वैदिक आरक्षण बनाम संवैधानिक आरक्षण: संदर्भ आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूछा जाना कि यह आरक्षण कितनी पीढियों तक चलेगा, चर्चा और बहुजन समाज के लिए चिंता का विषय बन गया है। आइए आरक्षण के विषय पर बात करते हैं। जिस जाति व्यवस्था के चलते संवैधानिक आरक्षण का प्रावधान किया गया, वह जाति व्यवस्था सनातनी हिंदुओं द्वारा ‘‘फूट डालो और राज करो‘‘ की नीति के तहत हजारों वर्ष पहले बनाई गई थी, जो आज भी जारी है। कठोर जातिगत भेदभाव के कारण दलित वर्ग को आरक्षण प्रदान किया गया। इससे पहले सभी प्रकार के लाभकारी आरक्षण केवल उच्च जातियों के लिए था। आरक्षण भारतीय समाज के लिए कोई नई बात नहीं है। पहले यह एक विशेष जाति के लिए विशेष नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण था। छोटी कही जाने वाली जातियों के आरक्षण का मतलब किसी दूसरे का हिस्सा लेना नहीं है। बल्कि कमजोर वर्ग के हिस्से को दबंगों शरारतबाजों और चालबाजों से बचाने के लिए यह आरक्षण है। उच्च जातियों को छोटी कही जाने वाली जातियों का आरक्षण दिखाई देता है। वे उसका मुखर विरोध करते हैं। लेकिन अपने जाति के नाम पर मिल रहे बड़े आरक्षण और विशेषाधिकार पर चुप रहते हैं। उन्हें छोटी जातियों के नाम पर किए जा रहे शोषण, भेदभाव और अत्याचार दिखाई नहीं देता है।

आरक्षण व्यवस्था वैदिक काल से ही चली आ रही है। यह देश हजारों वर्षों से आरक्षण का देश रहा है। सवर्णों ने सर्वप्रथम अपने लिए आरक्षण की शुरुआत की। स्वतंत्रता के बाद संवैधानिक आरक्षण लाया गया। संवैधानिक आरक्षण वैदिक आरक्षण का छोटा सा काट है, उसकी भरपाई है। यह उसका बहुत ही छोटा सा हिस्सा है। संवैधानिक आरक्षण वैदिक आरक्षण वाले लोगों को यह दिखाने के लिए है कि संवैधानिक आरक्षण वाले भी अवसर मिलने पर सुयोग्य और कुशल होते हैं। लेकिन जब वंचितों को आरक्षण दिया जाने लगा, तब वैदिक आरक्षण वाले संवैधानिक आरक्षण वालों को बदनाम करने के साथ ही साथ उसे समाप्त करने के विभिन्न कार्यक्रम चलाने लगे। धनुर्विद्या में एकलव्य के सामने अर्जुन की क्या औकात थी ? लेकिन द्रोणाचार्य ने कैसे छल किया ? क्या झूठ, छल और तिकड़म ही सुयोग्यता हैं? ये अपने जन्म और जाति के बल पर सुयोग्य बनते रहते हैं।

सवर्णों के हजारों साल से चले आ रहे आरक्षण की तुलना में दलितों के 75 साल का आरक्षण कितना है ? वे हजारों साल से पीढ़ी दर पीढ़ी ब्राह्मण या उच्च जाति क्यों बनते आ रहे हैं ? ब्राह्मणों या उच्च जातियों का आरक्षण कब समाप्त होगा ? अशिक्षित ब्राह्मण या उच्च जाति के लोग पढ़े – लिखे दलितों से भी खुद को मन में श्रेष्ठ क्यों समझते हैं ? सभी क्षेत्रों में दलितों को आरक्षण नहीं दिया जा रहा है, फिर भी उन्हें जितना मिल रहा है, उससे हिंदू धार्मिक जाति व्यवस्था की मान्यताओं पर सीधी कठोर चोट हो रही है। हमारा संविधान छोटी जातियों के खिलाफ हिंदू धार्मिक ग्रंथों के आदेशों और निर्देशों को अमानवीय मानता है। सभी धार्मिक आदेश और रीति-रिवाज जो समानता और मानव अधिकारों का हनन करता है, उसे संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत शून्य और निष्प्रभावी कर दिया गया है। इसके आचरण को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। संविधान ने सामाजिक परिवर्तन और मानवीय गरिमा को गतिशील किया है।

आरक्षण सामाजिक परिवर्तन का एक साधन है। यह वंचित वर्ग का सत्ता में उसका हिस्सा प्रदान करता है। आरक्षण को समाप्त करने के लिए हमें जाति व्यवस्था को समाप्त करना होगा, ताकि जाति के अंत के साथ ही जाति आधारित आरक्षण स्वतः समाप्त हो जायेगा। पहले के दिनों में लोग जाति पूछते थे। अब लोग जाति का पता लगाते हैं। इतना ही अन्तर आया है। जाति का प्रभुत्व इतना मजबूत है कि जाति जानने के बाद अधिकतर लोगों के व्यवहार और आचरण में बदलाव आ जाता है। जिस तरह अमीर दलित जाति के नाम पर अपमानित किया जाता है, उसी तरह क्या कोई गरीब ब्राह्मण जाति के नाम पर अपमानित किया जाता है? उसका उत्तर होगा – कभी नहीं।

 आरक्षण आर्थिक उन्नति के लिए नहीं दिया जाता है। यह उनके सामाजिक उत्थान और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए है। उनकी दबाई गई प्रतिभा को उभारने के लिए है। अनुसूचित जाति, जनजाति या पिछड़ी जाति का कोई व्यक्ति कितना भी धनी क्यों न हो जाए, समाज में ऊँची जातियों के लोग उसे हेय दृष्टि से ही देखते है। ऊँची जातियों को सम्मान देना उसका कर्तव्य माना जाता है। इन पूर्वाग्रहों को बदलने या निष्प्रभावी करने के लिए जातीय आरक्षण की भूमिका  महत्वपूर्ण हो जाती है। समानता का अधिकार समान लोगों पर लागू होता है। असमान समाज के लोगों को समान अवसर देना असमानता को बढ़ावा देना ही कहा जाएगा। दलितों को दी गई रियायतें अधिकार के मामले हैं, न कि दान या परोपकार के मामले हैं। यह जातीय भेदभाव का क्षतिपूरक है। गरीब व्यक्ति कुछ दिनों के बाद अमीर हो सकता है। उसी तरह अमीर व्यक्ति भी गरीब बन सकता है। लेकिन छोटी जाति का व्यक्ति कभी भी बड़ी जाति का व्यक्ति नहीं बन सकता है। क्या किसी अमीर और पढ़े-लिखे डोम-भंगी जाति के व्यक्ति को ब्राह्मण बनते आपने देखा है? क्या किसी गरीब और अनपढ़ ब्राह्मण को डोम चमार बनते देखा है? मरने के बाद भी जाति लोगों का पीछा नहीं छोड़ती है।

उच्च जातियों ने खुद ही आरक्षण का रास्ता दिखाया। आज वे छोटी जातियों के आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। आखिर मंदिर का पुजारी ब्राह्मण ही क्यों होगा? शास्त्री की उपाधि पात्र भंगी मंदिर का पुजारी क्यों नहीं हो सकता है? अपने पास पहले से मौजूद आरक्षण को क्यों नहीं छोड़ते? देश का शासक वर्ग यह चाहता है कि जिन जातियों ने आज तक शासन किया है, उसे वैसे ही जारी रहना चाहिए। दो कारणों से उच्च जातियाँ छोटी जातियों के आरक्षण का विरोध कर रही हैं- पहला छोटी जातियों के उर्ध्वगामी विकास से उत्पन्न असुरक्षा और दूसरा अपने सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक वर्चस्व को बनाए रखने की प्रबल इच्छा। इस प्रकार की परिवर्तित शक्ति से समाज मे उनकी स्थिति कमजोर होती जा रही है। वे पूर्ण वर्चस्व चाहते हैं। आरक्षण विरोध का मर्म यही है। इसलिए वे इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं।

अब इस विरोध में न्यायपालिका भी शामिल हो गई है। ऐसे व्यक्ति आरक्षण को आर्थिक प्रश्न बनाकर आम लोगों के बीच भ्रम पैदा करना चाहते हैं। जाति को लेकर दलित आरक्षण की चर्चा अधिकांशतः सवर्ण परिवार अपने बच्चों से करते है। वे यह भ्रम फैलाते हैं कि देश की समस्या जातिवाद नहीं बल्कि आरक्षण है। वह आरक्षण को ही सारी समस्या की जड़ बताते है। यही बात वह अपने बच्चों को सिखाते है। वह अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। वे अपने बच्चों के दिमाग को दुषित कर देते हैं। लेकिन सामान्यतः दलित परिवार अपने बच्चों को आरक्षण का इतिहास और महत्व नहीं बताते हैं। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने संविधान में आरक्षण द्वारा जाति समस्या के जहर को कम किया है। यह जातीय समता के लिए है। उल्लेखनीय है कि आर्थिक उत्थान के लिए दूसरे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम हैं, जो सिर्फ गरीबों के लिए चलाए जाते हैं।

आर्थिक आधार पर आरक्षण की माँग धोखेबाजों की माँग जैसी है। जो अपने सामाजिक रूप से हाशिए वाले भाइयों के हिस्से को हड़पने के फिराक में रहता है। दलितों-पिछड़ों के आरक्षण का प्रश्न मात्र दलितों-पिछड़ों का प्रश्न नहीं है, उनके लिए यह सामाजिक समता का प्रश्न है, स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का प्रश्न है। यह राष्ट्रीय एकीकरण का सवाल है। यह प्रश्न हिन्दू धर्म की अमानवीय प्रथाओं में सुधार का है। ये जातियाँ राष्ट्रविरोधी हैं। जाति राष्ट्रीय एकीकरण में बाधक है। जातिप्रथा और छुआछूत को देश की एकता और अखण्डता तथा लोकतंत्र के लिए भयंकर खतरा है।

जो लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण का जोर – शोर से नारा लगाते हैं कि जातीय आरक्षण से कार्य कुशलता और दक्षता का हनन होता है। उन्हें जानना चाहिए कि क्या आर्थिक आधार से लाभान्वित लोगों की दक्षता बढ़ जाएगी? क्या वे ज्यादा कार्यकुशल हो जाएंगे? क्या जातीय रूप से प्रताड़ित दलितों की प्रतिभा का हनन नहीं होता है ? क्या इस आरक्षण से अधिकतर गरीबों को रोजगार मिल जाएगा? क्या सभी पढ़े लिखे दलितों को रोजगार मिल जाता है? क्या दलित बेरोजगार नहीं है? क्या दलितों का आरक्षण समाप्त कर देने से बेरोजगारी खत्म हो जाएगी ? क्या आरक्षण का रिश्ता बेरोजगारी से है ? वस्तुतः आरक्षण से बेरोजगारी का कोई रिश्ता ही नहीं है। ऐसे ही लोग जानबूझकर अप्रासंगिक मामले उठा कर अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। इसके बहाने वे दलितों को मिल रहे आरक्षण को हड़पना चाहते हैं। आर्थिक आधार पर आरक्षण का नारा लगाने वाले, यदि जाति समाप्त करो, अनिवार्य रूप से अंतर्जातीय विवाह कानून बनाओ का आंदोलन चलाते तो देश की बहुत सी समस्याएं हल हो जाती। जो लोग दलित आरक्षण को समाप्त करने का नारा लगाते हैं, उन्हें पहले जाति समाप्त करो का नारा लगाना चाहिए। जाति की समाप्ति के साथ दलित-पिछड़ा आरक्षण स्वतः समाप्त हो जाएगा।

 कुछ लोग कहते हैं कि आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। इससे जाति खत्म होने की बजाय बढ़ती है। क्या यह ऐसा है ? प्रश्न उठता है कि क्या गैर-आरक्षित जातियों का जातिवाद खत्म हो गया है ? गैर-आरक्षित जातियों का जातिवाद तो कब का खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन उनके बीच दलितों से ज्यादा आपसी संघर्ष क्यों है ? निश्चित ही आरक्षण से जातिवाद नहीं बढ़ा है। कुछ लोग कहते हैं कि दलित खुद जाति खत्म नहीं करते हैं। अकेले दलित कैसे जाति समाप्त कर सकते हैं? प्रश्न उठता है कि दलित की जाति समाप्त हो जाने से क्या शेष लोगों की जाति खत्म हो जाएगी ? निश्चित ही इससे जाति समाप्त नहीं होगी। जबतक सभी समाजों के लोग जाति समाप्त करने के लिए प्रयास नहीं करेंगे, जाति समाप्त नहीं हो सकती है।

हमारे संविधान निर्माताओं ने कार्यकुशलता और वितरक न्याय के बीच संतुलन रखने का प्रयत्न किया था ताकि प्रशासन वास्तविक बन सके। उन्होंने कार्यकुशलता के जरूरतों की उपेक्षा नहीं की थी, बल्कि यह अनिवार्य कर दिया कि राज्य की सेवाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावों पर विचार हो। कार्यकुशलता से उनका अभिप्राय परंपरागत अर्थ में अथवा मात्र कार्यकुशलता के लिए कार्यकुशलता का संरक्षण करना नहीं था बल्कि एक ऐसी कार्यकुशलता से था जो परिवर्तन की प्रकृति के अनुरूप हो।

यहाँ हीरा चोर को पुरस्कृत किया जाता है और खीरा चोर को दंड़ित किया जाता है। यह भ्रष्टाचार और जातिवाद हमारे अच्छे नागरिकों का मनोबल और राष्ट्रवाद के ताने बाने को छिन्न – भिन्न कर रहा है। भ्रष्टाचार और जातिवाद न्याय का गला घोटता है। आज लोग मानने लगे हैं कि जो जितना बड़ा है, वह उतना भ्रष्ट। यह राष्ट्र के भरोसे का दुरुपयोग और उसके साथ धोखा करना है। न्यायपालिका, सार्वजनिक सेवाओं, सार्वजनिक जीवन और सरकारी गतिविधियों के अन्य क्षेत्रों में भ्रष्टाचार और जातिवाद सर्वत्र दिखाई देता है। इसे मिटाना आसान काम नहीं है। जब कानून लागू करने वाले सभी कानूनी संस्थान भी भ्रष्टाचार और जातिवाद में शामिल हैं, तो यह कैसे मिटाया जा सकता है? इसका हल कैसे निकले? यह एक बडी चुनौती है। क्या भारतीय संस्थाओं में भ्रष्टाचार और पक्षपात कभी खत्म होगा? अथवा यह केवल दिवास्वप्न ही बना रहेगा? क्या सर्वोच्च न्यायलय को इस पर विचार नहीं करना चाहिए? सर्वोच्च न्यायलय की इस पर चुप्पी उसे स्वयं कटघरे में खड़ा करती है।

यह जाति कैसे टूटे ? यह भवन खम्भों पर खड़ा है। भवन को गिराना है तो खम्भों को गिरा दें। जिस चीज पर जाति प्रथा, वर्ण व्यवस्था खड़ी है उसे खींच लें वह गिर जायेगी। जाति प्रथा सुरक्षित रखने के लिये ऐसा कानून बनाया। आज समाज में उसको कानून जैसी ही शक्ति प्राप्त है कि एक ही जाति के वर और वधू की शादी जायज मानी जायेगी। आज यदि यह कानून बना दी जाये कि एक ही जाति के वर और वधू की शादी नाजायज होगी। उसे कोई सरकारी पद और सरकारी सहायता नहीं दी जाएगी। उसे दंडित किया जाएगा। तब धीरे – धीरे जाति प्रथा का बन्धन ढीला पड़ेगा और यह समाप्त होगी। तब चालिस – पचास साल में हम जाति रूपी कोढ़ से छुटकारा पा सकते हैं। तब किसी को आरक्षण की जरुरत नहीं होगी।

क्या सर्वोच्च न्यायलय का यह कर्तव्य नहीं है कि वह आरक्षण के साथ यह भी पूछे कि हजारों साल से जाति और जातीय भेदभाव क्यों चला आ रहा है? यह कब समाप्त होगा?  इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायलय के समक्ष वकीलों द्वारा भी यह मामला उठाया जाना चाहिए कि यह जाति व्यवस्था कब तक जारी रहेगी? जजों की नियुक्ति के लिए कालेजियम व्यवस्था कब तक चलेगी? उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के मूल अनुच्छेद 312 में भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का प्रावधान बनाया गया है लेकिन उसका गठन आजतक नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय खुद इसमें बार – बार अड़ंगा लगाती रहती हैं। देखें आने वाले कल में देश की जनता और वकील, किसान आंदोलन की तरह जाति समाप्त करने और कॉलेजियम व्यवस्था के खिलाफ कब मुखर होगें?

(इं. राजेन्द्र प्रसाद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बी. एच. यू. के छात्र के रूप में इंजीनीयिरिंग की डिग्री प्राप्त करने के बाद बिहार अभियंत्रण सेवा के वरिष्ठ अधिकारी के पद से सेवानिवृत हुए। वे निरंतर लेखन करते रहे हैं। ‘संत गाडगे और उनका जीवन संघर्ष’ और ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। संप्रति वे पटना में रहते हैं।)

इं. राजेंद्र प्रसाद
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