई, न चुनाव के ठीक बाद दिल्ली दंगों के दौरान। तर्क वही था कि  मुसलमानों पर हो रहे जुल्म पर बोलने से भाजपा को फायदा हो जायगा! फिर आपके जीतने से लोकतन्त्र और उत्पीड़ित जनता का क्या भला हुआ ?

जाहिर है, भाजपा के ध्रुवीकरण के जाल में फंसने से बचने के तर्क का तो कहीं अंत ही नहीं है। 

राजनीति में आप पार्टी भले ही BJP से प्रतिस्पर्धा कर रही है, लेकिन विचारधारा के क्षेत्र में अपने pragmatism से अंततः संघ-भाजपा की बहुसंख्यकवादी विचारधारा को ही स्थापित कर रही है, उनके विचार की समाज में स्वीकार्यता और वैधता को बढ़ा रही है।

जाहिर है यह longterm में आत्मघाती ही साबित होगा। भले ही आज आप ने दिल्ली में उन्हें हरा दिया, पर उनकी विचारधारा का बढ़ता जनाधार अंततः यहां भी उन्हें जीत दिलाएगा।

दरअसल पिछले 40 साल से यही चल रहा है। आप पार्टी सबसे नग्न (naked) ढंग से यह राजनीति कर रही है, लेकिन मुख्यधारा के अन्य दल भी इसी विचारधाराविहीन अवसरवादी राजनीति के रास्ते पर चल रहे हैं, डिग्री का और अलग-अलग राज्यों और alliances की मजबूरियों में वे कुछ रस्मी बयानबाजी भले कर दें।

ठीक इसी तरह UAPA और अन्य काले कानूनों के तहत जेलों में बंद देश के अनेक जनपक्षीय बुद्धिजीवियों, लोकतांत्रिक

आंदोलन की नामचीन हस्तियों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं जिनमें बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल हैं, के सवाल पर left को छोड़कर प्रमुख विपक्षी दलों की चुप्पी गौरतलब और बेहद चिंताजनक है। दरअसल ये सारे राजनीतिक कैदी हैं और इन्हें इनके राजनीतिक विचारों के लिए दण्डित किया जा रहा है जो मौजूदा सरकार और शासक वर्ग के लिए असुविधाजनक हैं।

यह इसी देश के सर्वोच्च न्यायालय का फैसला रहा है कि किसी व्यक्ति को उसके विचारों के लिए दंडित नहीं किया जा सकता, यहां तक कि वह हथियारबंद क्रांति के विचार के समर्थन का मामला हो या खालिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने का, जब तक कि वह व्यक्ति कोई ऐसा act न कर रहा हो जो कानून के अनुसार अपराध हो। 

आज उसे 180 डिग्री पलट दिया गया है। जो इंकलाब या क्रांति शब्द बुनियादी परिवर्तन के समानार्थी के बतौर प्रयुक्त होता रहा है, उसके उच्चारण को भी साजिश मान लिया गया है।

राजनीतिक बंदियों और काले कानूनों के सवाल पर विपक्षी राजनीतिक दलों की चुप्पी का क्या मतलब है ? यह चुप्पी उन व्यक्तियों को लेकर नहीं है, यह चुप्पी एक तरह से समाज के उन तबकों के हितों और संघर्षों को लेकर है जो आज कारपोरेट हिंदुत्व के निशाने पर हैं।

दरअसल, अपने मूल में यह चुप्पी उन हक की लड़ाइयों के खिलाफ है जिनके पक्ष में बोलने के कारण ये लोग जेल में हैं। यह चुप्पी खान-खदानों पर कारपोरेट कब्जे के पक्ष में है और उजाड़े जा रहे आदिवासियों के खिलाफ है। यह चुप्पी बहुसंख्यकवाद के पक्ष में है और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध है। दिल्ली में बौद्ध दीक्षा के लिए संघी हमले के निशाने पर आये राजेन्द्रपाल गौतम के सवाल पर चुप्पी बौद्धों, दलितों  की धार्मिक आज़ादी के विरुद्ध है।

विपक्ष का यह अवसरवाद उनसे राजनीतिक कीमत वसूलेगा। समाज के उत्पीड़ित तबकों की लड़ाकू ताकतों, नागरिक समाज की  प्रतिबद्ध आवाजों, मेहनतकशों-किसानों-छात्र युवाओं के जनान्दोलनों को जो फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध के सबसे मजबूत दुर्ग हैं, उन्हें  कुचलने में सत्ता अगर सफल हो गयी तो संसदीय विपक्ष भी कोई  प्रभावी चुनौती पेश नहीं कर पायेगा और उन्हें भी घुटने पर लाने में  वह कामयाब हो जाएगी।

मुस्लिम प्रश्न पर विपक्ष की अवसरवादी चुप्पी केवल और केवल RSS-भाजपा के बहुसंख्यकवादी एजेण्डा को वैधता देगी और उस पिच पर उनके साथ प्रतिस्पर्धा विपक्ष के लिए शुरू से ही एक हारी हुई बाजी है।

आज समय की मांग है कि सुसंगत लोकतन्त्र और मेहनतकश तबकों के पक्ष में खड़ी सारी ताकतें-कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट-गांधीवादी, अंबेडकरवादी, जनान्दोलन की ताकतें- मोर्चाबद्ध होकर एक वैकल्पिक एजेंडा के साथ सामने आएं और इसे पूरे देश का एजेंडा बना दें, जिसके शीर्ष पर हो-कारपोरेटपरस्ती, बहुसंख्यकवाद और काले कानूनों का खात्मा, सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई तथा सभी के लिए भोजन-आवास, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य की गारंटी। 

यात्राओं, रैलियों, अभियानों में केवल सदिच्छाएँ नहीं, जनता के जीवन की बेहतरी और लोकतन्त्र के भविष्य का ठोस कार्यक्रम-आधारित आश्वासन ही चुनावों में भाजपा की हार की कहानी लिखेगा।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

लाल बहादुर सिंह
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लाल बहादुर सिंह