धार्मिक कट्टरताओं का अंत चाहते थे विवेकानंद

वाराणसी। देश के अन्दर सबसे सक्रिय गैंग अगर कोई है तो वो है टीवी चैनल गैंग जो समाज में  मानसिक विभाजन पैदा कर नफरतों को परवान चढ़ा रहा है। आधा सच नहीं बल्कि पूरा झूठ का कारोबार ही इनका धंधा है। “सिर्फ सच, हकीकत से वास्ता जैसे हैश टैग के साथ झूठ और नफ़रत को पूरी ताकत के साथ ये लोगों के बीच परोस रहे हैं। इसके लिए इतिहास के नायकों और महापुरुषों को भी नहीं बख्श़ रहे हैं। कल 11 सितंबर को एक राष्ट्रवादी चैनल ने शिकागो के नायक स्वामी विवेकानंद की तस्वीर और उनके आह्वान वाक्य “उठो, जागो अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक रुको मत” को काट-छांट कर टीवी स्क्रीन पर दिखा रहा था।

“हिन्दू विरोधी गैंग के खिलाफ उठो-जागो” बहस चल रही थी महिला एंकर गला फाड़कर बेतुका तर्क दे रही थी और इन सबके लिए इतिहास के उस नायक का इस्तेमाल किया जा रहा था जिसने शिकागो की धर्म सभा में कहा था, “आज जो घंटा इस धर्म सभा में बजा मैं आशा करता हूं वो सभी तरह की धार्मिक कट्टरताओं का अंत करेगा।” अंधेरे से प्रकाश की तरफ चलने को विवेकानंद ने जीवन का मूल मंत्र माना। समता-समानता उनके चिंतन का हिस्सा था। वो कहते थे जहां करोड़ों देशवासी नरक सा जीवन भोगने को अभिशप्त है वहां आराम से बैठना उचित है क्या? उन्होंने कहा कि मैं उस ईश्वर पर विश्वास नहीं करता जो भूखे को रोटी नहीं दे सकता।  ‘State society and socialism’ उनकी लिखी किताब है जो उनके उनके उदार नजरिए का दस्तावेज है।

शिकागो धर्म सभा तक पहुंचने  का रास्ता उनके लिए आसान नहीं था। वहां तक पहुंचने के लिए उन्हें भी हालात से लड़ना पड़ा मुश्किलों का सामना करना पड़ा। खुद उनके अनुभव बताते हैं कि धर्म सभा तक पहुंचने की राह उनके लिए कांटों भरे डगर से कम न थी। उनके लिखे पत्र की पंक्तियां उस दौर में हालात से लगातार दो-चार हो रहे उनके संघर्षों का बयान है। “‘ यहां के बहुतेरे लोग मुझे ठग समझते रहे हैं। यहां पर सभी लोग मेरे विपक्ष में हैं। एक तो मिशनरी के लोग ही मेरे पीछे पड़े हुए हैं साथ ही यहां के हिन्दू भी ईर्ष्या के कारण उनका साथ दे रहे हैं-ऐसी दशा में उनको जवाब देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है।”

28 जून 1894 को शिकागो से यह पत्र विवेकानंद ने मद्रास में रह रहे अपने एक शिष्य को लिखा। पत्र का एक-एक शब्द बताता है कि युवा संन्यासी के लिए धर्म सभा की राह आसान न थी। आज से 125 वर्ष पहले मद्रास से शिकागो के लिए चले विवेकानंद को अभाव, अनाहार और अपमान से भी लड़ना पड़ा था। सभा के बाद की ख्याति और जय-जयकार से पहले सभा तक उनके पहुंचने की राह अग्निपथ से कम नहीं थी। जिस धर्म सभा के बाद नायक बन उभरे  जिस विवेकानंद को अमेरिकी मीडिया ने साईक्लोनिक हिंदू की संज्ञा दी उसी विवेकानंद ने धर्म सभा के चंद रोज पहले अमेरिका से मद्रास में अपनी शिष्या आलसिंगा पेरूमल को तार के जरिए संदेश भेजकर कहा “सारे पैसे खर्च हो गए हैं। कम से कम स्वदेश लौट आने के लिए रुपये भेजो”।

अमेरिका प्रवास के दौरान अर्थ संकट से उन्हें दो-चार होना पड़ रहा था। उन्हीं के सहयोगी रहे अमेरिकी साधक कृपानंद ने न्यूयॉर्क से मिसेज उली बुल को चुपके-चुपके खबर दी। कमरे का किराया, विज्ञापन छापने का सारा खर्च स्वामी जी खुद वहन कर रहे हैं। ये सारे खर्च चलाते हुए, अक्सर वो बिना खाए रह जाते हैं। लेकिन वे दैत्य की तरह मेहनत करते हैं। 

भूख किसे कहते हैं वो जानते थे, इसलिए दुनिया भर के भूखे लोगों की पीड़ा को खुद में महसूस करते हुए सैकड़ों तरह की बीमारियों से लड़ते हुए जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य शरतचंद्र को एक भोजनालय खोलने की हिदायत देते हुए कहा “जब रुपए आएं तब एक बड़ा  भोजनालय खोला जाएगा। भोजनालय में सिर्फ यही शोर  गूंजता रहेगा-दीयता;नीयता;भज्यता;। …देश में ऐसा भोजनालय खुलते हुए, अपनी आंखों से देख लूं, तो मेरे प्राण चैन पा जाएं।

शिकागो से 2 नवंबर 1893 को आलसिंगा को लिखे पत्र में स्वामी जी हावर्ड यूनिवर्सिटी के भाषा के प्रोफेसर डॉ.राइट् के बारे में जिक्र करते हुए लिखते हैं- उन्होंने जोर दिया कि मैं सर्व धर्म  सम्मेलन में अवश्य जाऊं, क्योंकि उनके विचार से इससे मेरा परिचय सारे अमरीका से हो जाएगा। प्रोफेसर साहब ने ही मेरे लिए सब बंदोबस्त किया और मैं फिर शिकागो आ गया। 

इसके बाद धर्म सभा में “अमेरिकी निवासी भागिनी तथा भ्रातृगण के उद्बोधन ने इतिहास को बदल दिया। लक्ष्य और उसकी प्राप्ति तक बिना रुके, बिना थके चलते रहने का मंत्र मानव जाति का सबसे बड़ा संकल्प बन गया। जो आज भी वैश्विक जगत में करोड़ों लोगों के लिए विपरीत परिस्थितियों में असंभव को संभव बनाने का मंत्र बना हुआ है। और वो लक्ष्य है समता-समानता और गैर बराबरी का अंत।

  (भाष्कर गुहा नियोगी पत्रकार हैं और आजकल वाराणसी में रहते हैं।)

भास्कर सोनू
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