कन्हैया पर राजद्रोह मामलाः सरकने लगा है केजरीवाल के चेहरे से धर्म निरपेक्षता का नकाब

दिल्ली विधानसभा के चुनाव खत्म हो चुके हैं। केजरीवाल की प्रचंड जीत के बाद उनके चेहरे से धर्मनिरपेक्षता का नकाब अब धीरे-धीरे सरक रहा है। कल तलक कन्हैया कुमार को निर्दोष मानने वाली दिल्ली सरकार ने अब कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का केस चलाने की इजाजत दे दी है। दिल्ली पुलिस कन्हैया समेत अन्य छात्रों पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (राजद्रोह) और अन्य धाराओं के तहत केस पहले ही फ़ाइल कर चुकी है।

हालांकि मैं नहीं मानता कि केजरीवाल का यह फैसला बहुत ज्यादा हैरतअंगेज करने वाला है, क्योंकि इस तरह के फ़ैसले की उम्मीद पहले ही अनेक राजनीतिक जानकारों के द्वारा जाहिर की जा चुकी थी। ख़ासकर वामपंथी विचारधारा के सियासी पंडितों ने केजरीवाल की नब्ज़ बहुत पहले पकड़ ली थी। हालांकि जब भी टीम केजरीवाल पर बीजेपी की सहयोगी पार्टी होने का आरोप लगा तो इसे अनेक जानकारों ने अति वामपंथी मानसिकता की निर्रथक उपज बतलाया, लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ स्प्ष्ट होता जा रहा है।

केजरीवाल सरकार के इस फ़ैसले को सही ढंग से समझने के लिए मेरे ख़्याल से दो बातें जानना आवश्यक हैं….
1. आखिर क्या है राजद्रोह कानून? और किन परिस्थितियों में यह लगाया जाता है?
2. उस घटना के बारे में जानना जिसके आरोप में कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का केस चलाने की इजाज़त मिली है।

आइए सबसे पहले जानते हैं कि क्या है राजद्रोह की धारा 124A?
आईपीसी की धारा 124A के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति लिखकर, बोलकर या फिर किसी अन्य तरीके से भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ नफरत, शत्रुता या फिर अवमानना पैदा करेगा, उसको राजद्रोह का दोषी माना जाएगा। इसके लिए तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है।

राजद्रोह की धारा का इतिहास
सर्वप्रथम 1837 में लॉर्ड टीबी मैकाले के नेतृत्व वाले विधि आयोग ने IPC कानून को लाई, लेकिन जब 1860 में यह कानून बनकर तैयार हुआ तो इसमें राजद्रोह से जुड़ा कोई कानून नहीं था। बाद में जब वर्ष 1870 में सर जेम्स स्टीफन को अपराध से निपटने के लिए एक विशिष्ट खंड की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने आईपीसी (संशोधन) अधिनियम, 1870 के तहत धारा 124A को IPC में शामिल किया।

भारत में राजद्रोह एक संगीन अपराध है। इसके तहत दोनों पक्षों के मध्य आपसी सुलह का भी कोई प्रावधान नहीं है। धारा 124A के अनुसार, यह एक गैर-ज़मानती अपराध है। इस धारा के तहत सज़ा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि अपराध सिद्ध न हो जाए। मुकदमे की पूरी प्रक्रिया के दौरान आरोपित व्यक्ति का पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया जाता है। इसके अलावा वह इस दौरान कोई भी सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता। साथ ही उसे समय-समय पर कोर्ट में भी हाज़िर होना पड़ता है।

आजादी से पहले के समय तक भारतीय राष्ट्रवादियों और स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल जमकर किया गया। अंग्रेजी सरकार क्रांतिकारियों के दमन के लिए इस कानून के तहत उन्हें जेल में डाल देती थी। इस केस का पहला प्रयोग बाल गंगाधर तिलक पर किया गया। बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में ‘देश का दुर्भाग्य’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। इसके लिए 1908 में उन्हें धारा 124A के तहत छह साल की सजा सुनाई गई।

1922 में अंग्रेजी सरकार ने इसी धारा के तहत महात्मा गांधी के खिलाफ केस दर्ज किया था। उन्होंने भी अंग्रेजी सरकार की आलोचना में वीकली जनरल में ‘यंग इंडिया’ नामक लेख लिखे थे। गांधी जी ने कहा था, “आईपीसी की धारा 124A नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए बनाया गया कानून है।”

उन्होंने यहां तक कहा था, “मैं जानता हूं इस कानून के तहत अब तक कई महान लोगों पर मुकदमा चलाया गया है और इसलिए मैं इसे स्वयं के लिए सम्मान के रूप में देखता हूं।” ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह, लाला लाजपत राय और अरविंद घोष समेत तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की आवाज को दबाने और आतंक कायम करने के लिए राजद्रोह कानून का जमकर दुरुपयोग किया था।

आजादी के बाद भी इस कानून का दुरुपयोग बंद नहीं हुआ, सत्तारूढ़ सरकार ने इस कानून का इस्तेमाल करके आम नागरिकों की आवाज को दबाने का काम अकसर किया। आजादी के बाद राजद्रोह कानून के कई अहम मसले अदालतों तक पहुंचे और इन मामलों के दौरान देश के सर्वोच्च न्यायिक संस्था सुप्रीम कोर्ट की कई टिप्पणियां काफी अहम हैं।

■ केदारनाथ सिंह मामला
बिहार के रहने वाले फॉरवर्ड कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्‍य सरकार ने एक भाषण के मामले में राजद्रोह का केस दर्ज किया था। इस पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने भाषण पर रोक लगा दी थी। बाद में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीमकोर्ट में पांच जजों की एक बेंच ने आदेश देते हुए कहा था कि ‘देशद्रोही भाषणों और अभिव्‍यक्ति में केवल तभी सजा दी जा सकती है जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा, असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़ा हो।”

■ बलबंत सिंह बनाम पंजाब सरकार मामला
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन (31 अक्टूबर 1984) को चंडीगढ़ में बलवंत सिंह नाम के एक शख्स और उसके एक अन्य साथी ने मिल कर ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए थे। सरकार ने उन पर राजद्रोह का केस दायर किया। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में कहा था, “महज नारेबाजी करना राजद्रोह नहीं है।”

■ 2008 में समाजशास्त्री आशीष नन्दी मसला
2008 में समाजशास्त्री आशीष नंदी ने गुजरात दंगों पर राज्य सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए एक लेख लिखा था। इस लेख से भड़की सरकार ने उन पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया। इस मसले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए मामले को हास्यास्पद बताया था।

■ विनायक सेन का मसला
2010 में नक्‍सल विचारधारा फैलाने के आरोप में विनायक सेन पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया। उनके साथ नारायण सान्‍याल और कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी देशद्रोह का दोषी पाया गया था। इन्‍हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। बाद में 16 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट से विनायक सेन को जमानत मिल गई थी।

■ कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी का मामला
मुंबई में 2011 में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समय असीम त्रिवेदी ने यह कार्टून बनाए थे। 2012 में काटूर्निस्‍ट असीम त्रिवेदी को उनकी साइट पर संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तस्‍वीरें पोस्‍ट करने की वजह से राजद्रोह कानून के तहत गिरफ्तार किया गया।

2012 में तमिलनाडु सरकार ने कुडनकुलम परमाणु प्‍लांट का विरोध करने वाले सात हजार ग्रामीणों पर राजद्रोह की धाराएं लगाईं थी। 2012 में ही अपनी मांगों को लेकर हरियाणा के हिसार में जिलाधिकारी के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे दलितों ने मुख्यमंत्री का पुतला जलाया तो उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा हुआ था। वर्ष 2014 में तो झारखंड में विस्थापन का विरोध कर रहे आदिवासियों पर भी राजद्रोह कानून की धारा का प्रयोग किया गया था।

■ 2015 में गुजरात मे हार्दिक पटेल पर पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने के कारण गुजरात पुलिस की ओर से उन्हें राजद्रोह के मामले के तहत गिरफ्तार किया था। वर्ष 2015 में ही दिवंगत पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली के खिलाफ उत्तर प्रदेश की एक अदालत में राजद्रोह के आरोप लगाए गए थे। इन आरोपों का आधार नेशनल ज्यूडिशियल कमिशन एक्ट (NJAC) को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करना बताया गया था।

विधि के जानकारों का कहना है कि संविधान की धारा 19 (1) में पहले से अभिव्यवक्ति की स्वतंत्रता पर सीमित प्रतिबंध लागू है, ऐसे में 124A की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए ।

2018 में विधि आयोग ने ‘राजद्रोह’ विषय पर एक परामर्श पत्र में कहा था कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना को राजद्रोह नहीं माना जा सकता। विधि आयोग ने स्पष्ट कहा, “सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है।” यह आरोप केवल उन मामलों में लगाया जा सकता है जहां हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को अपदस्थ करने का इरादा हो। अगस्त 2018 में भारत के विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया जिसमें सिफारिश की गई थी कि यह समय देशद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124A पर पुनः विचार करने और उसे निरस्त करने का है।

परामर्श रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं….
★ विधि आयोग ने अपने परामर्श पत्र में कहा है कि एक जीवंत लोकतंत्र में सरकार के प्रति असहमति और उसकी आलोचना सार्वजनिक बहस का प्रमुख मुद्दा है।
★ इस संदर्भ में आयोग ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124A, जिसके अंतर्गत राजद्रोह का प्रावधान किया गया है, पर पुनः विचार करने या उसे रद्द करने का समय आ गया है।
★ आयोग ने इस बात पर विचार करते हुए कि मुक्त वाक् एवं अभिव्यक्ति का अधिकार लोकतंत्र का एक आवश्यक घटक है, के साथ “धारा 124A को हटाने या पुनर्परिभाषित करने के लिये सार्वजनिक राय आमंत्रित की है।
★ पत्र में कहा गया है कि भारत को राजद्रोह के कानून को क्यों बरकरार रखना चाहिए, जबकि इसकी शुरुआत अंग्रेज़ों ने भारतीयों के दमन के लिए की थी और उन्होंने अपने देश में इस कानून को समाप्त कर दिया है।
★ इस तरह आयोग ने कहा कि राज्य की कार्रवाइयों के प्रति असहमति की अभिव्यक्ति को राजद्रोह के रूप में नहीं माना जा सकता है। एक ऐसा विचार जो कि सरकार की नीतियों के अनुरूप नहीं है, की अभिव्यक्ति मात्र से व्यक्ति पर राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

गौरतलब है कि अपने इतिहास की आलोचना करने और प्रतिकार करने का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत सुरक्षित है। राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा करना आवश्यक है, लेकिन इसका दुरुपयोग स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर नियंत्रण स्थापित करने के उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
★ आयोग ने कहा कि लोकतंत्र में एक ही पुस्तक से गीतों का गायन देश भक्ति का मापदंड नहीं है। लोगों को उनके अनुसार देश भक्ति को अभिव्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो
(एनसीआरबी) ने साल 2014 से राजद्रोह के केस के आंकड़े जुटाना शुरू कर दिया है। एनसीआरबी के रिकार्ड के अनुसार 2014 से 2016 के दौरान राजद्रोह के कुल 112 मामले दर्ज हुए, जिनमें करीब 179 लोगों को इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया, लेकिन केवल दो लोगों को ही सजा मिल पाई। राजद्रोह के कानून को जन्म देने वाले ब्रिटेन ने खुद इंग्लैंड में 2010 में इस कानून को खत्म करते हुए कहा कि दुनिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में है।

इसके अलावा आस्ट्रेलिया ने 2010 में, स्काटलैंड ने भी 2010 में, दक्षिण कोरिया ने 1988 में इंडोनेशिया ने 2007 में देशद्रोह के कानून को खत्म कर दिया। राजद्रोह के कानून का कई मौकों पर दुरुपयोग करने वाली कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने घोषणा पत्र में राजद्रोह के कानून को खत्म करने का वादा किया था, लेकिन पार्टी चुनावों में बुरी तरह हार गई और उसका वादा घोषणा-पत्र तक सिमट कर रह गया।

राजद्रोह के कानून, इसके इतिहास, इससे जुड़े विभिन्न चर्चित मसलों तथा इस कानून के संदर्भ में हाईकोर्ट/सुप्रीमकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियों और विधि आयोग के परामर्श पत्र को जानने के बाद अब आते हैं कन्हैया कुमार पर राजद्रोह के आरोप के मसले पर। सबसे पहले इस मसले को सिलसिलेवार ढंग से समझने का प्रयास करते हैं।

साल था 2016, स्थान- जेएनयू कैंपस, तारीख़ नौ फरवरी यानी संसद भवन पर हुए हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी के तीन साल बाद की तारीख, कार्यक्रम का आयोजन किया था डेमेक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) के पूर्व सदस्यों ने। मकसद था संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की न्यायिक हत्या का विरोध करना और जम्मू-कश्मीर के लोगों के संघर्ष और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुटता दिखाना।

कार्यक्रम का आयोजन कर रहे लोगों का मानना था कि अफजल गुरु और मकबूल भट्ट की न्यायिक हत्या की गई है। कोर्ट में अपनी बात रखने का पूरा मौका नहीं दिया गया है। इस कार्यक्रम में लोगों को बुलाने के लिए पूरे जेएनयू में पोस्टर लगाए गए थेय़ पोस्टर में कश्मीर के संघर्ष का भी जिक्र भी था।

हालांकि जब ये कार्यक्रम शुरू होने वाला था, उसके ठीक पहले जेएयू प्रशासन ने कार्यक्रम की मंजूरी देने से इनकार कर दिया, क्योंकि छात्र संगठन एबीवीपी के नेता सौरभ कुमार शर्मा ने जेएनयू प्रशासन को पत्र लिखकर इस कार्यक्रम को कैंपस के माहौल के लिए खतरनाक बताया था। इसके बाद यह कार्यक्रम जेएनयू के साबरमती ढाबा के पास हुआ।

आरोप लगाया गया कि इस कार्यक्रम में देश विरोधी नारे लगाए गए। कुछ निजी चैनलों पर घटना से संबंधित वीडियो क्लिप चलाए गए। 11 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ 124A और 120 के तहत केस दर्ज किया। 12 फरवरी 2016 को जेएनयू के तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को दिल्ली पुलिस ने राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया।

दिल्ली पुलिस ने मामले से संबंधित सात वीडियो हैदराबाद के ट्रूथ लैब्स में भेजे, जिनमें से दो वीडियो फर्जी पाए गए। पता चला कि वीडियो में ऐसे लोगों की आवाज जोड़ी गई है, जो कार्यक्रम में मौजूद नहीं थे। मई, 2016 में दिल्ली पुलिस को गांधीनगर में भेजी गई वीडियो क्लिप्स की फरेंसिक रिपोर्ट मिल गई, इसमें चार वीडियो सही पाए गए। हालांकि इनमें से किसी वीडियो में कन्हैया कुमार को देश विरोधी नारे लगाते हुए नहीं पाया गया।

दिल्ली सरकार ने इस पूरे मामले की मैजिस्ट्रेट जांच के आदेश दिए, जब रिपोर्ट सामने आई तो कन्हैया कुमार के खिलाफ नारेबाजी के कोई सबूत नहीं मिले। नई दिल्ली जिला मैजिस्ट्रेट संजय कुमार ने कहा, ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगे थे, लेकिन ये जेएनयू के बाहर के लोग थे, इस बारे में और जांच की ज़रूरत है।’ अगस्त 2016 में कन्हैया कुमार को जमानत मिल गईं।

कन्हैया की जमानत के तकरीबन तीन साल बाद लोकसभा चुनाव के दस्तक देते ही केंद्रीय गृहमंत्री के अधीन की दिल्ली पुलिस पुनः हरकत में आई और और दिल्ली पुलिस ने 14 जनवरी, 2019 को 1200 पन्नों की लम्बी-चौड़ी चार्जशीट के साथ हाजिर हो गई। कन्हैया और उमर खालिद सहित 10 लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया।

चार्जशीट में दिल्ली पुलिस ने कहा कि कन्हैया कुमार ने देश विरोधी नारे लगाए थे। दिल्ली पुलिस ने कहा कि इन 10 लोगों के अलावा 36 और नाम हैं, जिनके खिलाफ साक्ष्य के अभाव में केस तो नहीं चलाया जा सकता, लेकिन उन्हें जांच के दायरे में रखा गया है। चार्जशीट में 90 गवाह बनाए, जिनमें से 30 लोगों को नारेबाजी का चश्मदीद गवाह बताया गया।

तमाम तैयारियों के साथ दिल्ली पुलिस कोर्ट पहुंची, लेकिन 19 जनवरी को दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए इस चार्जशीट को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि पहले दिल्ली सरकार की इज़ाजत लेकर आओ, बगैर दिल्ली सरकार के इजाज़त के हम इस केस की सुनवाई नहीं कर सकते हैं। दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने इस केस में मंजूरी नहीं देने का फैसला किया। दिल्ली के गृह मंत्री सत्येंद्र जैन ने कहा कि जेएनयू वाले केस में देशद्रोह का मामला बनता ही नहीं है। दिल्ली पुलिस ने जो भी सबूत पेश किए हैं, उनके आधार पर साफ है कि ये देशद्रोह का मामला नहीं है।

अब ये तो बड़ा रहस्यपूर्ण है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार जो इस मसले में दिल्ली पुलिस द्वारा जुटाए गए सबूतों को राजद्रोह के मुकदमे के अपर्याप्त समझा था, वही केजरीवाल दोबारा सत्ता में ताजपोशी के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात करते हैं और न जाने इस मुलाकात के बाद ऐसा क्या होता है कि 20 फरवरी 2020 को कन्हैया सहित 10 आरोपियों पर केजरीवाल सरकार राजद्रोह का केस चलाने की अनुमति प्रदान करती है।

इस फैसले के बाद केजरीवाल पर चौतरफा राजनीतिक हमला होना ही था, क्योंकि उनकी धर्मनिरपेक्षता की रहस्यमयी धुंध अब छंट चुकी है। नागरिकता संशोधन कानून की गूंज के बीच दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान ही केजरीवाल ने बीजेपी की आक्रमक हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ सॉफ्ट हिंदुत्व की नीति अपनाई थी और अब धीरे-धीरे उनके फर्जी धर्मनिरपेक्षता की नकाब सरकती जा रही है।

हालांकि केजरीवाल सरकार ने यह कहकर इस मामले से पल्ला झाड़ने की भरसक कोशिश कर रही है कि सिर्फ न्यायपालिका ही इस प्रकार के मामलों में निर्णय ले सकती है। इस प्रकार के मामलों में निर्णय लेना सरकार का काम नहीं है। यहां तक कि दिल्ली सरकार ने हमारे अपने विधायकों और पार्टी नेताओं से जुड़े मामलों में भी दखल नहीं दिया।

विधि विशेषज्ञ इस बात को बख़ूबी जान रहे हैं कि कन्हैया कुमार पर राजद्रोह का केस बनता ही नहीं है और दूसरी बात कि दिल्ली सरकार को इस मसले को रद्द करने का पूरा संवैधानिक हक था। यहां मैं याद दिलाना चाहूंगा कि उस घटना को जब मॉब लिंचिंग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखने वाले 49 बुद्धिजीवियों के खिलाफ राजद्रोह के मामले को बिहार सरकार ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इसमें कोई सच्चाई नहीं है, इन बुद्धिजीवियों के खिलाफ राजद्रोह का केस नहीं बनता है।

इसमें कोई शक या संदेह नहीं कि राष्ट्र के खिलाफ या देश के खिलाफ कभी भी कोई कुछ करता है तो उसे माफ नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन राजद्रोह कानून के आड़ में सत्ता के द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को कुचलने का एक सिलसिला कहां तक? राजद्रोह की इस धारा का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल कब तक?

दया नंद
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