दो जून की रोटी का सवाल !

एक जून से अधिकांश जगह कोरोना कर्फ्यू से कुछ हिदायतों के साथ काम करने और बाजार खुलने का ऐलान हुआ है। आज दो जून है और दो जून की रोटी  मुहावरा शब्दकोष की जैसे अमूल्य धरोहर ही बन गया है क्योंकि दो जून यानि दोनों वक्त की रोटी इंसान की अहम ज़रूरत है। यह पेट की ऐसी आग है कि जब लगती है तो भूखा व्यक्ति हर तरह के काम करने को उद्यत हो जाता है। लगता है, इसी आग के कारण समाज में शोषण की बुनियाद रखी गई । असमानता बढ़ी तथा दो वर्ग उभरे जो आज भी मौजूद हैं। जहां सदियों से दो जून की रोटी की तलाश के लिए काम की खोज जारी है। लेकिन काम के बीच मुनाफा और मशीनीकरण के साथ पूंजीवादी ताकतों का खेल चल रहा है जिसने विगत वर्षों में भारत को भी बुरी तरह चपेट में ले लिया है।

विडम्बना ये है कि हमारा देश पिछले  छह सालों से रोजगार देने की बजाए छीनने में लगा है। जब से निजीकरण का भूत हमारी सरकार पर सवार हुआ है तब से हालत सतत बिगड़ती जा रही है तिस पर कोरोना के हमले ने इसे बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है। निजीकरण के बाद आत्मनिर्भरता का मंत्र देकर सरकार ने बेरोजगारों के सिर पर जिस तरह हथौड़ा मारा है वह ऐसा है कि उनसे अपनी पीर ना तो लीलते बन रही है और ना उगलते। सरकारी संस्थानों का निजीकरण कर चंद अमीर घरानों की खैरख़्वाह में लगी सरकार ने  रोटी की चाहत हेतु काम चाहने वालों को मौत के मुंह में धकेल दिया है। राहुल गांधी ठीक ही कहते हैं कोरोना से हुई मोतों की बड़ी संख्या भूख से हुई है क्योंकि कोरोना ने कम इम्युनिटी पावर वालों को ही अपना शिकार बनाया है फिर भूखों का तो कहना ही क्या ?

एक जून कामगारों के लिए ख़ुशी का दिन बन के फिर आया है वे आशान्वित हैं, कम से कम छुटपुट काम तो मिलेगा। लेकिन यह रिपोर्ट जो कह रही है वह चिंताजनक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनॉमी (CMIE) के मुख्य कार्यपालक अधिकारी महेश व्यास ने सोमवार को कहा कि कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के कारण देश में एक करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है जबकि पिछले साल महामारी की शुरूआत से लेकर अब तक 97 प्रतिशत परिवारों की आय घटी है। इसके अलावा सन् 2014 से सेना में भर्ती की आस लगाए युवाओं की आस और मेहनत पर भर्ती पर रोक ने उनको निराश किया है, यही हाल ज्यादा नौकरी देने वाले रेलवे का है।

शिक्षा संस्थानों में कम संख्या दर्ज होने के बहाने प्राइमरी से लेकर महाविद्यालय बड़ी संख्या में बंद हुए हैं नौकरी मिलने के कोई चांस नहीं। कोरोना की दूसरी लहर ने स्वास्थ्य विभाग की भी पोल खोल के रख दी है जहां डाक्टरों से लेकर अन्य कर्मचारियों की बेहद कमी है लेकिन बजट की कमी के चलते भर्तियां बाधित हैं। निजीकरण के कारण हुए बेरोजगारों का हाल बेहाल है। वहीं छोटे दुकानदार,फेरी वालों और लघु उद्यमों को बड़ी कंपनियों ने उनका निवाला छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फल, सब्जियों और अनाज को भी इनकी नज़र लग चुकी है। किसान आंदोलन इनको बचाने के लिए छह माह से चल रहा है लेकिन केंद्र सरकार अपने बिलों पर अड़ी हुई है।

 इतनी ज़बरदस्त बेरोजगारी के बीच मंहगाई का तांडव कैसे परिवारों को दो जून की रोटी दे सकता है अब सरसों के तेल के भाव से आप महंगाई का अंदाजा लगा सकते हैं। 2014 में सरसों का तेल 90₹लीटर था वह अब दुगने दाम यानि 180 से 200₹ लीटर में बिक रहा है। सरसों तेल का इस्तेमाल भारत के बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश सहित कई अन्य राज्य बड़ी मात्रा में करते हैं उस पर ग्रहण लगा दिया है अडानी समूह ने। तकरीबन 40,000 करोड़ के व्यापार पर अडानी समूह ने कब्जा किया हुआ है जिसकी नज़र में हमारे खाद्यान भी आ चुके हैं और उसके कल्याणार्थ ही तीन कृषि कानून बने हैं जिनका विरोध हो रहा है।

 कहने का आशय यह कि निजीकरण कर तमाम उत्पादों को छोटे और लघु उत्पादकों से छीनकर सरकार चंद लोगों के मुनाफे के लिए बड़े पैमाने पर लोगों को बेरोजगारी के मुंह में धकेल रही है इतना ही हमें मिलने वाले सस्ते सामान को बड़ी कंपनियों के ज़रिए बढ़िया उत्पाद के बहाने गरीबों का ख़ून चूसने की कोशिशें जारी रखे हैं। हाल ही में अदार पूनावाला का उदाहरण सामने है जिसकी निजी कंपनी को कोविशील्ड बनाने का जिम्मा दिया वह अधिक कमाई के चक्कर में इंग्लैंड भाग गया यदि कोई सरकारी कंपनी ये काम कर रही होती तो क्या वह भागती?

हमें जागना ही होगा निजीकरण के विरोध के साथ ही अपने अन्न, पानी, हवा और ज़मीन की सुरक्षा के लिए। यदि ये सब हमारे हाथ से निकल गए तो क्या हाल होगा। कोरोना ने हमें जो सबक दिया वह याद रखें यह भी ध्यान रखें कर्फ्यू और लॉकडाऊन की आड़ में किसान काले बिल की तरह जनविरोधी कोई नए कानून ना बनने पाएन नहीं। कोरोना की सावधानियों के साथ अन्य मामलों में सावधानी भी ज़रूरी है।

 वरना कर्फ्यू हटने की यह थोड़ी सी ख़ुशी हमारे देश के बेरोजगारों और बीमारोंकी संख्या और बढ़ा सकती है। तीसरी लहर के डर के बीच सावधानी बरतें ,काम मांगें,भोजन मांगे, इलाज मांगें क्योंकि संविधान के मुताबिक आपको जीवन जीने के लिए तमाम अधिकार प्राप्त हैं। साथ ही साथ दो जून की रोटी सबको नसीब हो इस विचार के साथ सहयोगी बनें। आपदा प्राकृतिक हो तो निपटना सहज होता है पर राजनैतिक कृत्रिम आपदाओं के लिए संघर्ष और जागरूकता पहली शर्त है। आइए सब एकजुटता से रोटी को प्राथमिकता दें ताकि दो जून की रोटी से वंचित लोगों को राहत मिल सके और वे तीसरे कोरोना वार से सुरक्षित रह सकें।

(सुसंस्कृति परिहार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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